भारत में स्वतंत्रता की लड़ाई और संघर्ष को भला कोन नहीं जानता । भारत को आजाद करवाने में भारत माता के लाखों लाडलों ने संघर्ष किया तथा अपनी जान की बलि दी। भारत की स्वतंत्रता संग्राम की यात्रा में ऐसे-ऐसे की वीर शहीद हुए जिनको आज वे भारतीय लोगों के लिए आदर्श और प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं। आज आजाद भारत की खुशहाली में उन लोगों का बहुत बड़ा योगदान है जिनकी बदौलत आज भारत के लोग स्वतंत्र और सुखी जीवन जी रहे हैं। अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंकने में हजारों नौजवानों और महिलाओं ने खुन बहाया उसमें कुछ मां भारती के लाल हंसते हुए फांसी पर चढ़ गये। उनका जज्बा, त्याग और बलिदान असाधारण था । भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव का बलिदान युगों युगों तक स्मरणीय रहेगा।
स्वतंत्रता के इतिहास में शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की वीरता व योगदान को शब्दों में वर्णित करना सम्भव नहीं है। देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने की उनकी ललक और बलिदान को याद कर आज भी हर भारतवासी की आँखें नम हो जाती हैं। इन यौद्धाओं द्वारा बहादुरी से मौत को गले लगाना तथा इन्कलाब जिंदाबाद के नारों से फंदे को गले लगा लेना हर किसी को हैरान कर देता है यह इनकी विचित्र और महान क्रान्तिकारी सोच और मातृभूमि से मोहब्ब्त का परिणाम था।
23 मार्च 1931 का दिन इतिहास में दर्ज हो गया
23 मार्च 1931 को अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान इन तीनों यौद्धाओं को फांसी दी गई थी। उसी दिन वो तारीख इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। इसके बाद से 23 मार्च को देशभर में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। हालांकि भारत में वर्ष की कुछ तिथियों को भी शहीद दिवस मनाया जाता है। जिसमें से मुख्य तौर पर 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या का दिन, 23 मार्च भगतसिंह राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने पर तथा इसके अलावा 21 अक्टूबर, 17 नवम्बर और 19 नवम्बर को भी शहीद दिवस माना जाता है।
नियत समय से बारह घंटे पहले दी गई फांसी
हालांकि इन तीनों क्रान्तिकारियों को फांसी की सजा 24 मार्च को तय थी लेकिन भारतीय लोगों द्वारा विरोध को देखते हुए अंग्रेजी हुकूमत को हिंसा तथा दंगों का डर था इसलिए इसलिए फांसी के लिए जो तारीख तय की गई थी। वो 24 मार्च थी। लेकिन उन्हें 23 मार्च के दिन ही फांसी दी गई। उस समय ये खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई थी।
आखिर क्यों दी फांसी क्या था इन तीनों का कसूर
जब अप्रैल 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के सेंट्रल असेंबली में बम फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दे दी थी। इसके बाद करीब दो साल उन्हें जेल में रखा गया। बाद में भगत सिंह को राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी की सजा सुनाई गई। जब इन तीनों को फांसी दी गई, तब भगत सिंह और सुखदेव 23-23 वर्ष के थे, जबकि राजगुरु मात्र 22 साल के थे। क्रांतिकारी गतिविधियों में चन्द्र शेखर आजाद भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु सहित अन्य क्रांतिकारी अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों का मुकाबला कर रहे थे। जलियांवाला बाग हत्या काण्ड सहित अंग्रेजों द्वारा भारत के लोगों पर किए गए जुर्मों से यह लोग बहुत आहत थे इनका ख़ून खोल रहा था।
इसलिए लाला लाजपत राय पर अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता तथा नवंबर 1928 में लाला लाजपत राय की मृत्यु के बाद, चन्द्र शेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और अन्य लोगों ने बदला लेने की कसम खाई। लाला लाजपत राय भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के एक बड़े नेता थे। उन्होंने जेम्स ए स्कॉट को मारने की साजिश रची। स्कॉट ब्रिटिश राज में पुलिस अधीक्षक थे। स्कॉट ने ही पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज करने का आदेश दिया था और राय पर हमला किया था, जिससे उन्हें काफी गंभीर चोटें आई थीं। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव स्कॉट की हत्या कर ब्रिटिश शासन को एक बड़ा सन्देश देना चाहते थे। हालांकि, पहचान की वजह से स्कॉट की जगह जॉन पी सॉन्डर्स मारे गए, जो एक सहायक पुलिस अधीक्षक थे। सॉन्डर्स के सर में राजगुरु ने गोली दाग दी तथा इस समय एक सिपाही चनन सिंह को आजाद ने गोली मार दी थी। इस प्रकार इन्होंने लाला लाजपतराय पर जूर्म का बदला लिया। दूसरी तरफ भगत सिंह और BK दत्त (बटुकेश्वर दत्त) ने 8 अप्रैल 1929 को सेंट्रल असेंबली में बम फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर इन दोनों ने गिरफ्तारी दी थी। इसी जुर्म पर इन्हें जेल में रखकर फांसी की सजा दी गई थी। हालांकि कहा जाता है कि भगतसिंह की फांसी टालने की कोशिश भी हूई थी। लोगों के भारी विरोध के बावजूद इन्हें फांसी दी गई। तथा इन तीनों के पार्थिव शरीर को पीछे की दीवार से चुपके से निकाला गया। अंग्रेजी हुकूमत द्वारा इनके शवों को अपमानित तरीके से ट्रक में लादा गया। तथा रावी नदी के किनारे जलाने का फैसला लिया गया लेकिन किसी कारणवश सतलुज नदी के किनारे पर अन्तिम संस्कार किया गया था। इस मामले मामले विवाद भी है कि इन क्रांतिकारियों के पार्थिव शरीर को सम्मान के साथ नहीं जलाया गया।
पक्के पठाकू थे भगत सिंह इंकलाब जिंदाबाद के नारे से फंदे को गले लगाया
भगत सिंह को किताबें पढ़ने का इतना शौक था इसलिए एक बार उन्होंने अपने स्कूल के साथी जयदेव कपूर को लिखा था कि वो उनके लिए कार्ल लीबनेख़्त की 'मिलिट्रिज़म', लेनिन की 'लेफ़्ट विंग कम्युनिज़म' और आप्टन सिंक्लेयर का उपन्यास 'द स्पाई', कुलबीर के ज़रिए भिजवा दें। भगत सिंह लाहौर जेल में अपनी जर्जर छोटी सी कोठरी में शेर की तरह रहते थे। वे किताबें पढ़ने में व्यस्त रहा करते थे। वे कभी मायूस नहीं होते थे भगत सिंह कहते थे कि क्रान्तिकारियो और इन्कलाबियों का लक्ष्य तो मरने से ही पूरा होता है। भगत सिंह समाजवाद के पक्षधर तथा साम्राज्यवाद के घोर विरोधी थे। जब भगत सिंह को नियत समय से 12 घंटे पहले फांसी देने की सूचना दी गई तब भी वे एक किताब पढ़ रहे थे । इसलिए भगतसिंह ने कहा था कि आप मूझे एक अध्याय भी पूरा करने नहीं देंगे।
भगत सिंह अपनी मां के एक वादे को पूरा करना चाहते थे जिसमें उनको फांसी के तख्ते से भी इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए हंसते हुए फांसी चढ़ जाना था। भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु ने फांसी के चन्द समय पहले हाथ पकड़ कर आजादी का गीत गाया तथा इंकलाब जिंदाबाद की गर्जना करते हुए फांसी पर झूल गए।
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