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Saturday, February 29, 2020

संस्कृत भाषा शिक्षण विधियां

 संस्कृत भाषा शिक्षण विधियां

Sanskrit shikshan vidhiyan
संस्कृत शिक्षण विधियां प्राचीन एवं नव रीति शिक्षण उपागम




शिक्षा एक प्रक्रिया है जो मानवविज्ञान में निरन्तर चलती रहती है। जब मनुष्य जीवन में नूतन अनुभवों को आत्मसात करता है, तब यह शिक्षण कहलाता है । इन नूतन अनुभवों की प्राप्ति ही प्रशिक्षण है अतः शिक्षा  व्यापक अर्थ में आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है , यह ही शिक्षा का व्यापक अर्थ है।
जॉन स्टुअर्ट मिल के अनुसार-“व्यापकार्थे शिक्षा चरित्रमानवीयक्षमतयोः तेषां तत्वानाम् अप्रत्यक्षान् प्रभावान् अपि बोधयति येषां प्रत्यक्ष प्रयोजनं नितान्तरूपेण भिन्नं भवति।"
संकुचित अर्थ में शिक्षा-निश्चित स्थान जैसे (विद्यालय महाविद्यालय) निश्चित समय में नियतपाठ्यक्रम का विशिष्ट योग्यताधारी शिक्षक द्वारा शिक्षण होता है। इसमें विशिष्ट योग्यता का विकास ही उद्देश्य होता है ।
टी. रेमन्ट महोदयानुसार-“शिक्षया वयं तान् विशिष्टान् प्रभावान् अवगच्छायः यान् समाजस्य वयस्क वर्गः ज्ञात्वा योजनापूर्वकं तरुण वर्ग शिक्षयति।"
इस प्रकार सकुचित अर्थ में शिक्षा प्रक्रिया योजना द्वारा गतिशील होती है। जो कुछ भी परिवर्तन या परिवर्धन करना चाहते है। वह एक पूर्व निर्धारित योजना होती है। उसी योजना द्वारा सभी व्यवहार सम्पादित होते है। जैसे विद्यालय में जो शिक्षा व्यवस्था है वह सकुचितार्थ में शिक्षा है क्योंकि वहाँ सब कुछ पूर्व निर्धारित योजनानुसार होता है। कोई भी समाज हो उसकी अपनी एक जीवन शैली एव दर्शन होता है उस समाज के नागरिक भी उसी शैली एवं दर्शन का अनुसरण करते हुए  सुखपूर्वक जीवन यापन करते है। समाज की जो जीवन शैली होती है,उसमें जीवन यापन होता है इस विषय को ध्यान में रखकर उस समाज के भावी  नागरिको को शिक्षित करने के लिए समाज विद्यालय नाम की संस्था की स्थापना करता है। उसमें स्वयं के दर्शन के अनुसार एक नियत पाठ्यक्रम निर्धारण करता है। उस पाठ्यक्रम को पढाने के लिए प्रशिक्षण द्वारा शिक्षकों की व्यवस्था करता है  जिनके दर्शन के अनुसार एक नियत पाठ्यक्रम का निर्धारण करता है। 

शैक्षिक रीति या विधि- विज्ञान के आरम्भ के विषय में कहा जा सकता है कि जब से शिक्षण व्यवस्था आरम्भ हुई तब से ही विभिन्न रीतियों का प्रयोग होना प्रारम्भ हो गया।

आज का युग न केवल वैज्ञानिक है बल्कि मनोवैज्ञानिक भी है। शिक्षण पद्धतियाँ अथवा शिक्षण प्रणालियों के क्षेत्र में मनोविज्ञान ने काफी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए है। 

संस्कृत शिक्षण की विधियां

1. मॉण्टेसरी विधि- 

इटली की शिक्षाशास्त्री डॉ. मारिया माण्टेसरी ने इस प्रणाली को 3-6 वर्ष के बच्चों हेतु प्रयुक्त की। इसमें सर्वप्रथम बालकों की कर्मेन्द्रियों हाथ पैर वाणी आदि को प्रशिक्षित व दृढ किया जाता है। अक्षरों के कटे हुए ब्लॉक्स के माध्यम से लेखन का ज्ञान कराया जाता है। साथ ही अक्षर ध्वनियों का भी लिग्वाफोन के माध्यम से ज्ञान दिया गया है । इस प्रकार इस पद्धति के तीन भाग है। 1. भाषा की शिक्षा 2. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा 3. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा । माण्टेसरी के अनुसार लिखना पढ़ने की अपेक्षा सरल है। अतः सर्वप्रथम लिखना सिखाया जाना चाहिए। अतः कह सकते हैं कि यह पद्धति केवल वैयक्तिकता को ही ध्यान में नहीं रखती अपितु ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों की शिक्षा, स्वयं शिक्षा, भाषा शिक्षण आदि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। 

 2. किण्डरगार्डन विधि-

जर्मन के प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री फ्रावेल के अनुसार विद्यालय बाग ,शिक्षक माली तथा बच्चे पौधे (किण्डर) के समान है। 1837 में 
फ्रोबेल ने जर्मनी में किण्डरगार्टन नाम का विद्यालय खोला । उन्होंने खेल द्वारा शिक्षा एवं स्वतः क्रिया द्वारा शिक्षा के सिद्धान्त पर बल दिया। इस विधि में 5 साधन प्रयोग में लाये जाते है। 1. उपहार 2. व्यापार 3. गीत 4. अभिनय 5. रचना । यह विधि फ्राबेल ने 4-8 वर्ष के बच्चों पर लागू की। 

 3. डाल्टन विधि- 

प्रथम प्रयोग डाल्टन नगर में कु. हेलन पार्क हर्ट ने किया। इस विधि में समय चक्र आदि का कोई बन्धन नहीं है बालक अपनी रुचि के अनुसार किसी भी विषय को जितनी देर पढ़ना चाहे पढ़े। बालक के उचित कार्यों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। स्वाध्याय पर अधिक बल दिया गया है। 
विशेषताएं
1.निर्दिष्ट पाठ की ईकाई-छात्र अपनी रुचि एवं सुविधानुसार कोई भी अनुबन्ध एक वर्ष के लिए ले लेता है। वर्ष के निर्दिष्ट पाठ को पुनः महीनों, सप्ताहों और दिनों में विभाजित कर दिया जाता है।
2. प्रयोगशालाएँ- प्रत्येक विषय की एक प्रयोगशाला होती है। जिसमें सम्बन्धित सामग्री उपलब्ध होती है। उचित सामग्री द्वारा निर्दिष्ट पाठ पूरा कर सकें।
3. सम्मेलन सभा- प्रातः काल विद्यालय में शिक्षक छात्रों को आवश्यक सूचना देता है। तत्पश्चात् छात्र अपने कार्य में लग जाता है सायः पुनः सभा होती है । जिसमें शिक्षक द्वारा छात्रों की समस्याओं का समाधान किया जाता है। शिक्षक विषय, विशेषज्ञ और निर्देशक के रूप में कार्य करता है।
4. प्रगति सूचक रेखाचित्र- छात्रों के कार्य सम्बन्धी आंकड़े रेखाचित्र पर अंकित कर दिये जाते है। जिससे छात्र अपनी प्रगति ज्ञात कर सकता है। 
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4.खेलविधि

खेल द्वारा शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य बालक का सर्वागीण विकास करना हैं। विशिष्ट उद्देश्य को सम्मुख रखकर उसी के अनुरूप शिक्षा दी जाती है । इसके प्रवर्तक ‘हेनरी काल्डवेल कुक है।
स्तरानुसार शिक्षण विधि का वर्गीकरण होता है। -
1. प्राथमिक कथाएँ-क्रियात्मक शब्दों का खेल । गत्ते के टुकड़ों पर कुछ क्रियात्मक शब्द लिखकर दूर दूर विशेषकर एक टुकड़ा उठाकर उस लिखी क्रिया के अनुरूप प्रतिक्रिया कराई जाती है। इससे संज्ञा सर्वनाम और विशेषण का ज्ञान कराया जाता है।
2. माध्यमिक कक्षाएँ- वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के आधार पर दो भागों में वाद-विवाद या प्रतियोगिता कराई जाती है। चित्र देखकर कहानी बनाने को कहा जाता है। घटना का वर्णन, स्वप्न आदि के आधार पर लिखना, डायरी लिखना, काल्पनिक क्रियाएँ कराई जाती है।
3. उच्चकक्षाएँ- उच्चस्तरीय प्रतियोगिताए, परिभाषाए ,कण्ठस्थीकरण, समस्यापूर्ति खेल। जैसे कहानियों का संवाद करवाना, मौलिक् कविता कहानी , नाटक लिखवाना काल्पनिक भेट का विवरण लिखवाना आदि।
गुण
प्रत्येक विषय के लिए उपर्युक्त, व्यवहारिक, जीवन में सफलता, भाषा शिक्षण में बहुत उपयोगी, रचना, व्याकरणआदि के लिए उचित।

5. प्रोजेक्ट विधि-

प्रो. डब्लू एच.किलपैट्रिक ने प्रतिपादन किया किन्तु जान ड्यूबी (डी वी) इस विधि के मूल विचारक थे। डीवी ने बालक के शिक्षण ये प्रयोगात्मक विधि अपनाये जाने पर बल दिया। किलपैट्रिक ने डीवी के विचारों को व्यवस्थित रूप  दिया। इस पद्धति की छः चरण है।
1. परिस्थिति उत्पन्न करना।
2. प्रोजेक्ट का चयन 
3.प्रोजेक्ट कार्यान्वयन व कार्यक्रम बनाना 
4. बनाए गये कार्यक्रम को व्यावहारिक रूप देना । 
5.कार्य का निर्णय 
6. कार्य का विवरण लिखना 
प्रोजेक्ट में विभिन्न विषयों जैसे- इतिहास, हस्तकार्य (भूगोल, भाषा,  अंकगणित आदि की शिक्षा प्रदान की जाती है।)
प्राचीन काल में संस्कृत शिक्षण गुरुकुल या आश्रमों में होता था। तब गुरू के साथ विद्यार्थी रहते हुए अध्ययन करते थे। उस समय मुद्रित पुस्तके नहीं थी तब कण्ठस्थीकरण पर बल दिया जाता था। यदाकथा आश्रम या गुरुकुल में आये हए अतिथियों से छात्र विभिन्न विषयों पर प्रश्न एव वाद विवाद करते थे। जिससे उनकी जिज्ञासा शान्त होती थी, धीरे-धीरे पाठन शैली में परिवर्तन हुआ तथा राष्ट्र में विदेशियों के अधिकार के कारण गुरुकुलो एवं आश्रमों का ह्वास होने लगा तथा पाठशालाओं का उदय हुआ। शिक्षण रीतियों के प्रयोग का आरम्भ हुआ। जैसे- पारायण विधि, सूत्ररीति, भाषणरीति, व्याकरणरीति भण्डाररीति आदि। । अंग्रेजों के शासन काल में लार्ड मैकाले के निर्देश में भारत में नवीन शिक्षापद्धति प्रारम्भ की गई। उस समय से लेकर आज तक जो शिक्षण रीति प्रचलित है वे नवीन शिक्षण रीति कहलाती है। जैसे पाठ्यपुस्तक विधि, प्रत्यक्षविधि, विश्लेषणात्मक विधि, व्याख्यारीति व्याकरणरीति हरबर्टीयपञ्चपटी, मूल्यांकन रीति इत्यादि । इनमें भी विशिष्ट लक्ष्य स्वीकार करके शिक्षण प्रयोग किये जाते है वे नवीनतम रीति या उपागम कहलाते है। उनमें सूक्ष्मशिक्षण, आगमनोपागम समस्यासमाधान विधि, प्रयोजनात्मक कार्य समूह शिक्षण अभिक्रमितानुदेश, निदानात्मक शिक्षण, उपचारात्मक शिक्षण इत्यादि आते हैं।

Sanskrit shikshan vidhi Prakar
Sanskrit shikshan vidhi Pracheen, Naveen,Naveentam



 संस्कृत साहित्य ने मूलरूप से तीन प्रकार की शिक्षण रीति प्रचलित है। लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति से पूर्व जो रीतियाँ प्रचलित थी। वे प्राचीन रीति कहाती है। उसके पश्चात् आज तक जो रीति प्रचलित है वे नवीन रीति है। तथा इन नवीन रीतियों में जो नवीन या नूतन प्रयोग किये जाते हैं वे नवीन या नूतन प्रयोग दिये जाते है वे नवीनतमोपागमः कहलाते है।।
Prachin Sanskrit shikshan vidhiyan
Sanskrit Pracheen shikshan vidhi


प्राचीन विधि के दो भेद है। प्रथम पाठशाला विधि है । पाठशाला विधि का अपर नाम पण्डितप्रणाली अथवा परम्परागत विधि है। 17 वीं शताब्दी पर्यन्त पाठशाला में आश्रम एवं गुरुकुल में शिक्षा व्यवस्था चलती थी उसके बाद जैसे-जैसे मैकाले महोदय की शिक्षा पद्धति का विकास एव प्रचार प्रारम्भ हुआ वैसे-वैसे पाठशालाओं की उपेक्षा भी प्रारम्भ हो गई। पाठशाला रीति में छात्र का उपनयन संस्कार करके गुरू के पास जाकर वेदाध्ययन करता था । गुरुकुल में गुरू विभिन्न विधियों में शिष्यों को पढ़ाता था। जैसे प्राचीनकाल में कण्ठस्थीकरण का महत्त्व था अतः पारायण विधि में बहविध पारायण होता था, जैसे पदपाठ संहितापाठ, धनपाठ आदि। इसी प्रकार गम्भीर विषय के ज्ञान के लिए वाद-विवाद रीति का आश्रय लिया जाता था। इसमें आचार्य या प्रतिभाशाली विद्यार्थी विशिष्ट विषय को लेकर शास्त्रार्थ या उस विषय पर वाद-विवाद करते थे। अन्य विद्यार्थी उस विषय को सुनकर समझते थे। जटिल विषयों के स्मरण के लिए सूत्ररीति का प्रयोग करते थे। कभी-कभी गुरू के बाहर जाने पर ज्येष्ठ एवं मेधावी छात्र कक्षाओं का संचालन करता था। अन्य विषयों पर व्याख्यानमाला का भी आयोजन किया जाता था। इस प्रकार पाठशाला में अनेक विधियाँ रीतियों का प्रयोग होता था।

1. मौखिक विधिः 

(व्यक्तिगतशिक्षणविधिः)- पाश्चात्य शिक्षा पद्धति आरम्भ होने से पूर्व आश्रम आदि में वैदिकमन्त्रों के उच्चारण बार-बार किया जाता था। छात्रों द्वारा उच्चारण शुद्धता के लिए व्यक्तिगत रूप से यह कार्य किया जाता था।
         1.इसमें छात्रों का उच्चारण शुद्ध होता था।
          2.मौखिक अभिव्यक्ति सशक्त होती थी। 

2. पारायण विधि:-

 वैदिकमानों का सस्वर पाठ करना पारायण कहलाता है। पारायण के अनेक क्रम होते थे। पाठ की कठिनता के अनुसार इसकी सख्या निश्चित होती थी जैसे- पाच बार सप्तवार अष्टवार नववारमि पारायण करना होता था।
1. इस विधि से प्राप्तज्ञान का रक्षण एवं आगामिवंश परम्परा के लिए सुरक्षित करना है।

3. वाद-विवाद विधि:- 

पाठशाला में कण्ठस्थीकरण के साथ अवबोध पर भी बल दिया जाता था। पाणिनि के द्वारा भी अवबोध के स्थलों पर भाषण-व्याख्या प्रदर्शन आदि शब्दों  का प्रयोग किया हैं। यमी ,गार्गी-मैत्रयी, नदी विश्वामित्र आदि  वेदों में संवाद के उदाहरण है। दार्शनिक तत्वों के शिक्षण मुख्यतः न्यायशास्त्र के अध्ययन यह विधि प्रचलित थी।
1.इस विधि से छात्रों में भाव प्रकाश की शक्ति का विकास होता है। 2 छात्रों में स्वाध्याय की प्रवृति आती है।

4. प्रश्नोत्तरविधि:-

 वैदिककाल में औंकार' इस शब्द बाद पाठन आरम्भ था। शिक्षण द्वारा प्रश्नोत्तर प्रत्येक प्रश्न का छात्र द्वारा उसकी आवृति की जाती है। इस प्रक्रिया से व्याख्यान भी सम्पन्न होता था। कभी प्रश्नों को विस्तृत उत्तर में दिया जाता था। जब तक जिज्ञासा शान्त नहीं होती तब तक प्रश्न माला चलती थी। प्राचीन यूयानी दार्शनिक सुकरात' ने इसविधि से समाज में उपदेश दिया है।
गुण
1.छात्र सक्रिय रहता है। 2 छात्रों में चिन्तन तर्क निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।

5. सूत्रविधि:

यह विधि व्याकरण, दर्शन शिक्षण की प्राचीनतम विधि है। इस से नियमों को सूत्ररूप से कण्ठस्थीकरण किया जाता था। इसके सूत्रों की व्याख्या के लिए भाष्य विधि टीका विधि का अनुसरण किया जाता था।
गुण
क्लिष्ट विषयों के अवगमन एवं स्मरण में सर्वोत्तम है।।

6. कथाकथन विधि-

कथा सुनाना भी एक कला हैं। विषय में रुचि उत्पादन के लिए विषय का स्पष्टीकरण के लिए पाठ के मध्य में पञ्चतंत्र,
हितोपदेश के उदाहरण प्रस्तुत करना।
गुण
बालकों में कल्पना शक्ति का विकास । 
शिक्षण सरस एवं सरल होता है।
बालकों में सुनकर अर्थग्रहण की क्षमता का उत्पादन होता है। 

7. कक्षानायक विधि-

गुरू की सहायक प्रतिभाशाली शिष्य करते थे गरू की अनुपस्थित में इस प्रकार के शिष्य शिक्षण कार्य करते थे। 
1. इस विधि से मेधावी छात्रों के ज्ञान की परिपुष्टि होती थी।
 2. आत्मविश्वास का विकास होता था। 

 8. व्याख्याविधि- 

छात्रों की शंका समाधान के लिए गुरू व्याख्या विधि का अनुसरण करता था व्याख्या के छः अग।।
पदच्छेदः पदार्थोक्तिः संशयो वाक्ययोजना।
आक्षेपश्च समाधानं व्याख्यानं षड्विधं स्मृतम् ।। 
माधवाचार्य ने व्याख्या के पाँच बिन्दु माने है। विषयो संशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरः ।
संगतिश्चेति पञ्चांग शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ।।
 इस विधि में संस्कृत के साथ अन्य सहायक भाषा का प्रयोग भी किया जाता है।
शब्दों के संरचना का परिचय होता था। बालों को विस्तृत ज्ञान होता था। इससे बालक का मानसिक क्रिया शीलता में वृद्धि होती। 
दोष
प्राथमिक माध्यमिक स्तर के लिए उपयुक्त नहीं।
छात्रों के स्वाध्याय एवं अभिव्यक्ति का महत्व नहीं।  

9 .व्याकरण विधि:

भाषा का व्याकरण प्राण तत्व है। इस के बिना भाषा का ज्ञान अपूर्ण हैं अतः व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है। प्राचीनकाल में वेदाध्यायन के लिए व्याकरण का पठन पाठन विशेष रूप से होता था। पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है- रक्षार्थ वेदानाम् अध्येयं व्याकरणम्"
इससे भाषा के ध्वनि तत्वों से छात्र परिचित होते हैं। भाषा के शुद्ध लेखन का एवं उच्चारण का ज्ञान होता है।

~ व्याकरण-अनुवादविधि/भण्डाकरविधि:

यह विधि 1835 ई. में लार्ड मैकाले की पद्धति के बाद विकसित हुई। डॉ. रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने पाश्चात्य प्रणाली पर आश्रित संस्कृत शिक्षण के लिए एक नवीन विधि विकसित की इसने व्याकरण अनुवाद विधि आश्रित दो पुस्तकों की रचना की।  मार्गोपदेशिका और द्वितीय संस्कृत मन्दिरात और प्रवेशिका आंग्लभाषा माध्यम से रचित दो पुस्तकों से सरलतया संस्कृतभाषा उसके व्याकरण को अध्ययन में छात्रों के लिए उपयोगी रही।
वामनाशिवराम आप्टे ने "The Student Guide to Sanskrit Composetion" इसकी रचना में इस विधि का अनुकरण किया कैलहोरन-मोनियर विलियम-मैक्डानॉल्ड आदि अन्य विद्वानों ने भी इस विधि को स्वीकार किया।
गुण
इस विधि ने मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का अनुसरण किया। प्रौढ एवं स्वयंपाठी एवं पत्राचार पाठ्यक्रम के लिए उपयोगी। विषयवस्तु का सम्यक विभाजन एवं अध्ययन में कठिनाई का निराकरण । इस विधि आधारित पुस्तक छात्रों की पथ प्रदर्शक होती है। कण्ठस्थ की बजाय चिन्तन एवं निरीक्षण पर बल।
 दोष
उच्चतर कक्षाओं के लिए ही उपयोगी। भाषा के विविध पक्ष उच्चारण अभ्यास, मौखिक, रसानुभूति आदि की उपेक्षा।
केवल व्याकरण एवं अनुवाद पर अधिक बल दिया। 

नवीनविधि- 

मैकाले पद्धति से शिक्षण में प्रयुक्त विधि ही नवीन विधि कहलाती है। 
1.पाठ्यपुस्तक विधि, 2.प्रत्यक्ष विधि,3. विश्लेषणात्मक विधि 4. व्याख्या विधि 5. व्याकरण विधि 6.हरबर्टीय पञ्चपदी (1) प्रस्तावना (उन्मुखीकरण) (2) विषयोपस्थापनम् (प्रदर्शन) (3) तुलना (अमूर्तीकरण) (4) सामान्यीकरण (5) प्रयोग 7.मूल्यांकन विधि

 1. पाठ्यपुस्तक विधि- 

भारत में पाठ्यपुस्तक विधि के समर्थक डॉ. वेस्ट महोदय थे। इनके अनुसार निर्धारित पाठ्य पुस्तक जो कि कक्षा के छात्रों के स्तर के अनुकूल होती है। उसके पाठों का मातृभाषा में अनुवाद किया जाता है। इसके पुस्तकों का मुख्योद्देश्य छात्रों का स्वयं ही अध्ययन करके सरल संस्कृत ज्ञान प्राप्त करना है । सम्पूर्ण अध्ययन का केन्द्रबिन्दु पाठ्यपुस्तक होती है।
गुण
शिक्षण सूत्रो का अनुसरण पूर्ण रूप से किया जाता है अतः यह विधि मनोवैज्ञानिक है। शब्द कोष की वृद्धि में सहायक होती है। सस्वर वाचन में छात्रों को शुद्धोच्चारण के अभ्यास का अवसर। इस विधि द्वारा शिक्षण प्रक्रिया में समरूपता नियमितता सिद्ध होती है। अवकाश के समय छात्र पाठ को स्वयं पढ़ सकते है। जिज्ञासा का विकास। साहित्य के प्रति अनुराग का प्रादुर्भाव ।
दोष:
इस विधि में छात्रों का ध्यान केवल पाठ्यपुस्तक के अन्तर्गत ही सीमित हो जाता है। व्यापकता का अभाव। समीक्षात्मक शक्ति धीरे-धीरे लुप्त होती है। रटने की प्रवृति आती है। व्याकरण के क्रमबद्ध ज्ञान का अभाव।
यह यान्त्रिक विधि है। 

2. प्रत्यक्ष विधि:-

 इस विधि को सुगमपद्धति, निर्बाधविधि भी कहते हैं । सर्वप्रथम अग्रेजी भाषा में इस विधि का प्रयोग किया गया। प्रत्यय विधि का तात्पर्य है कि जिस भाषा का अध्यापन किया जा रहा है. वह उसी भाषा में हो। जैसे-संस्कत का संस्कृत माध्य में अग्रेजी भाषा के माध्यम में अध्ययन हो। 
ध्येय बिन्दुः 1.मौखिक कार्य की प्रधानता हो ।
2. भाषा के बोध के लिए मातृभाषा का प्रयोग नहीं। 3. पद एवं पदर्थ के मध्य सम्बन्ध की स्थापना करना।
संस्कृत शिक्षण में इस विधि में वी. पी. बोकील महोदय ने अल्फिन्स्टोन नामक विद्यालय मुम्बई नगर में किया। A New Approoch to Sanskrit, इस पुस्तक में प्रो. बोकील महोदय ने प्रत्यक्षविधि की उपयोगिता का वर्णन सम्यक् रूप से प्रतिपादन किया गया है। इनके द्वारा स्वीकृत यह भाषा शिक्षण में सबसे उपयुक्त है।
1.भाषा शिक्षण सिद्धान्त के अनुकूल सिद्धान्त। 2. इस विधि से संस्कृत को संस्कृत माध्यम में ही पढया जाये। 3. सम्भाषण के कारण छात्रों में सक्रियता।
4. श्रवण-पढन, लेखन एवं भाषण के पर्यप्त अवसर । 5.संस्कृत की उन्नति में सहायक।
दोष
1.संस्कृत-शिक्षण की गति मन्द।
2. प्रतिभाशाली विद्यार्थीयों की अपेक्षा मन्द बुद्धि के लिए अनुपयुक्त। 3.प्राथमिक स्तर में अनुपयुक्त।
4. संस्कृत के प्रत्येक सोपान के लिए उचित नहीं। 5.अधिक समय एवं शक्ति की आवश्यकता ।
3. विश्लेषणात्मक विधिः- इस विधि में पूर्व से अंश की ओर सूत्र का अनुसरण किया जाता है। पाठ का सार प्रस्तुत किया जाता है। उसके बाद विभिन्न अंशों का शिक्षण किया जाता है। व्याकरण एवं कथा शिक्षण के लिए अधिक उपयोगी।
  1. मनोवैज्ञानिकविधि।
2. क्लिष्ट अंशों पदों विषयों के स्पष्टीकरण के सहायक । 
3. पढने के लिए प्रेरित करती है। 4. रुचिकर सरल सुग्राह्य । दोषः
उच्चतर कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं।
सभी के लिए उपयोगी नहीं जैसे-साहित्य आदि।

 4. हरबर्टीय पञ्चपदी:

सुप्रसद्धि शिक्षाशास्री हरबर्ट महोदय द्वारा इस सिद्धान्त की स्थापना की गई। इसविधि में पाँच सोपान है।
1. प्रस्तावना (उन्मुखीकरणम्)- इस को छात्रा के पूर्वज्ञान से सम्बन्ध होता है। पूर्वज्ञान पर आधारित चित्र, मानचित्र, दिखाकर कुछ प्रश्न पूछे जाते है । प्रश्नों द्वारा छात्रों को मानसिक रूप से तैयार किया जाता है। पाठ की सूचना शिक्षक द्वारा कक्षा में दी जाती है।
2. विषयोपस्थापना (प्रदर्शन)- इस सोपान के साथ नवीनपाठ का शिक्षण प्रारम्भ किया जाता है। प्रत्येक विद्या के लिए भिन्न-भिन्न शैली होती है। जैसे-गद्यपाठ में आदर्श वाचन, अनुकरण वाचन, अशुद्धि संशोधन विविविधियों से काठिन्यनिवारण, पाठप्रवर्धन इत्यादि का समावेश होता है।
3. तुलना (अमूर्तीकरणम्)- छात्रों में जिस स्थल में कठिनता अनुभव हो उनको निवारण के लिए समान भाव एवं विषय से युक्त उदाहरण, दृश्य श्रव्यो पकरण, या सारकथन का प्रयोग किया जाता है।
4. सामान्यीकरणम् इस सोपान में छात्र पाठ के निष्कर्ष पर पहुँचते है। जैसे व्याकरण पाठ में उदाहरणों से नियम के प्रति, गद्यपाठ में पाठ के मुख्य सार के प्रति । नियमों एवं सिद्धान्त का स्रोत एवं साधनों का सामान्यीकरण किया जाता है।
5. प्रयोग- पाठाध्ययन के बाद नव अर्जित ज्ञान प्रयोग के लिए शिक्षण की सफलता के लिए, अभ्यास कार्य करवाया जाता है। विद्यार्थियों में जो शंका होती है, उसको दूर किया जाता है। उसके बाद कुछ मौखिक एवं लिखित कार्य दिया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य छात्रों में सम्पादित ज्ञान का परिपोषण करना है।

गुण
मनोवैज्ञानिक तत्वों पर आधारित है। छात्रा का ज्ञान स्थायी होता है। शिक्षण सिद्धान्तों एवं सूत्रों का अनुकरण होता है।
शिक्षण के बोधगम पर बल दिया जाता है।  छात्र निरन्तर प्रशिक्षित होते है।
 दोष:- (1) सभी विषयों के लिए अनुपयोगी जैसे विज्ञान, (2) संस्कृत के सभी विषयों के लिए लाभप्रद नहीं।


5. मूल्याकन विधि:

यह विधि 'हरबर्टीय पञ्चपटी' विधि का विकसित-रूप है। इसमें प्रत्येक सोपान से सम्बन्धित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कक्षा में आयोजित क्रियाकलापों का सयोजन करके मूल्यांकन किया जाता है । इस विधि को शिक्षण के क्षेत्र में उद्देश्यों का व्यवहारगतपरिवर्तनों के सह लेखन को बी. एस. ब्लूम महोदय ने सर्वप्रथम प्रारम्भ किया। ये अपेक्षित परिवर्तन का व्यवहार के तीन पक्षों में होते है- संज्ञात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक । बी. एस ब्लूम ने संज्ञानात्मक के क्षेत्र में, डेविड आर क्रेथोल ने भावात्मक के क्षेत्र में, डॉ. ए. जे. हैरो महोदय ने मनोगत्यात्मक क्षेत्र में कार्य किया है । राबर्ट मेजर एवं रॉबर्ट मिलर के प्रयास भी उद्देश्यों के निर्धारण में प्रशसनीय है।
मूल्यांकन विधि में ज्ञात विषय का समग्र मूल्यांकन होता है। इसविधि के सोपोन निम्न है। 1. उद्देश्य:- सर्वप्रथम उद्देश्यों का निर्धारण करना।2. व्यावहाररूपः- निर्धारित उद्देश्य के आधार पर छात्रों के पूर्व ज्ञान में कितना परिवर्तन होगा? कितना ज्ञान प्राप्त करेंगे इन तत्वों का उल्लेख होता है।
3. पाठ्यबिन्दुः- पाठ्यबिन्दुओं का निर्धारण करते है। जैसे-भाषण शिक्षण का पाठने के वाचन, प्रश्नोत्तर, काठिन्य निवारण, सारकथन, पुनरावर्तनम इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है।
4. शिक्षण कार्य:- विषय वस्तु के स्पष्टीकरण के लिए शिक्षक कौन-कौन सी क्रिया करेगा। किन-किन उपकरणों का प्रयोग करेगा। कौन सी विधि से पढायेगा। इन बिन्दुओं का उल्लेख करते है।
5. छात्र कार्य:- प्रत्येक पाठ के लिए छात्रों के अभिप्रेरणा के लिए, उनके सक्रिय सहभागिता के लिए जो क्रिया कलापों के निर्धारण काना तथा उनका उल्लेख करना।
6. मल्यांकन:- यह उददेश्य निष्ठशिक्षण का एक महत्वपूर्ण सोपान है। प्रतिसोपान की सफलता का परीक्षण मल्यांकन प्रश्नों की
यह एक पूर्व मनोवैज्ञानिक विधि है।
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