अफगान समस्या: रूस-अमेरीका का हस्तक्षेप,तालिबान का उदय, पृष्ठभूमि अशांति तथा अफगानिस्तान का अतीत और भविष्यJagriti PathJagriti Path

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Friday, October 22, 2021

अफगान समस्या: रूस-अमेरीका का हस्तक्षेप,तालिबान का उदय, पृष्ठभूमि अशांति तथा अफगानिस्तान का अतीत और भविष्य

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अफगानिस्तान समस्या: इतिहास के पन्नों का एक चर्चित अध्याय

Afghan Crisis: Russia-US Intervention, Rise of Taliban, Background Unrest and Afghanistan's Past and Future.
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अफगानिस्तान का परिचय भौगोलिक स्थिति एवं इतिहास


अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति की बात करें यहां का अधिकतर क्षेत्र दुर्गम पहाड़ियों और घाटियों से घिरा हुआ है। 6,45,807 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाला यह देश विश्व पटल पर सदियों से चर्चित और सुर्खियों में रहा है। यहां की प्रमुख भाषाएं पास्तो एवं दारी तथा प्रमुख धर्म इस्लाम है। अफगानिस्तान की उत्पत्ति और अतीत की बात करें तो 
7वीं सदी तक अखंड भारत का एक हिस्सा था। बताया जाता है कि अफगानिस्तान पहले एक हिन्दू राष्ट्र था। बाद में यह बौद्ध राष्ट्र बना और अब वह एक इस्लामिक राष्ट्र है।
एक राज्य के रूप में अस्तित्व की बात करें तो अफगानिस्तान 1880 ईस्वी में द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध की समाप्ति के बाद सामने आया। इसका इतिहास इसके क्षेत्र के अन्य देशों से जुड़ा हुआ है, जिसमें पाकिस्तान, भारत, ईरान, ताजिकिस्तान और उजबेकिस्तान शामिल हैं।
 26 मई 1739 को दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह अकबर ने ईरान के नादिर शाह से संधि कर उपगण स्थान अफगानिस्तान उसे सौंप दिया था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान की वैश्विक गतिविधियां सामान्य ही थी। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान की भूमि पर एक नया अध्याय शुरू होने लगता है जो शनै शनै विकराल रूप धारण करता है वर्ष 1953 में शाह महमूद खान के पद छोड़ने के बाद सरदार दाऊद के प्रधानमंत्री बनने बाद ही लगभग अफगानिस्तान में कुछ दुखदाई बदलाव होने लगे जिसमें रूस और अमेरिका के हस्तक्षेप तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शीत युद्ध का बहुत बड़ा प्रभाव यहां देखा गया। हम जानते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो महाशक्तियों में बंट गया था जिसमें सोवियत रूस और अमेरिका दोनों की नजरें इस मुल्क में गढ़ गई । जिसके परिणाम और प्रभाव बहुत ही लम्बे और वर्तमान विवाद से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। हालांकि बीसवीं सदी के आरंभ में ब्रिटेन यहां प्रभुत्व बनाएं हुए था जिसमें कई बार कबायलियों से संघर्ष भी हुआ था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश प्रभुत्व पूरे विश्व के साथ साथ अफगानिस्तान में भी समाप्त हो चुका था इसी समय यहां रूस और अमेरिका अपनी वैश्विक नीति के अनुरूप एक खुले अखाड़े का निर्माण करते हैं और दुनिया देखती रहती है , यहां बहुत कुछ बदलने लगता है तथा एक ऐसा अध्याय शुरू होता है जो इतिहास और विश्व राजनीति का एक ऐसा भंवर बनता है जिसका विकराल रूप लम्बे समय तक रहता है जिसमें दो दो महाशक्तियां अपना सबकुछ दांव पर लगाने पर उतारू हो जाते हैं। इसलिए अफगानिस्तान के आधुनिक हालतों पर नज़र डालें तो यह वर्तमान में जलने के बाद सुलगते हुए अंगारे की तरहां है जहां अभी भी आग और धुआं बना हुआ है जिसमें रह रह कर लपटें भी निकलती है। इसलिए यहां का आधुनिक इतिहास कबायलियों के संघर्ष, सोवियत रूस के आक्रमण, लम्बे गृहयुद्ध और अमेरिका के नेतृत्व में हुए हमले से अटा पड़ा है। इसके चलते इसकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई और लोग बदहाली में जीवन जीने को मजबूर हैं। 
जिसे तालिबान या तालेबान के नाम से भी जाना जाता है, एक सुन्नी इस्लामिक आधारवादी आन्दोलन है जिसकी शुरूआत 1994 में दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में हुई थी। तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ज्ञानार्थी (छात्र)। ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करते हैं। तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं। इसकी सदस्यता पाकिस्तान तथा अफ़ग़ानिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को मिलती है। 1996 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान मुल्ला उमर देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था। 
तालिबान के सत्ता से हटने के बाद हामिद करजई के नेतृत्व वाली सरकार, अफगानिस्तान को पटरी पर लाने की कोशिश की गई उसके बाद असरफ गिनी के शासन काल में स्थिति बिगड़ने लग गई तथा तालिबान फिर से अफगानिस्तान पर कब्जा जमाने पर कामयाब हो गया। लेकिन तालिबान और अलकायदा के हमलों के कारण यहां पूरी तरह शान्ति कायम नहीं हो सकी है।

अफगान संकट तथा तालिबान का उदय पृष्ठभूमि कारण एवं प्रभाव


अफगानिस्तान समस्या की शुरुआत की बात करें तो दिसम्बर 1979 को सोवियत सेनाओं का सीधा हस्तक्षेप तथा 1988 तक अफगानिस्तान में में दखल देना वर्तमान अफगानिस्तान संकट का का मुख्य कारण कहा जा सकता है। इसके बाद जब सोवियत फौजों की वापसी हुई तभी से अफगानिस्तान में भीषण गृहयुद्ध छिड़ गया था। इसी के साथ वर्ष 1992 में सोवियत संघ द्वारा समर्थित साम्यवादी रुझान की नजीब सरकार के पतन के उपरान्त मुजाहिदीनों में सत्ता के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। बुरहानुद्दीन रब्बानी का जमात इस्लामी गुट तथा गुलबुद्दीन हिकमतयार का हज्च इ-इम्लामी मुख्य संघर्षरत गुट थे। हिकमतयार को पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त था। 1993 के जून माह के समझौते के अनुसार रब्बानी राष्ट्रपति बने तथा हिकमतयार को प्रधानमन्त्री का पद प्राप्त हुआ, किन्तु यह समझौता विफल सिद्ध हुआ और अगस्त 1993 से ही हिकमतयार की सेना ने पुनः गृहयुद्ध आरम्भ कर दिया। इसी समय अफगानिस्तान में तालिबान का लगभग जन्म ही होता है। 1992 में रूसियों के बाहर निकलने के बाद प्रतिद्वंद्वी सरदारों के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया था। उस समय बरादर ने अपने पूर्व कमांडर और रिश्तेदार मोहम्मद उमर के साथ कंधार में एक मदरसा स्थापित किया था। दोनों ने मिलकर 1994 में तालिबान की स्थापना की थी।
इसी समय तालीबान अफगानिस्तान की सता में अपनी सक्रियता शुरू करते हुए फरवरी 1995 में यह नवगठित उग्र संगठन हिकमतयार के हज्व इ-इस्लामी गुट को खदेड़कर कन्धार पर कब्जा कर लेता है। इसी के बाद में तालिबान को पराजित कर राष्ट्रपति रब्बानी 11 मार्च, 1995 को काबुल पर पुनः कब्जा जमा लेते हैं। इस समय सता की ऊटपटांग जारी रहती है और सितम्बर 1996 में तालिबान काबुल पर अधिकार करके राष्ट्रपति रब्बानी को उत्तरी अफगानिस्तान में भगा देता है। काबुल विजय से तालिबान देश की लगभग दो-तिहाई भूमि को अधिकार में कर लेते हैं। मई 1997 में उज्बेक नेता रसूल पहलवान तथा उसके भाई जनरल अब्दुल मलिक उज्वेक नेता दोस्तम का साथ छोड़कर तालिबान के साथ मित्रता कर लेते हैं। मलिक के पाला बदलने से उत्तरी अफगानिस्तान में सैन्य शक्ति का संतुलन एक बार फिर तालिबान के पक्ष में हो जाता है। इस दौरान तालिबान सरलता से उत्तरी अफगानिस्तान के प्रमुख नगर मजार-ए-शरीफ पर अधिकार कर लेता है। किन्तु तालिबान और जनरल मलिक की दोस्ती अधिक दिनों तक टिकाऊ नहीं रही, जनरल मलिक ने तालिबान का साथ छोड़ दिया और जून 1997 में उत्तरी अफगानिस्तान में ताजिक, शिया और उज्बेक लोग तालिबान के विरुद्ध एक मोर्चा बना लेते हैं इस प्रकार तालिबान का संपूर्ण अफगानिस्तान पर अधिकार करने का सपना टूट जाता है हैं। तालिबान फिर जुलाई 1998 में उत्तरी अफगानिस्तान में भारी आक्रमण करना शुरू कारता है जिनके फलस्वरूप उन्हें जनरल अब्दुल रशीद दोस्तम और हिज्बे बहादत की सेनाओं को खदेड़ते हुए उत्तरी और मध्य अफगानिस्तान के अनेक शहरों पर कब्जा करने में सफलता मिल जाती है। हालांकि कमाण्डर अहमद शाह मसूद ने अपने पारम्परिक प्रभाव वाले क्षेत्रों में तालिबान को आगे बढ़ने से रोकने के लिए कड़ा मुकाबला किया जिससे अक्टूबर-नवम्बर 1998 में पूर्ण तारवर प्रान्त और कन्डूज में कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर हो जाता है और तालिबान को वहां से भगा दिया जाता है। तालिबान का उदय, गृहयुद्ध का जारी रहना आदि ऐसा घटनाचक्र है जिसने विश्व के अनेक देशों को अफगानिस्तान की समस्या में रुचि लेने के लिए प्रेरित कर दिया।
27 अगस्त, 1999 को संयुक्त राष्ट्र ने अफगानिस्तान पर खुली बहस की जिसमें भारत ने भी भाग लिया। इस बहस में अधिकांश देशों का रवैया तालिबान के विरुद्ध ही रहा।
सुरक्षा परिषद् ने अफगानिस्तान की स्थिति पर 15 अक्टूबर, 1999 को एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में सभी राज्यों से मांग की गई कि वे तालिबान के स्वामित्व वाले अथवा उसके द्वारा पट्टे पर लिए गए किसी भी विमान को अपने क्षेत्र में उड़ान भरने अथवा वहां उतरने की अनुमति न दें और तालिबान की निधियों तथा अन्य वित्तीय संसाधनों पर भी रोक लगा दें। तालिबान पर लगाए गए प्रतिबन्ध 14 नवम्बर, 1999 से प्रभावी हुए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने 19 दिसम्बर, 2000 को 13-0 से एक प्रस्ताव पारित करके तालिबान प्रशासन के विरुद्ध प्रतिबन्धों को और भी कड़ा कर दिया। इसके अन्तर्गत तालिबान नियंत्रित अफगानी क्षेत्र का वायु सम्पर्क शेष विश्व से कट गया तथा तालिबानी नेता विश्व में किसी भी क्षेत्र की यात्रा नहीं कर सकते थे। तालिबान की विदेशों में स्थित सम्पत्ति को सील करने तथा उसे शस्त्रों की आपूर्ति रोकने के लिए कड़े कदम उठाये गये।
यह सर्वविदित है कि तालिबान का उदय पाकिस्तान की छत्रछाया में ही होता है तथा उन्हें पालने-पोसने में सऊदी अरब के धन की विशेष भूमिका रहती है। अफगानिस्तान में तालिबान आन्दोलन की उत्पत्ति 1994 के उत्तरार्द्ध में हुई थी। इस्लाम के एक कट्टरपंथी धर्म गुरु, मौलवी मुहम्मद उमर ने अपने शिष्यों को इकट्ठा करना शुरू किया और उन्हें 'तालिबान' नाम की पहचान दी। तालिबान मूलतः अफगान छात्रों का संगठन था। तालिबान के माध्यम से पाकिस्तान अफगानिस्तान में अपने एक तरह से संरक्षित राज्य की स्थापना करना चाहता था। यदि सऊदी अरब तथा पाकिस्तान तालिबान के पक्षधर हैं तो रूस तथा अफगानिस्तान पड़ोसी मध्य एशिया के नये राज्य जो सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त अस्तित्व में आए तालिबान विरोधी रुख अपनाते हैं। तालिबान की सफलता और उनका उत्तरी अफगानिस्तान में पहुंचना इन राज्यों की सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न करता है। अतः इन राष्ट्रों ने तालिबान की सरकार को मान्यता प्रदान नहीं की।

अफ़ग़ानिस्तान पर अमरीकी हमला और चर्चित तालिबान 


दुनिया का ध्यान तालिबान की ओर तब गया जब न्यूयॉर्क में 2001 में हमले किए गए। अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान पर आरोप लगाया गया कि उसने ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा को पनाह दी है जिसे न्यूयॉर्क हमलों को दोषी बताया जा रहा था। सात अक्तूबर 2001 में अमरीका के नेतृत्व वाले गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया। 9/11 के कुछ समय बाद ही अमरीका के नेतृत्व में गठबंधन सेना ने तालेबान को अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता से बेदख़ल कर दिया हालांकि तालेबान के नेता मुल्ला उमर और अल क़ायदा के बिन लादेन को नहीं पकड़ा जा सका।
पाकिस्तान इस बात से इनकार करता रहा है कि तालेबान के उदय के पीछे उसका ही हाथ रहा है। लेकिन इस बात में शायद ही कोई शक़ है कि तालेबान के शुरुआती लड़ाकों ने पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षा ली। 90 के दशक से लेकर 2001 तक जब तालेबान अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता में था तो केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी-पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब. तालेबान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ने वाला भी पाकिस्तान आख़िरी देश था।

तालिबान का पतन तथा अमेरिकी नियंत्रित अफगानिस्तान का राजनीतिक दौर


11 सितम्बर, 2001 को अमरीका के दो प्रमुख शहरों व्यापारिक राजधानी न्यूयार्क तथा राजनीतिक राजधानी वाशिंगटन डी. सी. के दो महत्वपूर्ण ठिकानों पर आतंकवादी हमले किये गये। इन हमलों में विश्व व्यापार केन्द्र के दोनों टावर ढह गये तथा पेंटागन के विशाल क्षेत्रफल में बने पांच मंजिला भवन के एक हिस्से को भारी नुकसान हुआ। इन हमलों में मुख्य संदिग्ध के रूप में अफगानिस्तान में रह रहे सऊदी आतंकवादी ओसामा बिन लादेन की पहचान की गई। संयुक्त राज्य अमरीका ने तालिबान सरकार से अपील की कि वह लादेन को उसके सुपुर्द कर दे तालिबान सरकार ने अमरीका की सभी अपीलों को ठुकरा दिया। इस प्रकार लादेन को सौंपने की सभी अपीलें निष्फल सिद्ध होने पर अमरीका ने अफगानिस्तान पर युद्ध की पूरी तैयारी कर ली। अमरीका ने अपनी लड़ाई को लादेन तक ही सीमित न रखते हुए इसे 'आतंकवाद के विरुद्ध अनंत जंग' बताया।
अफगानिस्तान में 7 अक्टूबर, 2001 से शुरू की गई सैन्य कार्यवाही के कारण लगभग दो माह में तालिबानी शासन का अंत हो गया तथा देश के अधिकांश भाग पर उत्तरी गठबंधन का नियन्त्रण स्थापित हो गया।
अफगानिस्तान के अधिकांश भाग पर तालिबानी नियन्त्रण समाप्त होने के बावजूद तालिबानों के प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर व आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन का कुछ भी पता नहीं लग सका। तालिबानी शासन के पतन के पश्चात् अफगानिस्तान में वैकल्पिक सरकार के गठन के प्रयास प्रारम्भ किये गये। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में चार प्रमुख अफगानी गुटों का एक सम्मेलन नवम्बर 2001 के अन्तिम सप्ताह में जर्मनी में बॉन के पीटरबर्ग कान्फ्रेंस सेण्टर में आयोजित किया गया। 27 नवम्बर, 2001 को प्रारम्भ हुए इस सम्मेलन में उत्तरी गठबंधन, अफगानिस्तान के पूर्व नरेश जहीरशाह (रोम गुट), साइप्रस (ईरान) व पेशावर (पाकिस्तान) में रह रहे विस्थापितों के क्रमशः साइप्रस व पेशावर गुट ने भाग लिया। पर्यवेक्षक की हैसियत से सम्मेलन में भाग लेने वाले 17 राष्ट्रों में अफगानिस्तान के सीमावर्ती राष्ट्रों व सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के अतिरिक्त टर्की, भारत व मेजबान जर्मनी शामिल थे। बॉन समझौते के परिणामस्वरूप 22 दिसम्बर, 2001 को 44 वर्षीय पख्तून नेता हामिद करजई ने अफगानिस्तान की अंतरिम सरकार की बागडोर संभाल ली। विगत 28 वर्षों में यह पहला अवसर था जब अफगानिस्तान में सत्ता का हस्तान्तरण शांतिपूर्ण तरीके से हुआ। नई अंतरिम सरकार में शामिल मन्त्रियों में सर्वाधिक मंत्री उत्तरी गठबन्धन से लिए गए। अफगानिस्तान में नई अंतरिम सरकार के सत्तासीन होने के साथ ही ब्रिटेन के नेतृत्व वाली अन्तर्राष्ट्रीय शांति सेना वहां तैनात कर दी गई । दिसम्बर 2004 में हामिद करजई अफगानिस्तान के पहले निर्वाचित राष्ट्रपति बने। इस प्रकार अफगानिस्तान पर वर्ष 1996 से 2001 तक तालिबान का अधिकार रहा।तालिबान के कट्टरपन्थी शासन के अन्त के पांच वर्ष बाद भी अफगानिस्तान में पूरी तरह शान्ति कायम नहीं हो सकी है।

अल क़ायदा, तालिबान तथा ओसामा बिन लादेन



जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला किया तो ओसामा ने आरामपरस्त ज़िदंगी को छोड़ मुजाहिदीन के साथ हाथ मिलाया और शस्त्र उठा लिए।
अफ़ग़ानिस्तान में उन्होंने मक्तब-अल-ख़िदमत की स्थापना की जिसमें दुनिया भर से लोगों की भर्ती की गई और सोवियत फ़ौजों से लड़ने के लिए उपकरणों का आयात किया गया। अफ़ग़ानिस्तान में अरब लोगों के साथ मिलकर अभियान करते वक्त ही उन्होने अल कायदा के मूल संगठन की स्थापना कर ली थी। 11 सितंबर, 2001 को न्यूयार्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया। हमले के मुख्य संदिग्ध ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा के लड़ाकों को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा। सात अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन ख़त्म हो गया। दुनिया के सबसे बड़े तलाशी अभियान के बाद भी ओसामा बिन लादेन और तब तालिबान प्रमुख रहे मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके दूसरे साथी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे।
2 मई 2011 को पाकिस्तान के जलालाबाद के ऐबटाबाद ठिकाने में आतंकी ओसामा बिन लादेन को अमरीकी नेवी सील कमांडो ने मार दिया था।
तालिबान गुट के कई लोगों ने पाकिस्तान के क्वेटा शहर में पनाह ली और वे वहां से लोगों को निर्देशित करने लगे थे। हालांकि पाकिस्तान सरकार क्वेटा में तालिबान की मौजूदगी से हमेशा इनकार करती आई है।

अशान्ति व अनिश्चितता का दौर तथा अफगानिस्तान के भविष्य से जुड़ी अटकलें


अफगानिस्तान को तालिबानी हिंसा और विश्व समुदाय की उपेक्षा से मुक्ति नहीं मिली। अमेरिका सहित कोई देश लम्बे समय तक अफगानिस्तान में शान्ति स्थापित करने और सरकार में स्थायित्व लाने में सफल नहीं हुए।
अगस्त 2006 में नाटो और तालिबान लड़ाकुओं के बीच हुई जंग में लगभग अस्सी आतंककारियों की मौत हो गई थी। वर्ष 2005 से ही यह संकेत मिले थे कि तालिबान संगठित हो रहा है। इस वर्ष आतंककारी हिंसा में हुई वृद्धि ने यह साफ कर दिया कि पांच वर्ष की उपस्थिति के बाद भी अन्तर्राष्ट्रीय सेना अलगाववादी ताकतों की कमर तोड़ पाने में पूरी तरह विफल रही। पहले काबुल को देश का सबसे सुरक्षित क्षेत्र माना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे वहां आतंककारियों द्वारा आईईडी का इस्तेमाल आम बात हो गई थी। करजई सरकार भी तालिबान के सामने लचर हो गई थी। इसलिए तालिबान ने जिस तरह खुद फिर से खड़ा किया यह उनके लिए बड़ी चुनौती और उपलब्धी थी। वर्ष 2020-21 में भी हिंसा कम नहीं हुई लेकिन इस बार हिंसा और अफरातफरी के माहौल ने सब कुछ बदल दिया अमेरिका सहित दुनिया के देश देखते रह गये इस बार तालिबान 20 वर्ष के लंबे इंतजार और संघर्ष के बाद अफगानिस्तान पर कब्जा करने में कामयाब हो गया। हालांकि वैश्विक राजनीति तथा अमेरिका की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक स्थिति के कारण तालिबान के लिए यह उचित संयोग बन गया। अब यह देखना दिलचस्प होगा वर्तमान तालिबान सरकार अफगानिस्तान में शांति,सता स्थायित्व, उद्योग , शिक्षा तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कितना कुछ हासिल कर पाती है। नागरिक सुरक्षा और स्वतंत्रता के विषय में वर्तमान अफगानिस्तान किस तरह खुद को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लेकर आयेगा यह सब भविष्य के गर्भ में है । फिर अब बहुत कुछ हो गया अब अफगानिस्तान के लोगों को उस समय की सख्त आवश्यकता है जिसमें वे अपनी मातृभूमि पर सुख सुविधाओं से सामान्य जीवन जी सकें। लम्बे संघर्ष और बारूद के धुंए में अपनी क्षमताओं और अवसरों को को चुके युवाओं को रोजगार शिक्षा एवं अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिल सके इसके लिए दुनिया को दुआ करनी चाहिए कि अफगानिस्तान में सबकुछ सामान्य और ठीक हो वहां विभिन्न देश इन्वेस्टमेंट तो करें साथ ही उन अभागे लोगों के लिए भी कुछ करें जो वर्षों से गोलीबारी और बारूद की धुंध में भटक रहे हैं। अब स्थायित्व और शान्ति बहुत जरूरी है क्योंकि संता स्थायित्व और शान्ति के बिना आर्थिक विकास और सामाजिक व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है। अब कई सवाल हैं जो दुनिया और अफ़गानी नागरिकों के ज़हन में घूम रहे हैं जिसमें अफगानिस्तान में सता स्थायित्व सरकार का रूप कैसा होगा? तालिबान की सरकार को मान्यता कौन कौन देगा? अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने तालीबानी सरकार वाले अफगानिस्तान की क्या भूमिका होगी? अफगानिस्तान में उद्योग तथा अर्थव्यवस्था का पुनर्स्थापन कैसे होगा? क्या अफगानिस्तान में एक शान्ति पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना होगी? इन सब सवालों के जवाब भविष्य की गोद में है तथा अफगानिस्तान के नागरिकों की भाग्य रेखा से जुड़े हुए हैं।


अफगानिस्तान पर तालिबान का पूर्णतः अधिकार 2021



अफ़ग़ानिस्तान के अधिकारियों ने गंभीर तौर चिंता जताई थी कि अंतरराष्ट्रीय मदद के बिना अफ़ग़ानिस्तान सरकार के सामने अस्तित्व बचाने का संकट होगा लेकिन अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अप्रैल, 2021 में एलान कर दिया कि 11 सितंबर तक सभी अमेरिकी सैनिक वापस लौटेंगे। धीरे धीरे सैनिक वापिस लौट गये। दो दशक तक चले एक युद्ध में अमेरिकी महाशक्ति को परेशान करने में तालिबान ने कोई कसर नहीं छोड़ी इस प्रकार तालिबान ने 2021 मे फिर से अफगानिस्तान के बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा करना शुरू किया तथा हिंसा और अफरातफरी के माहौल को दुनिया देखती रह गई। इस खूनी संघर्ष में हजारों की संख्या में लोग मारे गये। लोग अफगानिस्तान से भागने लगे तथा विभिन्न देशों ने अपने नागरिकों को सुरक्षित वापसी करवाईं इसी दौरान काबूल हवाई अड्डे पर सबसे अधिक अफरातफरी का माहौल रहा जिसमें कुछ विमान से दर्दनाक हादसे भी हुए। आखिर 15 अगस्त 2021 को तालिबान ने फिर से काबूल पर कब्जा कर अफगानिस्तान पर सता स्थापित करने में कामयाब हो गया इस दौरान देश के राष्ट्रपति असरफ गनी देश छोड़कर भाग गये। इस प्रकार अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो गया। इसी दौरान तालिबान ने अफगानिस्तान पर अधिकार कर अफगानिस्तान का नाम बदलकर इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान कर दिया। तालिबान ने अपनी नवीन सरकार का गठन किया जिसके सर्वोच्च नेता मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद प्रधानमंत्री बनाया गया। हालांकि अफगानिस्तान में पंचशीर घाटी तालिबान के लिए दुर्गम स्थान था लेकिन आखिर इसी पर भी तालिबान ने कब्जा कर कर लिया।

वर्तमान सत्तासीन तालिबान का भविष्य तथा वैश्विक प्रतिक्रिया और संबंध


अफगानिस्तान पर एक बार फिर तालिबान का कब्जा हो गया है लेकिन अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब तालिबान अधिकृत अफगानिस्तान का भविष्य क्या होगा? 
क्या अफगानिस्तान में सता में स्थायित्व आएगा? आर्थिक पिछड़ापन और खत्म हो चुकी अर्थव्यवस्था फिर से खड़ी होगी? तालिबान को मात्र एक देश पाकिस्तान ने समर्थन दिया है। भविष्य में यह भी देखना दिलचस्प होगा क्या चीन ,रूस तथा अन्य इस्लामिक देश तालिबान को मान्यता कब और किस रूप में देंगे। बात करें अन्य देशों की प्रतिक्रिया की तो सबसे पहले अमेरिका की बात करते हैं दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका का अफगानिस्तान में फंसना और आर्थिक नुकसान उठाना यह उसके लिए बड़ी दीर्घकालिक समस्या बन गई। अमेरिका ने जिस तरह अफगानिस्तान और पाकिस्तान में जो जाल बुना उसी जाल में खुद फंसकर बर्बादी की ओर जाने लगा। जिन लोगों को अमेरिका ने इस्तेमाल किया तथा उन पर धन खर्च किया आज उसी धन से अमेरिका परेशान होकर पीछे हट रहा है। अमेरिका की विफलता का अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि जिन तालिबानी नेताओं पर अमेरिका कार्यवाही करना चाहता था उन्हीं से आज बातचीत करने को मजबूर हो गया है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्तमान तालिबान सरकार के प्रति अमेरिका का रवैया उदासीन ही रहेगा क्योंकि अमेरिका फिर से उस ज्वलनशील अंगारे के करीब जाना पसंद नहीं करेगा जिसने अमेरिका की अर्थव्यवस्था में अरबों-खरबों का नुक़सान करवाया। तालिबान भी 2001 के हमलों तथा अफगानिस्तान से सता गंवाने का मंजर भूला नहीं है इसलिए नवगठित तालिबान सरकार नहीं चाहेगी की अमेरिका से संबंध बिगड़ने लगें। दूसरी तरफ आज महाशक्तियों में ट्रेड वार चल रहा है चीन अपनी अर्थव्यवस्था और सैन्य ताकत को मजबूत कर रहा है, चीन तेजी से जिस तरहां प्रगति कर रहा है उससे अमेरिका की चिंताएं बढ़ गई है। इसलिए अमेरिका चाहेगा कि अब अफगानिस्तान के मसले पर नहीं उलझ कर चीन के बढ़ते वर्चस्व को कम किया जाए।इसलिए अमेरिका अपना ध्यान अफगानिस्तान से हटाकर हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसिफिक) क्षेत्र पर देना चाहता है हालांकि इस क्षेत्र में चीन के प्रभूत्व को कम करने के लिए अमेरिका आस्ट्रेलिया जापान और भारत ने क्वाड (QUAD) की स्थापना की है जिसकी प्रथम शिखर बैठक 12 मार्च 2021 हो चुकी है इस के अलावा अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया एक सुरक्षा समझौता (AUKUS) कर चुके हैं। चीन अब अफगानिस्तान की तरफ अपना ध्यान आकर्षित कर रहा है क्योंकि चीन अफगानि स्तान के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने राष्ट्र हित के लिए करना चाहता है। चीन ने One Belt One Road की एक महत्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत की है
इसके तहत पूर्वी एशिया से यूरोप, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका तक विकास और निवेश की बड़ी परियोजनाओं को शुरू करने की योजना है तो हम कह सकते हैं कि अफगानिस्तान को इस परियोजना मे लाभ हो सकता है इसलिए चीन का झुकाव अफगानिस्तान की तरफ रहना लाजिमी है। अन्य देशों की बात करें तो वर्तमान वैश्विक प्रतिस्पर्धा के युग में सभी देशों की विदेश नीति अपने राष्ट्र हित के अनुरूप ही तय होती है। जो अपने हित में होगा वो ही स्वीकार होगा इसलिए आज जब तालिबान की सरकार सता हैं तो भारत की तालिबान की सरकार के प्रति कोई खास प्रतिक्रिया नहीं है भारत यही चाहता है कि अफगानिस्तान से लगने वाली सीमा तथा नजदीकी भूमि पर भारत के खिलाफ आंतकवाद को बढ़ावा नहीं मिले। दूसरी तरफ कुछ पडौसी देश जहां तालिबान के कब्जे के बाद दहशत में तो कुछ देश उदासीन और खुश भी हैं क्योंकि कुछ देशों के निजी स्वार्थ अफगानिस्तान से जुड़े हैं। इस प्रकार चीन, रूस और पाकिस्तान उन चंद देशों में शामिल हैं जिन्होंने तालिबान के क़ब्ज़े के बाद भी काबुल में अपने दूतावास खुले रखे हैं।


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