संस्कृत भाषा
शिक्षण प्रक्रिया एवं मनोविज्ञान |
भाषा व्यक्ति की अभिव्यक्ति है, चिन्तन का प्रतिफल है, उसकी उत्कण्ठा है। इसका विकास एक दिन का विकास नहीं युगो के विकास का प्रतिफल है । "वाग्वै सम्राट परं ब्रह्मा वाणी ' ही संसार का सम्राट है परब्रह्मा है। भाषा वस्तुतः मनुष्य मुख से निसृत ध्वनियों का वह सार्थक ध्वनि समुह हैं जिसमें व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करता है और दूसरे को समझता है । बालक सर्वप्रथम मातृभाषा के सम्पर्क में आता है। उसके बाद प्रादेशिक भाषा के इसके बाद आती है राष्ट्र भाषा जिसमें देश भर के समस्त सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्रिया-कलाप किये जाते है । राष्ट्रीय भाषा के अतिरिक्त देश की और भाषा होती है वह है “सास्कृतिक भाषां" जिसमें किसी भी देश की प्रगति का इतिहास छिपा रहता है । उसकी प्राचीन संस्कति का भण्डार सुरक्षित रहता है। भारत देश की प्राचीन संस्कृति संस्कृत में निहित है। इसके बाद आती है अन्तर्राष्ट्रीय भाषा । यह वह भाषा जिसके जानने से विश्व के समस्त देशों से राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक सम्बन्धों को बनाये रखा जा सकता है।
स्वीट महोदयानुसार- "ध्वन्यात्मक शब्दैः विचारानां प्रकटीकरणमेव भाषा ।
काव्यदर्शकार दण्डी के अनुसार “वाचामेव प्रसादेन लोक यात्रा प्रवर्तते।"
इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायते भुवनत्रयम् ।
यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरा संसार न दीप्यते । दण्डी
अर्थात् यदि शब्द ज्योति लोक में प्रकाशित नहीं होती तो सम्पूर्ण संसार अन्धकारमय होता ।
भाषा दो प्रकार (सांकेतिक भाषा को छोड़कर) की होती है। मौखिक एवं लिखित । विचारों की मौखिक अभिव्यक्ति मौखिक भाषा होती है। इसके विपरीत लिखित भाषा में ध्वनि संकेत को प्रतीकरूप से लिखकर अभिव्यक्ति करते है।
“विचार आत्मा की मूल या आध्यात्मक बातचीत है पर ध्वन्यात्मक होकर होंठों पर प्रकट होती है तो भाषा कहलाती है।
भाषा सुनिश्चित प्रयत्न के फलस्वरूप मनुष्य के मुख से निकली सार्थक ध्वनि समूह जिसका विश्लेषण एवं अध्ययन सम्भव है। भोलानाथ तिवाड़ी
संस्कृत भाषा के महत्त्व के सम्बन्ध में निम्न उक्तियाँ
पं. जवाहर लाल नेहरू “यदि कोऽपि मां पृच्छेत यत् भारतस्य विशालेयं सम्पतिरस्ति का? एवञ्च उत्तराधिकाररुपेण भारतेन सवोत्तम वस्तु किमधिगतं? तर्हि निसंकोचरुपेणाहमुत्तरं दास्यामि यत् सा सम्पत्तिरस्ति संस्कृतभाषा साहित्यञ्च ।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद “संस्कृतस्य मूलाधारों आध्यात्मिकता वर्तते या च जगति भारतस्य अद्वितीयाभिव्यक्तिरस्ति।"
स्वामी विवेकानन्द “संस्कृतध्वनिषु, शब्दभण्डारे च जीवनशक्तेः जागरणस्य क्षमता अस्ति । भारते क्षेत्रीय भाषाभिः सह संस्कृतमपि अनिवाय रूपेण अध्यायनीयम्।
भाषा- वाग्यंत्र से उच्चारित वह सार्थक ध्वनि जिसके माध्यम से मनुष्य अपने विचारों को व्यक्त करता है या दूसरे के विचारों को ग्रहण करता है, 'भाषा' कहते है। भाषा के विविध रूप
1. विविधता भाषा का एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह विविधता व्यक्ति के विभिन्न स्तरों पर समाज के सम्पर्कों से उत्पन्न होती है। व्यक्ति परिवार तक सीमित न रहकर अपने कार्यों के कारण दूर-दूर तक यात्रा करता हैं, और विभिन्न भाषाओं के सम्पर्क में आता है। उस पर उन सभी भाषाओं व व्यक्तियों के भाषिक.प्रयोगों का असर होता है। जिसके कारण भाषा के अनेक रूप विकसित होते हैं। इनमें प्रमुख हैं 1. मातृभाषा-बालक जन्म में ही अपनी माँ के मुख से जिस भाषा को सुनता है और सीखता है, उसकी मातृभाषा होती है।
2. बोली-यह किसी भाषा की उपभाषा या उसकी भी एक अंग-उपांग होती है। भेद भाषा के स्थानीय आधार पर प्रयोग-भेद की विभिन्नता के कारण होता है इसमें सीमित शब्दावली, व्याकरणिक-रूप-उच्चारण,लिंग, वचन और वाक्य गठन आदि अस्थिर होते है।
3. प्रादेशिक भाषा-यह किसी प्रदेश या प्रांत के विस्तृत भू-भाग में निवास करने वाले अधिकांश लोगों की भाषा होती है। इसका अपना साहित्य एवं लिपि होती है।
4. राज भाषा-जिस भाषा का प्रयोग शासन एवं सरकार के काम-काज को संपादित करने के लिए किया जाता है राज भाषा होती हैं। हिंदी भाषा भारत की राज भाषा है जिसे 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने स्वीकार किया । और अनुच्छेद 343 में देव नागरी लिपी को माना है।
5. राष्ट्रभाषा-जिस भाषा को सम्पूर्ण राष्ट्र के लोग विचार विनिमय एवं संपर्क के माध्यम के रूप में स्वीकार करते ह। एवं जो परे गष्ट में बोली व समझी जाती है। राष्ट्रभाषा कहलाती है।
6. संस्कृति भाषा-जिस भाषा में किसी देश की प्रगति का इतिहास छिपा हो उसकी प्राचीन संस्कृति का भण्डार जिसमें सरक्षित रहता है। संस्कृतिक भाषा कहते है।
भाषा की विशेषताएँ 1. भाषा अर्जित सम्पत्ति है (वंशानुगत नहीं)- अर्जन करता है। , भाषा सामाजिक प्रक्रिया है (वैयक्तिक उपयोग की नहीं)-समाज में रहकर 3. भाषा अनुकरण से सीखी जाती है - सुनकर 4. भाषा परम्परागत है (वैयक्तिक उत्पाद नहीं) 5. भाषा सतत परिवर्तनशील प्रक्रिया है - अंतिम स्वरूप नहीं 6. प्रत्येक भाषा की संरचना दूसरी भाषा से भिन्न होती है। 7. भाषा कठिनता से सरलता की ओर अग्रसर होती है।
भाषा सीखने का मनोविज्ञान
शिशु जन्म से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में लग जाता है। इस कार्य में उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ सहायता करती है।
इस प्रक्रिया में भाषा सीखने में कुछ मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियाँ कार्य करती हैं। जैसे - 1. जिज्ञासा- नए शब्द जानने या सीखने प्रबल इच्छा। 2. अनुकरण - सबसे अधिक ज्ञान अनुकरण द्वारा। 3. अभ्यास - अभ्यास और पुनरावृत्ति के द्वारा ही छोटे बच्चे भाषाई कौशलों को विकसित करते है।
भाषा सीखने की प्रक्रिया भाषा सीखने की प्रक्रिया में बालक के मस्तिष्क में चार प्रकार के बिम्ब बनते हैं - अ. दृश्य बिम्ब
श्रुति बिम्ब
विचार बिम्ब
भाव बिम्ब
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शोभशम्
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