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military coup in Myanmar |
Highlights
•म्यांमार का लोकतांत्रिक इतिहास
Myanmar's democratic history
•आंग सान सू की और लोकतंत्र की नींव
Aung San Suu Kyi and the foundation of democracy
•लोकतांत्रिक अस्थिरता और चुनाव
Democratic instability and elections
•सैना का सता में हस्तक्षेप और दबदबा
Army interferes and dominates in persecution
•सैन्य तख्तापलट के कारण
Reason of military coup
military coup in Myanmar 2021
वर्तमान में विश्व का हर देश लोकतंत्र चाहता हैं जिससे नागरिक अपने अधिकारों की स्वतंत्रता तथा अभिव्यक्ति की आजादी के साथ अपना जीवन सुरक्षित और अच्छे ढंग से व्यतीत कर सके लेकिन भारत के पड़ोसी देश पूर्व में बर्मा वर्तमान में म्यांमार में लोकतंत्र का घरौंदा ढह गया तथा सेना ने सता पर कब्जा कर लिया । लोकतंत्र के लिए लड़ने वाली आयरन लेडी आंग सान सू की को एकबार फिर नजरबंद कर दिया गया 1991 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार जीतने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता जिसनें 1989 से लेकर 2010 तक करीब 15 साल हिरासत में बिताए हैं। सू की ने म्यांमार में नवंबर 2015 में पहली बार खुलेतौर पर हुए चुनाव में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी का नेतृत्व किया। वह एक बार फिर नजरबंद है।
इसलिए यह पूर्वी एशिया सहित पुरे विश्व का ज्वलंत मुद्दा है कि आखिर जब पूरा विश्व लोकतंत्र के सुनहरे सपनों के लिए संघर्ष कर रहा है और म्यांमार में ऐसा क्या हो गया जिससे भविष्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए नवीन चुनौती पैदा हो गई आइए जानते हैं कि म्यानमार में सैन्य तख्तापलट के क्या कारण रहे हैं। इसलिए हमें म्यानमार के लोकतांत्रिक इतिहास को भी पहले समझना होगा। म्यांमार में 2011 तक सेना का शासन रहा है। आंग सान सू की ने कई साल तक देश में लोकतंत्र लाने के लिए लड़ाई लड़ी। इस दौरान उन्हें लंबे समय तक घर में नजरबंद रहना पड़ा। लोकतंत्र आने के बाद संसद में सेना के प्रतिनिधियों के लिए तय कोटा रखा गया। संविधान में ऐसा प्रावधान किया गया कि सू की कभी राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ सकतीं।
म्यांमार में 10 साल पहले लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाई गई लेकिन देश में एक बार फिर सैन्य शासन लौट आया है। म्यांमार की सेना ने देश की सर्वोच्च नेता आंग सान सू की और राष्ट्रपति यू विन मिंट समेत कई नेताओं को गिरफ्तार करने के बाद सत्ता अपने हाथ में ले ली है। इन गिरफ्तारियों के बाद सैन्य स्वामित्व वाले टीवी चैनल मयावाडी से घोषणा की कि देश में एक साल तक आपातकाल रहेगा।
म्यांमार की राजधानी नेपीता और मुख्य शहर यंगून में सड़कों पर सैनिक मौजूद हैं। यहां बख्तरबंद वाहन गश्त कर रहे हैं और कई शहरों में इंटरनेट कनेक्टिविटी बंद कर दी गई है। सैन्य टीवी चैनल ने बताया कि सेना ने देश को अपने नियंत्रण में ले लिया है। राष्ट्र्पति के दस्तखत वाली एक घोषणा के मुताबिक देश की सत्ता अब कमांडर-इन-चीफ ऑफ डिफेंस सर्विसेस मिन आंग ह्लाइंग के हाथों में रहेगी। देश के पहले उप राष्ट्रपति माइंट स्वे को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया है। उन्हें सेना प्रमुख का भी पद दिया गया है। सेना ने कहा है कि उसने यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि देश की स्थिरता खतरे में थी। जानकारी के मुताबिक, किसी भी विरोध को कुचलने के लिए सड़कों पर सेना तैनात है और फोन लाइनों को बंद कर दिया गया है।
म्यांमार में सत्तारूढ़ पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) के प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी और तख्तापलट होने के बाद सबकी नजरें सेना प्रमुख सीनियर जनरल मिन आंग ह्लाइंग पर आकर टिक गई हैं। म्यांमार में तख्तापलट के बाद मिन आंग ह्लाइंग के हाथों में ही सत्ता की कमान सौंपी गई है। म्यांमार की सेना ने तख्तापलट करने के कुछ घंटे बाद एक बयान जारी कर बताया कि जनरल मिन आंग ह्लाइंग ही अब विधायिका, प्रशासन और न्यायपालिका की जिम्मेदारी संभालेंगे। म्यांमार की राजनीति में सेना का हमेशा से ही दबदबा रहा है। साल 1962 में तख्तापलट के बाद से सेना ने देश पर करीब 50 सालों तक प्रत्यक्ष रूप से शासन किया है। म्यांमार में लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग तेज होने पर साल 2008 में सेना नया संविधान लाई। इस जानकारी से ऐसा लगता है कि म्यानमार में सैना ही वहां की सता में अहम भूमिका निभा रही हैं। देश की शासन व्यवस्था सैना का हस्तक्षेप बार बार यहां के लोकतंत्र में अस्थिरता पैदा कर रहा है। गौरतलब है कि वहां का संविधान भी सैना द्वारा ही लागु किया गया । इसलिए म्यानमार में यह लोकतांत्रिक अस्थिरता बहुत जटिल बनी हुई है। इस मामले में म्यानमार देश के आन्तरिक और बाह्य पहलू भी उतरदायी है जिससे वहा के लोकतंत्र में स्थिरता नहीं है। हालांकि कुछ देशों ने इस घटनाक्रम की आलोचना की है सिंगापुर ने भी म्यांमार के घटनाक्रम की निंदा करते हुए लोकतंत्र बहाली की मांग की। वहीं एमनेस्टी इंटरनेशनल ने आंग सान सू की व अन्य नेताओं को तत्काल रिहा करने की मांग की। इसके साथ ही पूरे विश्व में भी अनेक बड़े बड़े लोकतंत्र के पक्ष वाले नेता इस घटना की निन्दा कर रहे हैं।
चुनाव धांधली का मुद्दा भी रहा उतरदायी
म्यानमार में 8 नवंबर को हुए चुनाव में NLD ने 83 फीसदी सीटें हासिल कीं। इस पार्टी को 476 में से 396 सीटों पर जीत मिली। जिसके बाद स्टेट काउंसलर आंग सान सू की को दोबारा सरकार बनाने का मौका मिला। चुनाव में सेना के समर्थन वाली ‘यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट’ पार्टी को केवल 33 सीटों पर जीत हासिल हुई। जिससे सैन्य खैमे में असन्तोष व्याप्त हो गया तथा यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी अपने इस प्रर्दशन से ना खुश थी । इसलिए उसने एन एल डी पर धांधली का आरोप लगाया।
जिसके बाद से सेना कई बार सेना ने कहा कि अगर उसकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह तख्तापलट कर सकती है। इसलिए यह मुद्दा भी इस घटनाक्रम का मूल कारण रहा होगा।
सैन्य शासन की परिपाटी और लालसा
म्यानमार में 2011 में ही सैन्य शासन समाप्त हुआ। यहां सेना ने 49 वर्षों तक शासन किया है, जिसका अंत 2011 में हुआ था। इसलिए यहां लोकतंत्र की जड़ें पसरी ही नहीं। क्योंकि 8 साल पुराना लोकतंत्र मजबूत स्थिति में आया नहीं कि एक बार फिर बिखर गया। जब चुनाव के नतीजों से सेना खुश नहीं हुई। उसने सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और चुनाव आयोग के खिलाफ शिकायत की। सेना के इन आरोपों को चुनाव आयोग ने खारिज कर दिया था। जिससे लम्बे समय से शासन करने वाली सैना को यह सब मंजूर नहीं था । इसलिए उसने आसानी से पलटवार कर दिया।
सेना की मांगों को स्वीकार नहीं करना
इसी बीच यह भी कारण रहा होगा कि सेना की कुछ मांगों को नजरांदाज किया गया जिससे सैना में असन्तोष दुगुना हो गया। सेना ने इस बात की भी मांग की कि सरकार का चुनाव आयोग वोटर लिस्ट जारी करे। ताकि उसकी जांच की जा सके। आयोग ने ऐसा करने से भी साफ इनकार कर दिया। मिलिट्री चीफ जनरल मिन आंग ह्रलांग ने कहा था कि कई परिस्थितियों के कारण देश का 2008 का संविधान भंग हो सकता है। जिसके बाद से तख्तापलट का खतरा बढ़ गया था।
पडौसी देशों का प्रभाव तथा संबंध
हालांकि किसी भी पडौसी देश की वजह से म्यांमार में ऐसा नहीं हुआ है। लेकिन विभिन्न पड़ोसी देशों के भविष्य कुछ हित है जो यहां के इस घटनाक्रम से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हो सकते हैं। चीन जो लोकतंत्र का समर्थक नहीं है तो उसके लिए म्यांमार में सैन्य अधिपत्य से भविष्य में कोई अप्रत्यक्ष हित हो सकता है। दूसरी तरफ भारत पाकिस्तान आदि पडौसी देशों के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि यहां लोकतंत्र फल फूल रहा है। इसलिए इस घटनाक्रम में अन्तर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप बहुत कम ही है।
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