अरब-इज़रायल फिलिस्तीन विवाद -उत्थान तथा इतिहास रोमन साम्राज्य व ईसाई मुस्लिम और यहुदी यरूशलम ,वेस्ट बैंक,गोलान हाइट्स एवं गाजा से जुड़ा रक्तरंजित संघर्षJagriti PathJagriti Path

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Monday, May 17, 2021

अरब-इज़रायल फिलिस्तीन विवाद -उत्थान तथा इतिहास रोमन साम्राज्य व ईसाई मुस्लिम और यहुदी यरूशलम ,वेस्ट बैंक,गोलान हाइट्स एवं गाजा से जुड़ा रक्तरंजित संघर्ष


Arab-Israeli Palestine Dispute
Arab-Israeli Palestine Dispute Rise and History The Roman Empire and Christian Muslims and Jewish,the bloodshed struggle involving  Jerusalem, ,West Bank, Golan Heights and Gaza strip




इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष को कौन नहीं जानता दशकों से चले आ रहे विनाशकारी और कत्लेआम का यह संघर्ष ज्वालामुखी की तरह समय समय पर धधकता रहा है। हालांकि अस्तित्व और देश बचाने की इस जंग का रोद्र रूप तो नया है लेकिन इतिहास के झरोखे से देखा जाए तो इस विवाद की कहानी हमें ईशा मसीह के जन्म से पहले तक ले जाती है। आइए जानते हैं कि इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष के क्या कारण है? इजरायल और फिलिस्तीन के बीच की लड़ाई कितनी पुरानी है? इजरायल और फिलिस्तीन के बीच कौन-कौन से युद्ध हुए? इजरायल और फिलिस्तीन के बीच विवाद की जड़ क्या और कौन है? पूरे लेख में हर पहलू पर चर्चा करेंगे जिससे सरल तरीके से समझ सकें कि आखिर यह लड़ाई कहां ,कब और किन विषयों पर शुरू हुई और अब किस मोड़ पर है?



फिलिस्तीन-इजरायल के अस्तित्व का अतीत


इजरायल के अस्तित्व की कहानी बहुत पहले की भी हो सकती है लेकिन यहां हज़रत इब्राहीम से शुरू करते हैं जिसमें हजरत इब्राहीम को यहूदी, ईसाई और इस्लाम सभी सम्मान देते हैं। इब्राहीम का मूसा सिद्धांत जिसमें यहूदी ईसाई और मुस्लिम सभी ने पैगम्बर मानते हुए हज़रत इब्राहीम को सम्मान दिया। हज़रत इब्राहीम के वंश में इजराइल का जन्म हुआ इतिहास में बताया जाता है कि इजराइल इब्राहीम के पुत्र की संतान में से थे। इजराइल ने ही दर्जन कबीलों को मिलाकर इजराइल का गठन किया था। जिसे आज विश्व पटल पर इजराइल देश के नाम से पहचाना जाता है। इजराइल के एक बेटे का नाम जूदा (यहूदा) था। इसी कारण इस धर्म को Jew या यहूदी नाम से जाना जाने लगा। यहूदियों के पैगंबर मूसा के बारे कुरान और बाइबल में जानकारी मिलती है। वह फिलीस्तीन के इतिहास की बात करें तो फिलीस्तीन क्षेत्र पर दूसरी सहस्त्राब्दि में मिस्रियों तथा हिक्सोसों का राज्यथा। लगभग इसा पूर्व 1200 में हजरत मूसा ने यहूदियों को अपने नेतृत्व में लेकर मिस्र से फिलीस्तीन की तरफ़ कूच किया।हिब्रू (यहूदी) लोगों पर फिलिस्तीनियों का राज था।



इजरायल का पतन


ईसा पूर्व भी इजरायल के बारे में इतिहास बताता है कि यहां किंग डेविड (दाउद) नामक शासक ने शासन किया। किंग डेविड के बाद किंग सोलोमन(सुलैमान) ने शासन किया इनका कालखंड ईसा से करीब 900 साल पहले का है। किंग सोलोमन ने यहूदियों का पहला धार्मिक स्थल यरुशलम में बनवाया जहां ईश्वर यहोवा की पूजा होती थी।  
किंग सोलोमन के बाद यहुदियों के बिखराव का समय शुरू हो जाता है। लगभग 930-31 ईसा पूर्व में इजराइल में सिविल वॉर होता है और ये इलाका उत्तर में इजराइल किंगडम और दक्षिण में जूदा किंगडम में बंट जाता है। इजराइल के बंटवारे के बाद यहां इराक के बेबीलोन साम्राज्य का कब्जा हो जाता है। यरूशलेम में यदुहियो के धार्मिक स्थलों को तोडा जाता है। इस तरह इस दौर में
330-332 ईसा पूर्व में इजराइल पर सिकंदर का आगमन होता है सिकंदर के शासन के बाद में यहां रोमन साम्राज्य का आगमन होता है । यहां से यहुदियों के किस्मत में परेशानियों का दौर शुरू हो जाता है। यहां यहूदियों पर बड़े स्तर पर कत्लेआम होता है। इस समय के आसपास यरुशलम में ईसा मसीह का जन्म होता है। इसप्रकार यहां ईसाई धर्म की नींव पड़ती है। उसके बाद रोमन साम्राज्य में ही पिलातुस के आदेश पर ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाकर मरवाया गया।
ईसाई और युदुहियो के बीच यहां टकराव चरम पर होता है।
ईशु की मौत का जिम्मेदार यहूदियों को मानकर सदियों तक यहूदियों का नरसंहार किया गया। इजरायल में यहुदियों द्वारा रोमन साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया लेकिन यहुदियों का कत्लेआम रूका नहीं यरूशलम में दूसरा धार्मिक स्थल ध्वंस्त किया गया। यहुदियों के धार्मिक अवशेष तबाह किए गए। यहां से यहुदी भागकर अन्य जगह शरण लेने लगे। यहीं से यहूदी डायसपोर(यहुदियों का पलायन और शरण) की शुरुआत मानी जाती है जो वर्ष 1917 तक जारी रहती है जिसमें जर्मनी में हिटलर ने सबसे अधिक यहुदियों को कत्ल किया था। करीब 1900 वर्ष तक कत्लेआम चला था। यहां भी ईसाइयों और यहुदियों की दुश्मनी अगले सैकड़ों वर्ष तक रही‌। अब यहां नया मोड़ आता है और इस्लाम का भी आगमन होता है।
इसी साल मक्का में हजरत मोहम्मद का जन्म होता है ईस्वी 622 में वो मक्का से मदीना गए जिसे इस्लाम में हिजरी कहा गया मदीना में तब अरबी कबीलों के आलावा ज्यादा आबादी यहूदियों की थी और तीन मुख्य कबीले यहूदियों के पास थे।। यहां पर इस्लाम और यहूदियों के बीच संधि हुई कि जब मक्के से हमला होगा तो मुसलमान और यहूदी मिलकर उनका मुकाबला करेंगे और यहां से यहूदियों के जीवन में पहली बार इस्लाम का आगमन हुआ। लेकिन इस्लाम और यहुदियों के बीच भी दुश्मनी जल्द हो जाती है।


ईसाई , मुस्लिम और यहुदी त्रिकोणीय संघर्ष


लम्बे काल खण्ड के बाद तेरहवीं शताब्दी के आते आते यूरोप के ईसाइयों ने धार्मिक युद्ध छेड़ दिया वो पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी जेरूसलम जहां ईसा का जन्म हुआ था उसे मुसलमानों से छीनने के लिए युद्ध करने लगे। यहां यहुदी वापस इजरायल आने लगे।यहुदी अब एक राष्ट्र की तलाश में सोचने लगे। हालांकि पौलेंड में भी यहुदी संगठित होते हैं। लेकिन यहां भी उन्हें चैन से रहने नहीं दिया। यहुदियों ने ना तो ईसाई धर्म का समर्थन किया ना ही इस्लाम का वे अपने धर्म को बचाने के लिए सदियों तक ना जाने कितनी कुर्बानियां देते रहे। दुनिया में यहुदियों का नरसंहार सबसे बड़े नरसंहारों में एक माना जाता है। जिसमें सबसे ज्यादा कत्लेआम रोमन साम्राज्य के दौरान होता है।


विश्व युद्ध,औपनिवेशिक दौर तथा इजरायल व यहुदी


हम विश्व में ईसाई मुस्लिम व यहुदियों के संघर्ष की लम्बी अवधि के बाद सीधे प्रथम विश्व युद्ध 1914 के समय तक पहुंचते हैं इस समय फिलिस्तीन तथा इजरायल दोनों थे। विश्व में ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी अपने कदम आगे बढ़ा रही थी । ब्रिटेन ने लगभग विश्व के हर हिस्से में उपनिवेश बना लिए थे। शासन करने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति का अनुसरण करते हुए। विश्व के हर कोने में हस्तक्षेप करने लगे। इस दौरान इतिहास में प्रथम विश्व होता है। जिसके बाद नाजीवाद का उदय होता है। तथा यहुदियों की मुसीबत एक बार फिर बढ़ जाती है। जिसमें हिटलर के समय लाखों यहुदियों को गैस सेंबर में मारा जाता है। तथा जर्मनी के आस पास से यहुदियों को भगाया जाता है। अब दो युद्धों के बीच जहां यहुदी अपने लिए राष्ट्र ढूंढ रहे थे तो दूसरी और दो विश्व युद्धों में तबाह हो चुकी दुनिया में शान्ति का माध्यम। प्रथम विश्व युद्ध में धूरी राष्ट्रों की हार और कठोर संधियों से दुसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होती है तथा दूसरे विश्व युद्ध में फिर से जापान पर अमेरिका के परमाणु हमलों के साथ ही युद्ध को विनाशकारी अन्त में ले जाकर दुनिया को जल्द से जल्द शान्ति की तरफ जाने का संकेत दे दिया। 1939-45 के बीच चले अन्तिम महायुद्ध के बाद 24 अक्टूबर 1945 को ही संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हो जाती है। हालांकि 10 जनवरी 1920 को राष्ट्र संघ जैसी शान्ति संस्था की स्थापना भी होती है लेकिन यह संघ द्वितीय विश्व युद्ध को रोक नहीं पाती है। अब दुनिया में अधिकतर देश ब्रिटेन के शासन से मुक्त हो रहें थे। दुनिया में पूंजीवाद और साम्यवाद जैसी ताकतों का दौर शुरू हो जाता है। अब यहुदियों के सफर में थोड़ी बहुत शान्ति आने लगती है। लेकिन ब्रिटेन के शासक (ईस्ट इंडिया) कंपनी जाते जाते विवादित स्थितियां पैदा कर के चले जाते हैं। जो जटिल विवादों में हमेशा फंसे रहते हैं। इसी दौर में फिलिस्तीन और इजरायल के बीच संघर्ष की नवीन कहानी शुरू हो जाती है जो 1946 से शुरू होकर आज तक उसी रूप में जारी है। लेकिन यहां अमेरिका और ब्रिटेन इजरायल को मान्यता दे देते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में इजराइल को राष्ट्र की मान्यता मिल जाती है। लेकिन यहां अरब के मुस्लिम राष्ट्र इजरायल की मान्यता को स्वीकार नहीं करते हैं। इस प्रकार ब्रिटेन द्वारा छेड़ी गई चिंगारी की लपटे तेज हो जाती है। तथा औद्योगिकीकरण के दौर में व्यापारिक हितों के चलते अमेरिका जैसे देश इजरायल के पक्ष में होते हैं तो दूसरी और मुस्लिम देश फिलिस्तीन के पक्ष में। इस मामले संयुक्त का राष्ट्र संघ में पहुंचने तथा यरूशलम पर संयुक्त राष्ट्र संघ के अधीन होने के बाद तथा 100 वर्षों तक चले संघर्ष में क्या उतार चढ़ाव आते हैं? आगे समझने की कोशिश करते हैं।


बालफोर समझौता फिलिस्तीन व इजरायल संघर्ष की नींव


ब्रिटेन और यहूदियों के बीच हुआ बालफोर समझौता उस दौर में तुर्की और उसके आसपास के इलाकों में ऑटोमन साम्राज्य का परचम लहराता था। लेकिन 1914 विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों और ब्रिटेन के बीच बालफोर समझौता हु। दोनों के बीच हुए इस समझौते के मुताबिक यदि युद्ध में ब्रिटेन ऑटोमन साम्राज्य को हरा देता है तो फिलिस्तीन के इलाके में यहूदियों के लिए एक स्वतंत्र देश की स्थापना की जाएगी। लेकिन ब्रिटेन ने यह वादा पूरा नहीं किया यहां से आधुनिक संघर्ष की नींव पड़ जाती है।
इस समझौते के बाद जायनिस्ट कांग्रेस को लगा कि अगर युद्ध के बाद ब्रिटेन अपना वादा पूरा करता है तो नए देश की स्थापना के लिए उस इलाके में बड़ी आबादी की मौजूदगी जरूरी है। ऐसे में यहूदियों ने अपने देशों को छोड़कर धीरे-धीरे फिलिस्तीन के इलाके में बसना शुरू किया। यहां हिटलर के खौफ की वजह से बड़ी संख्या में यहुदी फिलिस्तीन पहुंचते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद साल 1920 और 1945 के बीच यूरोप में बढ़ते उत्पीड़न और हिटलर की नाजियों के हाथों नरसंहार से बचने के लिए लाखों की संख्या में यहूदी फिलिस्तीन पहुंचने लगे। इस इलाके में यहूदियों की बढ़ती आबादी को देखकर फिलिस्तीनियों को अपने भविष्य की चिंता हुई और इसके बाद फिलिस्तीनियों और यहूदियों के बीच टकराव शुरू हो गया। इस हिसाब से इजरायल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष तो प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही शुरू हो गया था। 




इजरायल को राष्ट्र की मान्यता तथा भूमि बंटवारा


दूसरे विश्व युद्ध के बाद फिलिस्तीन में संघर्ष बड़े पैमाने पर जारी था। ब्रिटेन के शासन काल में यह संघर्ष मुसीबत बन गया। ऐसे में वो इस मामले को नवगठित संयुक्त राष्ट्र में ले गये। संयुक्त राष्ट्र ने 29 नवंबर, 1947 को द्विराष्ट सिद्धांत के तहत अपना फैसला सुनाया और इस इलाके को यहूदी और अरब देशों में बांट दिया। यरुशलम को अंतरराष्ट्रीय शहर घोषित किया गया। इस प्रकार इस बंटवारे में कुल क्षेत्र का 48 प्रतिशत हिस्सा फिलीस्तीन को 44 प्रतिशत इजरायल को तथा 8 प्रतिशत हिस्सा यरूशलम (जरूशलम) को दिया गया।
1948 के बंटवारे के बाद एक हिस्सा अरब देशों को तथा दूसरा हिस्सा यहूदियों को मिला मगर ये बंटवारा अरब देश को पसंद नहीं आया। यहां से इजरायल और अरब देशों की असली जंग शुरू होती है।
1948 के आते आते अंग्रेज इस इलाके को छोड़कर चले गए और 14 मई, 1948 को यहूदियों का देश इजरायल अस्तित्व में आया। यहां पर निवास करने वाले मुस्लिम फिलिस्तीन की मांग करने लगे। जिसमें यासिर अराफात के नेतृत्व में फिलिस्तीन के लिए कई संघर्ष हुआ जिसमें इन मुस्लिम लोगों को इजराइल ने करारा जवाब दिया। यह संघर्ष अब भी जारी है। जिसमें लाखों निर्दोष लोगों को मारा जा रहा है। अब यहां इजरायल अपने देश के अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं तो वहीं फिलिस्तीनी अपनी जमीन के लिए। लेकिन इजरायल ने इस दौर में बहुत तेज गति से विकास किया और आधुनिक तकनीक से आज दुनिया के शक्तिशाली राष्ट्रों की लिस्ट में शुमार हो गया वहीं फिलस्तीनी हर बार अरब देशों के सहयोग से संघर्ष करता रहा । आज इजरायल आधुनिक शक्तिशाली हथियार और सेना की दृष्टि से मजबूत है वहीं फिलस्तीन को अरब देशों से भी निराशा हाथ लग रही है। आखिरकार 11 मई 1949 को संयुक्त राष्ट्र से इजरायल को मान्यता मिल गई।


अरब देशों का इजरायल पर हमला तथा प्रमुख युद्ध


इजरायल को राष्ट्र के रूप में ऊभरता देख अरब देशों को रास नहीं आया सीरिया, लीबिया और इराक ने मिलकर इजरायल पर हमला बोल दिया इसी के साथ ही इतिहास में अरब-इजरायल युद्ध की शुरुआत होती है। अरब ने अपनी सेना युद्ध में भेजी और मिस्र की सहायता से इजरायल पर हमला किया। यमन भी युद्ध में शामिल हुआ एक साल तक लड़ाई के चलने के बाद युद्ध विराम की घोषणा हुई। जॉर्डन और इजरायल के बीच सीमा का निर्धारण हुआ। जिसे ग्रीन लाइन नाम दिया गया। इस युद्ध के दौरान तकरीबन 70 हजार फिलिस्तीनी विस्थापित हुए। युद्ध के बाद 11 मई 1949 को इजरायल को संयुक्त राष्ट्र ने मान्यता दे दी।
अरब इजरायल युद्धों की बात करें तो पिछले 100 वर्षों के इतिहास में अनेक छोटे मोटे युद्ध हुए हैं। जिसमें प्रमुख युद्ध निम्न है। प्रथम अरब-इजरायल युद्ध 1956 में तथा दूसरा अरब-इजरायल युद्ध 1973 में हुआ। इजरायल ने तीन अरब देशों-जॉर्डन, सीरिय एवं मिस्र को पराजित किया तथा पश्चिमी किनारे एवं गोलन पहाड़ियों पर कब्जा कर लिया। इस अवधि में हुएं युद्धों को विभिन्न नामों से जाना जाता है। जिसे अलग-अलग करके समझने की कोशिश करते हैं।


छः दिवसीय युद्ध Six-Day War 1967


वर्ष 1967 में प्रसिद्ध छः दिवसीय युद्ध ‘सिक्स डे वॉर’ जिसे दुनिया जानती है। जिसमें इज़राइली सेना ने गोलन हाइट्स, वेस्ट बैंक तथा पूर्वी येरुशलम को भी अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। यह युद्ध 5 जून 1967 से 10 जून 1967 में इजराइल तथा उसके पड़ोसी देशों मिस्र, जॉर्डन तथा सीरिया के बीच लड़ा गया था। इजरायल तथा मिस्र, सीरिया और जॉर्डन के बीच, इजरायल ने सिनाय प्रायद्वीप, गाजापट्टी तथा सीरिया की गोलन चोटियों पर कब्जा कर लिया। यहां इजरायल संयुक्त राष्ट्र द्वारा आवंटित क्षेत्र से अधिक भाग पर कब्जा कर लेता है। तथा धीरे-धीरे इजरायल फिलिस्तीन के भू-भाग को हड़पते हुए मानचित्र पर नक्शे को छोटा कर दिया।


योम किप्पुर युद्ध (1973)


योम किप्पुर युद्ध, रमजान युद्ध या अक्टूबर युद्ध को 1973 के अरब-इजरायल युद्ध के रूप में भी जाना जाता है, 6 से 25 अक्टूबर 1973 तक चले इस युद्ध को मिस्र और सीरिया के नेतृत्व में अरब राज्यों के गठबंधन द्वारा लड़ा गया था। यह युद्ध ज्यादातर सिनाई और गोलान में हुआ था। इस युद्ध में भी इजरायल का पलड़ा भारी रहता है।  


प्रथम लेबनान युद्ध (1982-85)


1982 का लेबनान युद्ध इज़राइल -लेबनान युद्ध या प्रथम लेबनान युद्ध के रूप में जाना जाता था। जुलाई 1981 में घोषित लेबनान में फ़िलिस्तीनी आतंकवादियों के साथ युद्धविराम को तोड़ा गया। आतंकवादियों ने इज़राइल और विदेशों में इज़राइली ठिकानों पर हमले करना जारी रखा और उत्तरी बस्तियों के लिए यह युद्ध असहनीय हो गया। 6 जून 1982 को आईडीएफ ने ऑपरेशन पीस शुरू किया।


द्वितीय लेबनान युद्ध (2006)


इजराइल-लेबनान युद्ध 2006 ; Israel Lebanon War 2006: यह युद्ध इजराइल व लेबनान के मध्य लडा गया था। युद्ध के तुरंत बाद दोनों देशों ने अपने आप को विजय बताया था परंतु बाद में इजराइली पक्ष ने हार स्वीकाकर ली थी। इस युद्ध में इजराइल को हिजबुल्लाह ने अपनी सैन्य क्षमता का बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए इजराइल को पहली बार हार का स्वाद चखाया था। इसके बाद से ही इजराइल हिजबुल्लाह को ईरान के बाद अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगा जबकि हिजबुल्लाह आज मध्य पूर्व की सबसे मजबूत और प्रशिक्षित सेनाओं में से एक है। इस युद्ध के बाद हसन नसरूल्लाह मध्य पूर्व के नेता बन गए।


प्रथम गाजा युद्ध (2008-09)


इस युद्ध में इजरायल की सैन्य जीत हुई थी, आईडीएफ ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की थी तथा 12 घंटे बाद हमास ने एक सप्ताह के युद्धविराम की घोषणा की। घोषणा कर दी।


द्वितीय गाजा वॉर 2012

इस युद्ध में दोनों पक्षों ने जीत का दावा किया लेकिन युद्ध विराम लगाकर इस युद्ध को समाप्त किया गया। इज़राइल के अनुसार ऑपरेशन ने हमास की लॉन्चिंग क्षमताओं को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया।हमास दावा करता है किज्ञउनके रॉकेट हमलों के कारण युद्धविराम समझौता हुआ था।


तृतीय गाजा युद्ध (2014)

8 जुलाई - 26 अगस्त 2014 में हुए इस युद्ध के भी परिणाम स्पष्ट नहीं थे। इजरायल ने दावा किया कि हमने हमास के ठिकानों को नेस्तनाबूद किया है जिससे हमास कमजोर हो गया।




हमास की स्थापना तथा फिलिस्तीन की मांग


फिलिस्तीन की मांग को लेकर जनविद्रोह से हमास नामक संगठन की स्थापना की जाती है। जिसे इजरायल आज आंतकवादी संगठन मानकर उसे खत्म करना चाहता है।
हमास फ़लस्तीनी क्षेत्र का सबसे प्रमुख इस्लामी चरमपंथी संगठन है।जिसका गठन 1987 में हुआ था।यह संगठन फ़लस्तीनी क्षेत्रों से इसराइली सेना को हटाने के लिए संघर्ष कर रहा है। हालांकि इजरायल के पास शक्तिशाली सेना है आधुनिक हथियार है लेकिन फिलिस्तीन के लिए लड़ रहे हमास के पास अधिकारिक सैना नहीं है। यह सहयोगी देशों से मिलने वाले हथियारों से इजरायल को नुक्सान पहुंचाने का काम करता है।हमास इसराइल को मान्यता नहीं देता और यह पूरे फ़लस्तीनी क्षेत्र में इस्लामी राष्ट्र की स्थापना करना चाहता है।



वेस्ट बैंक,गाजा पट्टी , गोलन हाइट्स क्षेत्र क्या है?


वेस्ट बैंक इज़राइल और जॉर्डन के मध्य अवस्थित है। इसका एक सबसे बड़ा शहर ‘रामल्लाह’ (Ramallah) है, जो कि फिलिस्तीन की वास्तविक प्रशासनिक राजधानी है। इज़राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में इस पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।
गाजा पट्टी इज़राइल और मिस्र के मध्य स्थित है। इज़राइल ने वर्ष 1967 में गाजा पट्टी का अधिग्रहण किया था, किंतु गाजा शहर के अधिकांश क्षेत्रों के नियंत्रण तथा इनके प्रतिदिन के प्रशासन पर नियंत्रण का निर्णय ओस्लो समझौते के दौरान किया गया था। वर्ष 2005 में इज़राइल ने इस क्षेत्र से यहूदी बस्तियों को हटा दिया यद्यपि वह अभी भी इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय पहुँच को नियंत्रित करता है।
गोलन हाइट्स एक सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पठार है जिसे इज़राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में सीरिया से छीन लिया था। यद्यपि अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर येरुशलम और गोलान हाइट्स को इज़राइल का एक हिस्सा माना है।
दुनिया का सबसे पवित्र माना जाने वाला स्थान येरुशलम विवादित अतीत पर बसा एक शहर है। जो वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय शहर है। येरुशलम यहूदियों, मुस्लिमों और ईसाइयों की समान आस्था का केंद्र है। यहाँ ईसाईयों के लिये पवित्र सेपुलकर चर्च, मुस्लिमों की पवित्र 'डोम ऑफ रॉक' यानी कुव्वतुल सखरह और अल-अक्सा मस्जिद मस्जिद और यहूदियों की पवित्र दीवार 'होली ऑफ होलीज़ स्थित है।



आयरन डोम सिस्टम क्या है?


आयरन डोम एक रक्षा प्रणाली का नाम है जो रडार आधारित आधुनिक तकनीक है। जो हर मौसम में काम कर सकती है। यह रेंज और निशाने पर लिए गए क्षेत्र की दिशा की जांच करता है और वॉर्निंग सायरन बजाता है। सायरन बजने के बाद स्थानीय लोगों के पास सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए 30 से 90 सेकंड का समय होता है। इसके बाद आयरन डोम अपने रेडॉर की मदद से हमले का अंदाजा लगाते हुए 'आयरन डोम' ऑपरेटर्स काउंटर मिसाइल लॉन्च करता है और रॉकेट को हवा में नष्ट कर देता है। आयरन डोम के प्रत्‍येक लॉन्‍चर में 20 इंटरसेप्‍टर मिसाइलें होती हैं। इन मिसाइलों में रॉकेट और मिसाइलें को पहचानने की बेजोड़ क्षमता होती है। यह 70 किमी की ऊंचाई तक रॉकेट हमले को बर्बाद कर देता है। जो सामने से आने वाली मिसाइल को हवा में ही ध्वस्त कर देता है। लेकिन हमास इस तकनीक का तोड निकालकर एक साथ बड़ी संख्या में मिशाल दाग कर आयरन डोम को भी भ्रमित कर देता है। हालां‍कि इजरायल को इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। उसे प्रत्‍येक इंटरसेप्‍टर मिसाइल पर 50 हजार डॉलर खर्च करना पड़ता है। इजरायल ने हमले के खतरे को देखते हुए पूरे देश में अज्ञात जगहों पर आयरन डोम सिस्‍टम तैनात कर रखा है।


वर्तमान में संघर्ष के हालात एवं विश्व के देशों का रवैया


फिलिस्तीन व इजरायल का संघर्ष आज भी उसी तरह जारी है। हालांकि आज वैश्विक स्तर के संगठनों और मानवाधिकार जैसे मसलों ने इस संघर्ष को थोड़ा बहुत प्रभावित किया संघर्ष वर्तमान में भी जारी है हाल ही में युद्ध की आशंका के बीच एक बार फिर इजरायल की तरफ से एयरस्ट्राइक किया गया है, कई रॉकेट दागे गए हैं। बदहालातों में फिलिस्तीन में अब परिवारों का पलायन शुरू हो गया है। इजराइल की एयरफोर्स की तरफ से गाजा पट्टी के खान यूनिस, पूर्वी इलाके और रफाह शहर में लगातार रॉकेट से हमले किए गए। इन हमलों में भारतीय मूल की एक महिला मारी गई।


इजरायल-फिलीस्तीन विवाद के प्रति भारत की नीति 


इजरायल-फिलीस्तीन विवाद में भारत के रवैए की बात करें तो भारत हमेशा शान्ति का समर्थन करता रहा है। लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भारत ने फिलीस्तीन के प्रति सहानुभूति जरूर रखी है। नेहरूयुगीन विदेश नीति जिसमें तीसरी दुनिया की एकता और अहिंसा की बात होती है उसके आधार पर भारत फलस्तीनियों का खुलकर समर्थन करता रहा है बावजूद इसके भारत ने 1950 में इजराइल को एक स्टेट के रूप में मान्यता दी थी।  इन्दिरा गांधी और यासीर अराफात से संबंध अच्छे थे। दुसरी और गुटनिरपेक्ष स्थापना में नेहरू और नासीर के विचार मिल रहे थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत शान्ति और गुटनिरपेक्ष का समर्थन रहकर फिलीस्तीन के खिलाफ हुआ है लेकिन वर्तमान में राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए इजरायल से व्यापारिक  हितों को पालना शुरू किया है।
लेकिन भारत खुल कर किसी पक्ष के साथ खड़ा नहीं हुआ है। लेकिन 90 के दशक के बाद औद्योगिक विकास तथा तकनीकी सहयोग के लिए भारत ने इजरायल के साथ अच्छे संबंधों की शुरुआत की। जिससे  भारत ने राष्ट्र हित के लिए व्यापारिक समझौते तथा हथियार खरीदने के लिए इजरायल से अच्छे संबंध स्थापित किए। जब इजरायल 1948 में स्वतंत्र हुआ था तब हालांकि शुरुआती दौर में भारत के साथ अच्छे संबंध नहीं रहे शुरुआती अविश्वास के बाद चीन युद्ध के वक्त इजरायल ने भारत की हथियारों से मदद की थी इजरायल और भारत के बीच 90 के दशक में द्विपक्षीय संबंध विकसित होने शुरू हुए 2015 के बाद से भारत और इजरायल खुले तौर पर एक-दूसरे को सहयोगी राष्ट्र कहने लगे। लेकिन भारत आज भी मिलें जुले संबंध दोनों पक्षों से रखता है। भारत के राष्ट्रीय हितो की बात की जाए तो इजरायल इनकी पुर्ति करता है। दूसरी तरफ लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हुए फिलिस्तीन पर इजराइली हमलों का समर्थन भी नहीं करता। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने 2018  में फिलिस्तीन की यात्रा भी की थी। तथा इजरायल की यात्रा की दूसरी तरफ इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू 6 दिन की यात्रा पर भारत  रहे थे। इस प्रकार निष्कर्ष के तौर पर कह सकते हैं कि भारत शान्ति का समर्थन करके किसी एक पक्ष में पूर्ण नहीं मिलना चाहता लेकिन तेजी से विकास करते हुए  इज़रायल से भारत को विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकताएं पूरी होती है। तथा इजरायल से सहयोग भी मिलता है जिसमें भारत चीन तथा भारत पाकिस्तान युद्ध में इजराइल से भारत क़ो आधुनिक हथियारो की मदद मिली थी।




अमेरिका-ब्रिटेन तथा इजरायल-फिलीस्तीन संबंध


यह दुनिया जानती है कि अमेरिका और ब्रिटेन हमेशा इजरायल के पक्ष में रहें हैं। ब्रिटेन और अमेरिका व्यापार हितों एवं हथियारों के व्यापार के लिए इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं। अमेरिका के इजरायल से की क्षेत्रों से हित जुड़े हुए हैं। इसमें सबसे पहला अमेरिका चाहता अपने हथियारों का व्यापार। दूसरी ओर अमेरिका में आर्थिक एवं तकनीकी क्षेत्रों में यहुदियों का बड़ा हिस्सा है और योगदान है। इसलिए अमेरिका के हर राष्ट्रपति ने इजरायल का पक्ष लिया है। सबसे बड़ा फायदा अमेरिका को मुस्लिम देशों में अशांति से मिलता है। इजरायल फिलिस्तीन विवाद अरब देशों में अशान्ति का मुख्य कारण है। जिसमें वैश्विक स्तर पर अमेरिका को परोक्ष अपरोक्ष फायदा मिलता है ‌।



अरब देश एवं एवं फिलिस्तीन इजरायल मसला


हम जानते हैं कि इजरायल फिलीस्तीन मुद्दा सीधे तौर पर अरब देशों से जुड़ा हुआ था । अरब देशों में यूएई सबसे महत्वपूर्ण देश है जो सभी अरब देशों की अगुवाई करता आया है।  लेकिन धीरे-धीरे लम्बे युद्धों के बाद फिलिस्तीन की मांग को लेकर संघर्ष में बिखराव देखा गया है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तन हो रहे माहौल तथा अपने अपने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए सभी देश प्रत्यक्ष युद्ध से उदासीन होने लग गये। अरब अमीरात जैसे देशों का संबंध अमेरिका से नजदीकियों में आने लगा। तथा इजरायल से भी पूराने विवाद का समाधान चाहकर कुटनीति आधारित नीति अपनाने लगे। संयुक्त अरब अमीरात ही नहीं है, जो इज़राइल के साथ सामान्य कूटनीतिक संबंध स्थापित किए बल्कि उससे पहले मिस्र और जॉर्डन ये क़दम उठा चुके हैं। 1979 में इजिप्ट ने इज़राइल के साथ औपचारिक संबंधों की शुरुआत की थी। तो जॉर्डन ने 1994 में इस दिशा में क़दम बढ़ाया था। इसके साथ-साथ तुर्की,इरान,ईराक, मोरक्को  ट्यूनीशिया, बहरीन  आसपास के आदि देशों और इजरायल के साथ संबंध स्थिरता ले रहे हैं। पहले की तरहां अब युद्धो का दौर कम ही पसंद कर रहे हैं। लेकिन इन क्षेत्रों की शान्ति और भविष्य के बारे स्पष्ट नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि अरब देशों के ज़हन में फिलीस्तीन की मांग करने वाले संगठनों के प्रति तटस्थ तो नहीं है। इसलिए वर्तमान इजरायल के द्वारा गाजा पट्टी पर हमलों तथा हमास के बीच टकराव की स्थिति को देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में यह स्थिति कहा और किस मोड़ में होगी। क्या अंतरराष्ट्रीय दबाव और शान्ति संस्थाओं के माध्यम से फिलिस्तीन और इजरायल का मसला शांत हो जाएगा? क्या इजरायल और फिलिस्तीन स्वयं विवादित भूमि पर समाधान का रास्ता निकालने में सफल हो जाएंगे? क्या पाकिस्तान और बचे खुचे अरब देश इजरायल को मान्यता दे देंगे? यह सब भविष्य के गर्भ में हैं? इसके साथ-साथ यह भी बड़ा सवाल है कि आने वाले समय में फिलिस्तीन और इजरायल मुद्दे पर दुनिया के विकसित और विकासशील देशों के वैचारिक गुट कैसे बनते हैं?मई 2021 में फिलिस्तीन तथा इजरायल में एकबार फिर तनाव और हिंसक स्थित बनी हुई है। ऐसे में इसकी भनक संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुचती है तो जानना दिलचस्प होगा कि क्या एक बार फिर कोइ समाधान मिलेगा। कुछ अरब देशों में भले ही वैचारिक बिखराव है। लेकिन अरब सहित काफी मुस्लिम देशों के गुट फिलिस्तीन के पक्ष में खड़े हो गए हैं। इस स्थिति में भारत के दूतावास से भी शांति की अपील की जा रही है। तो अमेरिका अब भी इजरायल को अपनी सुरक्षा का हवाला देकर पक्ष करते हुए देखा जा रहा है।



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