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Saturday, June 26, 2021

संवेग Emotion : अर्थ,प्रकार तथा संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया

Emotion momentum
संवेगात्मक विकास एवं संवेग Emotion


Emotion:संवेग 



मानव एक बुद्धिमान प्राणी है इसलिए मानव के जन्म से ही कुछ उतेजनाओ तथा विशिष्ट व्यवहार संबंधी प्रतिक्रियाओं का विकास शुरू हो जाता है यह किसी व्यक्ति ,घटना,कार्य या स्थति से उत्पन्न हुई प्रतिक्रियाएं होती है। आइए समझने की कोशिश करते हैं कि संवेग क्या है? यह कितने प्रकार के होते हैं? रीट तथा अन्य शिक्षक भर्ती परीक्षा में संवेग तथा संवेगात्मक विकास में से प्रश्न कैसे और कहां से बन कर पूछा जा सकता है? 


संवेग क्या है अर्थ एवं परिभाषा


सबसे पहले हम संवेग को इसके शाब्दिक अर्थ से समझने की कोशिश करते हैं। (Sanveg)संवेग को अंग्रेजी भाषा में 'इमोशन' कहते हैं। (Emotion) इमोशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के इमोवरी (Emovere) शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है 'उत्पन्न करना' 'उत्पत्ति करना', हिला देना, उत्तेजित करना, भड़क उठना, या उद्दीप्त होना आदि।
सरल शब्दों में व्यक्ति की उत्तेजित या उद्वेलित अवस्था को ही संवेग Emotion/momentum कहते हैं।
 

संवेग की परिभाषा 

यंग महोदय ने संवेग को बहुत ही सरल एवं प्रभावशाली शब्दों से परिभाषित किया है उनके अनुसार संवेग व्यक्ति का तीव्र मनोवैज्ञानिक उपद्रव है जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है तथा इसमें व्यवहार, चेतन, अनुभूति, अनुभव, और आंतरिक अवयवों की क्रियाएँ सम्मिलित रहती है।
जेम्स डेवर महोदय ने संवेग को परिभाषित करते हुए बताया है कि संवेग हमारे शरीर की वह जटिल अवस्था है जिसमें सांस लेने, नाड़ी गति, ग्रंथिल उत्तेजना, मानसिक दशा, अवरोध आदि की अनुभूति पर प्रभाव पड़ता है तथा उसी के अनुसार मांसपेशियां व्यवहार करने लगती है।
यंग महोदय तथा जेम्स ड्रेवर की परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि संवेग एक हमारे शरीर से जुड़ी मनौवैज्ञानिक अवस्था है जिससे आन्तरिक और बाह्य क्रियाएं उत्पन्न या उत्तेजित होती है। जिसमें हमारे मस्तिष्क तथा मांशपेशियों में व्यवहारगत परिवर्तन होता है।

संवेग के प्रकार kind of emotions


संवेग दो प्रकार के होते हैं - 

1.सकारात्मक संवेग :-

इन्हें सुखकर संवेग या आनन्दानुभूति संवेग भी कहते है। उदाहरण- प्रेम, आमोद, हर्ष, स्नेह, उल्लास, आनंद आदि। 

2. नकारात्मक संवेग :


इस प्रकार के संवेग को दुखकर या कष्टकर संवेग भी कहते हैं। इन्हें दुःखदायी या कष्टदायक अनुभूति होती है
उदाहरण के लिए -क्रोध, चिन्ता, घृणा, ईष्या, भय आदि।

 मैक्डूगल तथा गिलफोर्ड द्वारा बताए गए 14 प्रमुख संवेग



मैक्डूगल तथा गिलफोर्ड ने 14 प्रमुख संवेग बताए हैं। जो निम्न है 1. क्रोध 2. भय 3. वात्सल्य 4. अधिकार भावना 5. भूख, 6. कृति भाव 7. कामुकता 8. आत्माभिमान 9. एकाकीपन्न 10. आश्चर्य 11. करुणा 12. आत्महीनता 13. घृणा 14. आमोद। 

डेकार्ट,स्पिनोजा,जॉरगेनसेन,जेम्स शैंड तथा वाटसन द्वारा बताए संवेग


डेकार्ट के छः प्राथमिक संवेग
 1.प्रशंसा 2. प्यार 3. घृणा 4. इच्छा 5. हर्ष 6. शोक
 स्पिनोजा के तीन प्राथमिक संवेग
1. हर्ष 2. शोक 3. इच्छा -
जॉरगेनसेन के छः मौलिक संवेग
1. भय 2. खुशी 3. शोक 4. इच्छा 5. क्रोध 6. लज्जा
वॉटसन के प्राथमिक संवेग 
1.भय, 
2.क्रोध, 
3.प्रेम 
शैन्ड के सात प्राथमिक संवेग
1. भय 2. क्रोध 3. हर्ष 4. शोक 5. जिज्ञासा 6. घृणा 7. विरक्ति
जेम्स महोदय द्वारा बताए गए दो प्रकार के संवेग
1. स्थूल संवेग - दुःख, भय तथा प्रेम
2. सूक्ष्म संवेग - नैतिक भाव, बौद्धिक भाव तथा सौन्दर्य 

ब्रिजेज महोदय ने बालक के संवेगों का अध्ययन कर उनका क्रम महत्वपूर्ण ढ़ंग से क्रमिक किया है। यह क्रम वर्गीकरण बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यह वर्गीकरण जन्म के समय से दो वर्ष की आयु में होने वाले सांवेगिक विकास को इंगित करता है।
जन्म के समय- उत्तेजना 
1 माह - पीड़ा,आनन्द 
3 माह -क्रोध
4 माह -परेशानी
5माह -डर
10 माह - प्रेम
15 माह -ईर्ष्या
2 वर्ष-खुशी


बालक का संवेगात्मक विकास


उपर बताया गया था कि संवेग मनुष्य के जन्म से विकसित होना शुरू होते हैं जो धीरे-धीरे प्रारम्भिक किशोरावस्था तक पूर्ण विकसित हो जातें हैं। लेकिन कुछ बालकों में किसी समस्या या बिमारी के चलते संवेगात्मक विकास बाधित हो सकता है। इसके अलावा परिवेश भी संवेग विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संवेगात्मक विकास भी जरूरी है इसलिए इसके लिए उचित परिवेश और शिक्षा की जरूरत होती है। हालांकि अधिकतर संवेग शारिरिक विकास के दौरान स्वत विकसित हो जातें हैं। 

शैशवावस्था मे संवेगात्मक विकास


मनौवैज्ञानिक मानते हैं कि जन्म के समय शिशु में कोई संवेग नहीं होता है ,इस समय शिशु केवल उत्तेजना का अनुभव करता है। तीसरे मास में कुछ संवेग विकसित हो जातें हैं इन संवेगो को शिशु की मां या अन्य परिवार का सदस्य भली-भांति पहचान सकता है इस अवस्था में शिशु आनंद और क्रोध का अनुभव करता है।
तकरीबन दो वर्ष की आयु में शिशु में तीसरा संवेग प्रेम भी विकसित होने लगता हैं। 5 वर्ष की आयु में बालक पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है तथा बालक के संवेग वातावरण के अनुकूल प्रदर्शित होने लगते हैं। शैश्वावस्था में संवेग आस्थाई भले ही रहते हो लेकिन यह काल समुचित सांवेगिक विकास की दृष्टि से स्वर्णिम काल माना जाता है।



बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास


बाल्यावस्था में पूर्व अवस्था की उत्तेजना स्पष्ट संवेगात्मक अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होने लगती है। मनौवैज्ञानिक वाटसन का मानना है कि बालक में सबसे पहले भय एवं प्रेम के संवेग विकसित होते हैं। इस अवस्था में बालक बड़ों के संपर्क में आकर संवेगों की अभिव्यक्ति करना सीखता है। - विद्यालय में भय, दंड, तनाव आदि के वातावरण से छात्रों में मानसिक ग्रंथियों का निर्माण होता है। संवेग लिंग से भी प्रभावित होते हैं कुछ संवेग बालक बालिकाओं में कम ज्यादा हो सकतें हैं। जैसे लड़कियों में लड़कों की अपेक्षाकृत ज्यादा ईर्ष्या होती है। 

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास


पूर्व किशोरावस्था संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास के लिए महत्वपूर्ण काल माना जाता है । इस अवस्था में संवेग मजबूत और शक्तिशाली रहते हैं । यह अवस्था संवेगात्मक विकास की कठिन और जटिल अवस्था है । इसलिए इस अवस्था को संघर्ष और तूफान की अवस्था माना जाता है। इस अवस्था में उसके मन में असुरक्षा और सामाजिक मान्यता की समस्याएँ उलझनें पैदा करती है। किशोरावस्था अवस्था में किशोर किशोरिया स्वावलंबी और स्वतंत्र होना चाहती है लेकिन माता-पिता और अभिभावक उसे अनुभवहीन मानते हैं। जिससे किशोर किशोरियों में चिड़चिड़ापन आक्रमकता आदि विकसित होते हैं। इस अवस्था में बालक-बालिका विपरीत लिंगी में आकृषण बनाने लगते हैं। लैंगिक विकास से हुए शारीरिक बदलाव भी संवेगो को प्रभावित करते हैं। इस अवस्था में संवेगात्मक संतुष्टि की दृष्टि से किशोरी किशोरी अपने मित्रों पर अधिक से अधिक विश्वास करते हैं। वीर पूजा तथा दिवास्वप्न आदि संवेगो को प्रभावित करते हैं।



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