समायोजन : समायोजन का तात्पर्य व्यक्ति की अपनी आवश्यकताओं और उनको पूरा करने वाली विभिन्न परिस्थितियों के बीच तालमेल या सामंजस्य स्थापित करने की प्रक्रिया से है। समायोजित व्यक्ति संतुष्ट तथा प्रसन्न रहता है। समायोजन का अर्थ समझने के लिए कुछ परिभाषाओं पर दृष्टिपात करते हैं
कोलमैन के अनुसार, "समायोजन अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने तथा खिंचावों से निपटने के लिए व्यक्ति द्वारा किये गये प्रयासों का परिणाम है।"
स्किनर : "समायोजन एक अधिगम प्रक्रिया है।
गेट्स एवं अन्य के अनुसार : "समायोजन एक सतत् प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने व वातावरण के मध्य सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन करना है।"
बोरिंग,लैंगफील्ड तथा वेल्ड के अनुसार:"समायोजन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्राणी अपनी आवश्यकताओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में सन्तुलन रखता है।"
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समायोजन वह दशा है, जिसमें व्यक्ति समाज स्वीकृत व्यवहार कर अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है।
कुसमायोजन:
जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और उनको पूरा करने वाली परिस्थितियों के बीच संतुलन स्थापित करने में असमर्थ रहता है तो वह तनाव, दबाव, भग्नाशा आदि मानसिक रोगों से ग्रस्त होकर असामान्य व्यवहार करने लगता है, इसे कुसमायोजन कहा जाता है। कुसमायोजन की कुछ परिभाषाएँ निम्न प्रकार से हैं
आइजेक और अन्य : "यह वह अवस्था है, जिसमें एक ओर व्यक्ति की आवश्यकतायें तथा दूसरी ओर वातावरण के अधिकारों में पूर्ण असन्तुष्टि होती है।"
एलेक्जेंडर एवं स्वीट्स : "कुसमायोजन से अभिप्राय कई प्रवृत्तियाँ हैं, जैसे-अतृप्ति, भग्नाशा एवं तनावात्मक स्थितियों से बचने की अक्षमता, मन की अशान्ति एवं लक्षणों का निर्माण।"
कुसमायोजित व्यक्ति निम्न सामान्य मानसिक रोगों से ग्रस्त रहता है
द्वन्द्व या संघर्ष :
जब व्यक्ति के सामने एक साथ प्रतिकूल अवसर, विरोधी विचार, इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं तो मानसिक संघर्ष या द्वन्द्व उत्पन्न होता है। यह क्या करूँ या क्या न करूँ? की स्थिति होती है।
तनाव :
जब व्यक्ति समयानुकूल, परिस्थितियों के अनुसार कार्य नहीं कर पाता तो तनाव ग्रस्त हो जाता है।
दुश्चिन्ता :
जब व्यक्ति की कोई दमित इच्छा अचेतन मन से मन में आती है तो दुश्चिन्ता उत्पन्न होती है। दुश्चिन्ता चेतन तथा अचेतन मन के मध्य संघर्ष का परिणाम है।
भग्नाशा :
जब व्यक्ति अपनी किसी इच्छा की पूर्ति नहीं कर पाता है तो वह इस असफलता से निराश हो जाता है, इस निराशा को ही भग्नाशा कहा जाता है। भग्नाशा से व्यक्ति का आत्मविश्वास कम हो जाता है। दबाव : जब सफलता-असफलता की बात हो,आत्म-सम्मान की बात हो या भंयकर प्रतिस्पर्धा हो, तब व्यक्ति कार्य करते समय दबाव महसूस करता है।
ये भी पढ़ें |
बुद्धि: अर्थ,परिभाषा,प्रकार एवं सिद्धांत तथा संवेगात्मक बुद्धि ⇦Click here अधिगम अर्थ,परिभाषा,प्रकार एवं गेने की अधिगम सोपानिकी अभिवृद्धि एवं विकास , विकास की अवस्थाए,शैश्वास्था-बाल्यावस्था-किशोरावस्था |
समायोजन तंत्र :
समायोजन तंत्र का तात्पर्य उन युक्तियों से है, जिन्हें व्यक्ति ऊपर वर्णित मानसिक रोगों से बचने के लिए या इनके साथ समायोजन करने के लिए काम में लाता है। इन्हें आत्मसुरक्षा अभियांत्रिकायें, रक्षात्मक युक्तियाँ या मानसिक मनोरचनाएँ भी कहा जाता है। इन युक्तियों को निम्न 4 भागों में विभाजित किया गया है—(1) प्रत्यक्ष उपाय; (2) अप्रत्यक्ष उपाय; (3) क्षतिपूरक उपाय; (4) आक्रामक उपाय।
1. प्रत्यक्ष उपाय :
समायोजन के प्रत्यक्ष उपायों के अन्तर्गत
निम्न युक्तियाँ आती हैं
(i) बाधाओं को दूर करना या नष्ट करना-
इस रक्षात्मक युक्ति में व्यक्ति अपने लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करके तनाव
से मुक्ति पा लेता है तथा समायोजित हो जाता है।
(ii) मार्ग बदलना या कार्यविधि में परिवर्तन-
जब व्यक्ति लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को नष्ट या दूर नहीं कर पाता तो वह रास्ता बदलकर या कार्यविधि में परिवर्तन करके तनाव से मुक्ति पा लेता है।
(iii) लक्ष्यों का प्रतिस्थापन :
जब किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है तो उसमें मिलते-जुलते किसी छोटे लक्ष्य को प्राप्त करके तनाव कम करना। जैसे-आई.ए.एस. नहीं बन पाने पर आर.ए.एस.
बनकर तनाव कम करना।
(iv) विश्लेषण एवं निर्णय :
जब व्यक्ति मानसिक द्वंद्व की स्थिति से गुजरता है। तब वह इस रक्षात्मक युक्ति का प्रयोग करता है। वह एक साथ उत्पन्न हुई प्रतिकूल परिस्थितियों का विश्लेषण कर निर्णय लेता
है तथा मानसिक द्वंद्व से मुक्ति प्राप्त करता है।
2.अप्रत्यक्ष उपाय :
अप्रत्यक्ष उपायों में निम्नलिखित युक्तियाँ आती हैं
(i) दमन :
जिन इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती है, उन्हें दमित कर तनाव को दूर किया जाता है।
(ii) दिवास्वप्न :
जिन इच्छाओं की पूर्ति वास्तव में संभव नहीं है, उन्हें व्यक्ति कल्पनाओं से प्राप्त कर लेता है तथा क्षणिक तनाव में मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
(iii) प्रत्यागमन/पलायन/पथक्करण:
इस रक्षात्मक युक्ति में व्यक्ति तनाव उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से स्वयं को पृथक् कर लेता है। उदाहरणार्थ-यदि सास बहू को डांटती है तो वह उठ कर दूसरे कमरे में चली जाती है।
(iv) प्रत्यावर्तन/प्रतिगमन :
इस रक्षात्मक युक्ति में व्यक्ति अपने तनाव को कम करने के लिए वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा वह पूर्व में कभी किया करता था। उदाहरणार्थ-वयस्क पुरुष का बच्चे की तरह विलाप करना।
(v)शोधन/मार्गन्तीकरण:
समाज द्वारा अमान्य प्रवृत्तियों को समाज द्वारा मान्य प्रवृत्तियों को बदल देना।
(vi) प्रक्षेपण/आरोपण :
अपनी कमियों या दोषों को दूसरे पर थोप कर अपना तनाव कम करना। इस युक्ति के लिए एक मुहावरा प्रचलित है, 'नाच न जाने आंगन टेढ़ा।' उदाहरणार्थ-परीक्षा में कम अंक आने पर प्रश्न-पत्र में दोष निकालना।
(vii) युक्तिकरण/औचित्य स्थापना :
जब काफी प्रयास करने के बाद भी कोई वस्तु या पद प्राप्त नहीं होता है तो उस वस्तु या पद में ही दोष निकाल कर औचित्य की स्थापना करना। इसमें 'अंगूर खट्टे हैं' वाली कहावत लागु होती है।
No comments:
Post a Comment