Farmers Protest: आखिर सरकार को क्यों झुकना पड़ा? ऐतिहासिक किसान आंदोलन: रूपरेखा,कारण एवं परिणाम तथा राजनैतिक पहलुJagriti PathJagriti Path

JUST NOW

Jagritipath जागृतिपथ News,Education,Business,Cricket,Politics,Health,Sports,Science,Tech,WildLife,Art,living,India,World,NewsAnalysis

Saturday, December 18, 2021

Farmers Protest: आखिर सरकार को क्यों झुकना पड़ा? ऐतिहासिक किसान आंदोलन: रूपरेखा,कारण एवं परिणाम तथा राजनैतिक पहलु


Farmers protest in india
Farmers protest in india kisan aandolan




#FarmersProtests

किसान आंदोलन FarmersProtests 2020-21


1 साल 13 दिन चला किसानों का आंदोलन समस्याओं के समाधान की परिणति को प्राप्त हुआ। किसान आंदोलन के प्रतिभागियों तथा किसान एकता को मिली यह कामयाबी कोई आसान उपलब्धि नहीं है यह ऐतिहासिक आंदोलन 709 शहीदों के बलिदान तथा सर्दी गर्मी तुफान और बरसात जैसे प्राकृतिक तथा मानवीय अवरोधों के बाद भी किसानों की अनवरत अडिगता से डटे रहने की जिद्द हिम्मत और साहस की लम्बी लड़ाई के फलस्वरूप ही अपने लक्ष्यों के उन्मुक्त शिखर तक मुकम्मल हुआ। हालांकि किसान नेता राकेश टिकैत ने इस आंदोलन की वर्तमान सफलता को 709 शहिदों को समर्पित करते हुए कहा कि अब भी यह लड़ाई समाप्त नहीं हुई है जरुरत पड़ने पर किसानों के हकों की लड़ाई जारी रहेगी । आइए किसान आंदोलन के लम्बे सफ़र की ऐतिहासिक कहानी का रिव्यू करते हैं तथा जानते हैं कि किसानों की इस लड़ाई में क्या क्या उतार चढ़ाव आए , इस आंदोलन में किसानों को कितना संघर्ष करना पड़ा ? आंदोलन को जनता ने किस नजरिए से देखा तथा अपनी ओपनियन दी ? भविष्य में इस आंदोलन का क्या प्रभाव , परिणाम और योजना होगी? भारत जैसे शांत लोकतांत्रिक राष्ट्र में एसा आंदोलन क्यों हुआ? किसानों की क्या क्या मांगें मानी गई? ऐसे कौन कौन प्रभावशाली नेता और आंदोलन के नेतृत्वकर्ता थे जिनकी सूझ बूझ से इस आंदोलन को सफलता मिली?

किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि रूपरेखा व दमन तथा जनमानस की प्रतिक्रिया


किसान आंदोलन की शुरुआत और मांगें तथा सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों को कौन नहीं जानता देश के कोने-कोने में इस आंदोलन की चिंगारी पहूंच गई थी। इस आंदोलन को लेकर देश दो वैचारिक धड़ों में बंट गया था किसानों को खालिस्तानी उग्रवादी ना जाने क्या क्या संज्ञाएं दी गई । आईटी सैल दिन रात किसानों आंदोलन को कमजोर करने और नीचा दिखाने में लगा था देश की नामी गिरामी हस्तियां किसानों के विपरित ट्वीट अभियान चला रही थी। पुलिस की लाठियां चलीं , सड़कों पर कीलें गाड़ी गई सरकार तथा सरकार के समर्थकों ने वो सब कुछ किया जो आंदोलन को गलत साबित करने में पर्याप्त हो सके। मुख्य धारा की मीडिया के कुछ चैनल किसानों के विपरित थे । तो दूसरी तरफ किसानों के इस महाआंदोलन को सरकार के एजेंडे की बेइज्जती और परेशानी समझकर सियासत के लिए बनें धार्मिक तथा राष्ट्रवादी पलड़ों में रख कर उसी नजरों से देखा गया जिस तरहां भाजपा और गैर-भाजपा दलों के बीच चुनावी माहौल को देखा जाता है। गौर करने वाली बात यह थी कि अधिकांश लोग उसी रूप में समर्थित और विपरीत थे जिस तरह जो लोग अक्सर हिंदू राष्ट्र बनाम सेक्युलर , कांग्रेस मुक्त भारत बनाम भगवा राज , पाकिस्तान की बर्बादी का राग बनाम मंहगाई- रोजगार तथा गांधी बनाम गोडसे के समर्थन में लड़ते रहते हैं। लेकिन ताजुब की बात है कि इतने बड़े आंदोलन को आखिर सफल कैसे बनाया गया? किसान आंदोलन के नेतृत्वकर्ता और आंदोलनकारी जिस अहिंसा की कठिन और संयम की डगर पर चलें तथा किसी जन मानस की ओपनियन तथा आलोचनाओं की बौछारों से विचलित नहीं हुए। लेकिन बड़ी बात है कि लोकतांत्रिक भारत की एक खुबसूरत विशेषता है कि यहां विवेकशील बुद्धिजीवी और अच्छे लोगों की कमी नहीं है बहुत से लोग किसानों के साथ खड़े थे तो कुछ बुद्धिजीवी लोगों की अहिंसक और सत्याग्रह की प्रवृत्ति , तर्क वितर्क की क्षमता , हित और अहित की समझ आदि ने मिलकर इस सफल आंदोलन की पृष्ठभूमि और परिपाटी तैयार की थी। 
Kisan aandolan delhi punjab hariyana
Kisan aandolan kisan neta rakesh tikait



किसान आंदोलन भले ही उन क़ृषि कानुनों की वापसी के लिए सुलगा हो लेकिन असल में इस आंदोलन की इबादत तभी से शुरू हो चुकी थी जब से किसानों को विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था और दूसरी तरफ सरकार पूंजीवाद की तर्ज पर क़ृषि क्षेत्र को निजी क्षेत्र के नामी-गिरामी कंपनियों के चिंकजे में देना चाहती थी। किसानों की वर्तमान और भविष्य से जुड़ी ऐसी कई असंतोषजनक बातें थीं जिसकी वजह से एक ऐतिहासिक और विशाल आंदोलन का निर्माण हुआ।

हालांकि यह देश का पहला किसान आंदोलन नहीं है और न ही अंतिम है। देश के इतिहास में किसान आंदोलनों का एक लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है। लेकिन दुर्भाग्यवश कृषि प्रधान देश भारत में किसानों के मुद्दे गौण ही रहे हैं किसानों की समस्यायों पर हमेशा कूट राजनीति तथा सियासत की बिछात हावी रही है। किसानों की दयनीय दशा पर ध्यान कम दिया गया तथा पूंजीवाद की तर्ज पर किसानों को लम्बे समय तक नजरअंदाज किया गया जो सिलसिला आज भी जारी है।

किसानों के आंदोलन की सफलता के कारण


हाल ही के लोकतांत्रिक स्वरूप जहां पूंजीवाद का समागम हो रहा है वहां आंदोलनों का होना एक बड़ी बात है वहीं इनका सफल होना इससे बड़ी बात है। क्योंकि बहुत कम ही आंदोलन होते हैं जो देशव्यापी बनकर सफलता की और उन्मुख होते हैं। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद एक बड़े आंदोलन की बात करें तो यह किसान आंदोलन है जिसकी सफलता के निम्न कारण हो सकते हैं।

बुद्धिजीवियों का नेतृत्व


किसान आंदोलन में योगेन्द्र यादव जैसे बुद्धिजीवी लोग क्रियान्वयन कर रहे थे। माना जाता है कि इतिहास में वे आंदोलन अधिक सफल हुए हैं जिनमें बुद्धिजीवी ,और शिक्षित वर्ग के लोग शामिल होते हैं।

आंदोलन की गुंज ग्रामीण जनमानस तक


किसान आंदोलन की सफलता का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा कि इस आंदोलन की गुंज ग्रामीण क्षेत्रों में पहुची जिन आंदोलनों में गांवो के लोग हिस्सा लेकर सहयोग करते हैं तो सफलता की संभावना अधिक रहती है। कृषि कानुनों के विरोध में बहुत से किसान दूरदराज ग्रामीण इलाकों से जुड़े यह एक आंदोलन की सफलता का कारण साबित हुआ।

राजनैतिक दलों से तटस्थ

किसान आंदोलन की सफलता के पीछे यह भी माना जाता है कि यह आंदोलन प्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक दलों से तटस्थ रहा जिससे किसानों के संघर्ष का सियासी इस्तेमाल नहीं हो सका। अगर यह किसी बड़े राजनैतिक दल की छत्रछाया में होता तो कभी का दमित कर लिया जाता।

अहिंसक और तर्कसंगत


किसान आंदोलन शुरूआत से लेकर अंत तक अहिंसक रहा हालांकि कुछ घटनाएं जरूर हुई लेकिन यह घटनाएं उन किसान संगठनों तथा मुख्य नेतृत्वकर्ताओं के इशारे पर नहीं हुए । हालांकि बड़े जमघट में अनुशासन और शांति बहुत मुश्किल कार्य होता है। इसलिए कुछ हिंसाए जरूर हुई तो कुछ हिंसाए किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए भी हुई।

राकेश टिकैत के आंसू


इस पूरे आंदोलन को राजनैतिक रूप से एकीकृत करने वाले मुख्य किसान नेता राकेश टिकैत ने बहुत खास भूमिका निभाई। राकेश टिकैत के आंसूओं ने किसान आंदोलन को देख रही जनता को भावात्मक रुप से जोड़ दिया जिससे लाखों किसान आंदोलन में शामिल हो गये।

कभी भी दुबारा शुरू हो सकता है आंदोलन 


सरकार के झुकने के बाद नरम पड़े किसान
एसकेएम ने कहा, आंदोलन खत्म नहीं, स्थगित
15 जनवरी को फिर से बैठक करेगा SKM
Farmers Protest: तीनों कृषि कानूनों की वापसी और लंबित मांगों पर सरकार के प्रस्ताव के बाद अब संयुक्त किसान मोर्चा ने किसान आंदोलन को स्थगित करने का ऐलान किया है। किसान मोर्चा ने साफ किया कि आंदोलन को खत्म नहीं किया जा रहा है, इसे अभी स्थगित किया गया है। किसान नेता बलवीर राजेवाल ने कहा कि हम एक बड़ी जीत लेकर जा रहे हैं, एक अहंकारी सरकार को झुकाकर जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि ये आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है, इसे अभी स्थगित किया गया है। 15 जनवरी को संयुक्त किसान मोर्चा की फिर बैठक होगी, जिसमें समीक्षा होगी. अगर सरकार दाएं-बाएं होती है तो आंदोलन फिर शुरू करने का फैसला लिया जा सकता है।

इन घटनाओं से आंदोलन हुआ प्रभावित


किसान आंदोलन की सफलता तथा सरकार की लम्बी हठधर्मिता के बीच ऐसी कई घटनाएं हुई जिसके कारण आंदोलन की राह में महत्वपूर्ण मोड़ आए लोगों का नजरिया बदला। कहीं समर्थन मिला तो कभी समर्थन टूटा। लेकिन जिस तरह किसानों ने आंदोलन स्थानों को धीरे धीरे खाली कर दिया तथा यातायात व्यवस्था फिर से सुचारू रूप से शुरू हुई तथा सबकुछ सामान्य होने लगा तो यह बहुत खास क्षण है भले ही अन्य कारणों से यह समझौता हुआ हो लेकिन यह कृषि प्रधान देश भारत के लिए सुखद खबर है।
सरकारी पक्ष की मानें तो 26 जनवरी को लाल किला और दिल्ली में हिंसा की स्थिति पैदा होने के बाद किसान संगठन आंदोलन को लेकर कुछ दबाव में आने लगे थे। लेकिन आंदोलन को उत्तर प्रदेश के एक नेता का संरक्षण मिलने के बाद इसका स्वरुप बदल गया। सरकार भी बैकफुट पर आ गई। दूसरा बड़ा झटका सरकार को लखीमपुर खीरी की घटना और उपचुनावों के नतीजों ने दिया। सूत्र का कहना है कि प्रधानमंत्री ने उच्चस्तर पर मंत्रणा के बाद किसान आंदोलन को लेकर रणनीति बनाई थी। इसमें केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की काफी अहम भूमिका रही। किसानों को मनाने के लिए हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के किसानों में गहरी पैठ रखने वाले रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी भूमिका निभाई। राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं में नरेश टिकैत, राकेश टिकैत, युद्धवीर सिंह, सरदार वीएम सिंह, भानु गुट आदि में भी गहरी पैठ रखते हैं। भाकियू के युद्धवीर सिंह नरेश और राकेश के बीच में कड़ी का काम करते हैं और बातचीत में संवेदनशील रहते हैं। इसलिए युद्धवीर सिंह को इसके लिए चुना गया।

कृषि कानूनों से फायदा व नुकसान तथा मोदी सरकार की छवि


कृषि कानूनों को जब संसद से पास किया गया तब से ही किसानों में रोष तथा असंतोष था कृषि कानून किसानों के हित में थे या सरकार के हित में थे इस सवाल का जवाब हम यहां नहीं दे सकते क्योंकि यह परिणाम भविष्य के गर्भ में है तो दूसरी तरफ इन कानूनों की क्रियान्वयन पर भी निर्भर करता है। लेकिन हम यहां जो घटित हुआ है उसके विश्लेषण से जानने की कोशिश करते हैं कि कृषि कानुनों की प्रकृति कैसी थी? जिसके भविष्य में क्या परिणाम और प्रभाव होते। दूसरी तरफ एक न्यूज चैनल की रिपोर्ट के अनुसार विवादित कृषि क़ानून कितने अच्छे हैं जनता के बीच इसके प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार ने 7 करोड़ 25 लाख रुपए इस साल 2021 के फ़रवरी तक ख़र्च किए थे। इसके अलावा कृषि मंत्रालय के किसान वेलफ़ेयर विभाग ने भी 67 लाख रुपए तीन प्रमोशनल वीडियो और दो एडुकेशनल वीडियो बनाने में ख़र्च किए हैं। यानी लगभग 8 करोड़ रुपए नए कृषि क़ानून के प्रचार प्रसार में केंद्र सरकार ख़र्च कर चुकी है।
दूसरी तरफ कृषि कानुनों के विरोध में योगेन्द्र यादव जैसे बुद्धिजीवी व्यक्ति मैदान में उतरे, अगर उनके बयानों की बात करें तो वो क़ृषि कानुनों को किस तरह अहितकारी बताते हैं यह भी सोचना ज़रूरी है। क़ृषि कानुनों के विरोध में योगेन्द्र ने कहा था कि यह कानून हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए दरवाजे बंद कर रहे हैं। मंडी अगर बंद होती है तो किसानों के उत्पाद की सरकारी खरीद भी बंद होगी और अगर यह बंद होगी तो जल्दी ही राशन की दुकान भी बंद होगी, क्योंकि सरकार मंडी में जो खरीद करती है वही गेहूं और चावल हमें राशन की दुकान पर मिलता है। सीधे अर्थ में समझें तो कृषि कानूनों से किसानों को भय था कि मंडी सिस्टम खत्म हो जाएगा तथा उनकी फसल विक्रय की पद्धति में निजी क्षेत्र हावी जो जाएगा जिससे उनकी फसलों और उत्पादों का न्यूनतम हित मूल्य कौन देगा तथा किसानों को कौनसी फ़सल कब और कितनी उत्पादन करनी है यह सब निजी क्षेत्र के दबाव में आ जाएगा। इस तरह विभिन्न भविष्य की संभावनाओं और आशंकाओं को लेकर किसानों में असंतोष था जिसमें केवल कृषि कानून ही नहीं बल्कि विभिन्न मुद्दे शामिल थे जिसमें पराली,एम एस पी , किसानों का कर्ज आदि तत्वों ने आंदोलन को मजबूत बनाएं रखा। किसान आंदोलन से जितने किसान परेशान हुए तो कुछ परेशानियों सरकार के लिए खड़ी हो गई जिससे लम्बे समय तक झेलना सरकार के लिए नुकसानदायक साबित हो रहा था। इस आंदोलन से सरकार को हर तरफ से मुसीबतें झेलनी पड़ी है। तो दुसरी तरफ आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। कई जगहों पर किसान टोल प्लाज़ा पर धरने पर महीनों बैठे रहे, आंदोलन की वजह से कई टोल नाकों पर शुल्क जमा नही हुई इससे रोज़ाना 1.8 करोड़ रुपए का नुक़सान हुआ। 11 फ़रवरी 2821 तक तक़रीबन 150 करोड़ का नुक़सान सिर्फ़ टोल प्लाज़ा से हुआ । इसके साथ साथ किसानों के विरोध से राजनैतिक माहौल भी बदलने लगा। सरकार को वोट बैंक तथा भविष्य में चुनावी मुद्दों की भी चिंता अखरने लगी क्योंकि किसानों के लगातार संघर्ष ने कुछ समीकरण बदलने लगे थे। इसी तरह से कई इलाक़ों में किसानों ने अलग-अलग समय पर रेल यातायात को भी बाधित किया है पिछले साल के अंत तक किसानों आंदोलन की वजह से रेल मंत्रालय को 2400 करोड़ का नुक़सान हो चुका था। इस प्रकार से किसान आंदोलन में जहां किसानों को जान माल का खामियाजा भुगतना पड़ा तो दुसरी तरफ सरकार और उसके महत्वपूर्ण विभागों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। दूसरी तरफ भारत जैसे शांतिप्रिय लोकतांत्रिक देश में ऐसे आंदोलन तथा लम्बे समय तक चलने वाले विरोध अक्सर सरकार की लोकप्रियता और आगामी चुनावी माहौल के लिए लोगों का नजरिया बदलते हैं। इसलिए वर्तमान सरकार नहीं चाहती कि किसानों के इस विरोध का खामियाजा उसको अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर भुगतना पड़े। इसलिए हम कह सकते हैं कि वर्तमान सरकार के उन वादों और घोषणाओं के बाद किरकिरी हुई है जिसमें वह किसानों के हित की बात करती है। वहीं दूसरी तरफ सरकार और मीडिया जहां इन कानूनों को किसानों के लिए बेहद फायदेमंद बताती थी अब वह इसे वापिस लेती है तब यह स्पष्ट हो जाता है कि यह किसानों के लिए ठीक नहीं हैं । अगर ऐसा है तो एक बड़ा प्रश्न उठता है कि आखिर यह कानून किसानों के हित में नहीं थे तो सरकार क्यों और किसके लिए लाई थी?

आखिर लम्बे समय बाद सरकार ने कैसे मनाया किसानों को?


किसानों के लम्बे संघर्ष में पहले सरकार का सख्त रवैया ही रहा था जिसमें सरकार ने किसानों पर खुब बल प्रयोग किए लेकिन किसान आंदोलन के मुख्य संगठनों और उनके नेताओं की अहिंसात्मक नीतियों और तर्कसंगत मांगों के आगे सरकार को झुकना पड़ा। किसान आंदोलन के सफल रहने का सबसे बड़ा कारण उनकी अहिंसक प्रवृत्ति रही है।
योगेंद्र यादव ने कई बार बताया था कि हमें हिंसा से दूर रहना है अगर हिंसा हुई तो सरकार हमें कुचल देगी।
योगेन्द्र यादव के अनुसार किसानों ने अपना आंदोलन स्थगित निम्न शर्तों पर किया है।

1. एम एस पी 


MSP की गारंटी परः एमसएसपी को लेकर सरकार ने कमेटी बनाने का प्रस्ताव दिया है। इस कमेटी में संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्यों को भी शामिल किया जाएगा। इसके साथ ही MSP पर खरीद जारी रहेगी, ऐसा भी सरकार ने लिखकर दिया है।

4. किसानों पर दर्ज केस व बहाली


 यूपी, उत्तराखंड, हिमाचल, मध्य प्रदेश और हरियाणा सरकार ने इसके लिए पूर्णतः सहमति दी है कि तत्काल प्रभाव से आंदोलन संबंधित मामलों को वापस लिया जाएगा। दिल्ली समेत सभी यूटी में दर्ज मामलों को भी वापस लिया जाएगा

3. मुआवजा


योगेंद्र यादव ने बताया कि मुआवजे के सवाल पर यूपी और हरियाणा सरकार ने सहमति दे दी है। उन्होंने बताया कि किसानों को जल्द मुआवजा मिलना शुरू हो जाएगा।

4. बिजली बिल 


सरकार ने लिखित में दिया है कि बिजली बिल को बिना किसानों से चर्चा के संसद में पेश नहीं किया जाएगा।
Kisanon ki samasya
भारतीय किसान


5. पराली जलाने का मुद्दा


 पराली जलाने पर पहले 5 साल की सजा और 1 करोड़ रुपये के जुर्माने का प्रावधान था, जिसे सरकार पहले ही खत्म कर चुकी है। उन्होंने बताया कि सरकार ने बताया है कि पराली जलाने पर किसानों पर आपराधिक मुकदमे नहीं चलेंगे।

6. लखीमपुर हिंसा की जांच


यूपी के लखीमपुर में हुई हिंसा के मामले में किसानों की मांग थी कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी को बर्खास्त किया जाए, क्योंकि उनके बेटे आशीष मिश्रा मामले में मुख्य आरोपी है। इस मांग पर कुछ नहीं हुआ है। किसान नेता शिव प्रसाद कक्का ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की कमेटी बनी है और उसकी रिपोर्ट आने के बाद कुछ होगा।

किसान आंदोलन खत्म नहीं स्थगित : चढ़ूनी


किसान आंदोलन स्थगित करने की बात किसान नेताओं ने कही है। स्थगित हुआ है या समाप्त? यह एक अहम सवाल है। इसे समझने के लिए किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने जवाब देकर बताया है। इस सवाल पर किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने बताया कि इसका मतलब है कि आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है. उन्होंने कहा कि सरकार ने कई वादे किए हैं. केस वापसी की बात कही है, मुआवजा देने की बात कही है, लेकिन अभी केस वापस तो नहीं हो गए, मुआवजा तो नहीं मिल गया. चढ़ूनी ने कहा कि सरकार अपने वादे पूरे कर दे, हम अपने वादे पूरे कर देंगे


रणनिती में सफल हुई सरकार 


जैसे किसान आंदोलन समाप्त हुआ है तो जितना किसान खुशी मना रहे हैं और सरकार को झुकना बता रहे हैं हालांकि कुछ मामलों में केंद्र की मोदी सरकार और राज्य सरकारों ने किसानों के सामने रणनीतिक तौर पर समर्पण किया है जिससे कई कारण और परिस्थितियां हो सकती है, लेकिन भविष्य में पता चलेगा कि सरकार ने कोई दांव खेला है? या असल में किसानों की मांगों को स्वीकार किया है?
 इस प्रकार किसानों को मनाने का सिलसिला शुरू हुआ तो सबसे पहले किसानों को मनाने के लिए केंद्र सरकार के रणनीतिकारों ने पहले पंजाब से ही समस्या के समाधान के रास्ते को चुना। बताया जाता हैं कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने और उनकी अमित शाह से मुलाकात के बाद यह रास्ता आसान बनाने की कवायद शुरू हो गई। इसमें अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने भी अहम भूमिका निभाई। 


No comments:

Post a Comment


Post Top Ad