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Monday, January 4, 2021

उदासीन व भ्रष्ट नौकरशाही तथा पूंजीवाद दे रहे हैं निजीकरण को बढ़ावा Privatization crisis in India

Privatization crisis in India
Privatization crisis in India

Privatization crisis in India

भारत में पिछले कुछ समय से निजीकरण की खबरें सामने आ रही है। कुछ लोग इसके समर्थन में हैं तो कुछ लोग अर्थव्यवस्था के मजबूत होने का हवाला देकर समर्थन भी कर रहे हैं ।  हालांकि निजीकरण कोई नवीन परपंरा नहीं है पहले भी कई बार देश की अर्थव्यवस्था में संतुलन स्थापित करने के लिए सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण किया गया था।
जिसमें भारत सरकार ने वर्ष 1991-92 के बाद उदारवादी अर्थव्यवस्था की ओर तेजी से कदम बढ़ाते हुए कई सरकारी उद्योगों का आंशिक या पूर्ण निजीकरण किया था। वर्तमान समय में  रेलवे जैसी सबसे बड़ी सरकारी सेवा के भी निजीकरण की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है। साथ ही सरकार एयर इंडिया, सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, इंजीनियरिंग प्रोजेक्टस इंडिया लिमिटेड, पवन हंस, बीएंडआर, प्रोजेक्ट एंड डिवेलपमेंट इंडिया लिमिटेड, सीमेंट कॉर्पोरेशन इंडिया लिमिटेड, इंडियन मे़डिसिन एंड फार्मास्युटिक्स, सलेम इंडिया प्लांट, फेरो स्क्रैप निगम लिमिटेड जैसी कंपनियों के निजीकरण के बारे विचार कर रही है तो कुछ उपक्रमों का निजीकरण किया भी जा चुका है। आज हम निजीकरण के अन्य पहलुओं पर चर्चा न करके इसके कारण व प्रभाव के बारे में बात करते हैं,
भारत में विकसित देशों की तर्ज पर निजीकरण करना यहां की परिस्थितियों के अनूकूल नहीं है क्योंकि भारत में तकरीबन पच्चीस फीसदी आबादी बहुआयामी गरीबी रेखा के आसपास है इसलिए भारत जैसे आर्थिक विषमता वाले राष्ट्र में निजीकरण गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को ओर भी चौड़ा कर देगी। लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में विभिन्न सरकारों को समय समय पर निजीकरण के लिए मजबूर होना पड़ा।  हालांकि निजीकरण के लिए विभिन्न देशों के उद्देश्य  भिन्न भिन्न होते हैं, लेकिन कुछ परिस्थितियां एवं समस्याएं समान हो सकती है जिसमें राजकोषीय घाटा, सरकारी उपक्रमों पर नियंत्रण में कमी,  अधिक कार्यकुशलता और उत्पादकता की चाह, शिक्षित एवं उद्यमशील युवाओं को अवसर प्रदान करके रोजगार में वृद्धि करना, राजकोषीय सन्तुलन को बिगाड़ने वाले घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों को समाप्त करके राजकोषीय घाटे में कमी लाना, आदि शामिल हैं लेकिन भारत में वर्तमान परिस्थितियों में अगर  निजीकरण को बढ़ावा मिलता है तो इसके लिए भारतीय नौकरशाही और पूंजीपतियों का बढ़ता वर्चस्व जिम्मेदार है सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से पूंजीपतियों के समर्थन में आकर मौके का फायदा उठाना चाहती है । इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण भारतीय सरकारी उपक्रमों में काम कर रही नौकरशाही कर रही है, जिसमें इन विभागों से जुड़े लोग उदासीन होकर  इन उपक्रमों की कार्यप्रणाली का दुरपयोग, भ्रष्टाचार , धांधली, लापरवाही आदि माध्यमों से अपने निजी स्वार्थों के लिए सार्वजनिक ढांचे को  कमजोर करने लगे हैं। इसके अलावा मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा सरकारी उपक्रमों के प्रति उदासीनता तथा आम लोगों द्वारा सार्वजनिक उपक्रमों के रखरखाव में असहयोग आदि कारक सार्वजनिक उपक्रम क्षेत्र को कमजोर कर रहे हैं। 
ऐसी परिस्थितियों में देश के पूंजीपति और प्राइवेट सेक्टर इन पर नजर गड़ाए रहते हैं, जब इन सार्वजनिक उपक्रमों में असंतुलन उत्पन्न होने लगता है तब सरकार मौके का फायदा उठा कर इन्हें पूंजीपतियों के हाथों सौंप देती है, जिससे सरकार को भारी मात्रा में राजकोष प्राप्त होता है। लेकिन अगर गरीब तथा पिछड़ी आबादी के भविष्य के बारे में विचार करें तो यह उनके लिए बहुत नाज़ुक स्थति होगी जब इस तरह मूलभूत आवश्यकताओं वाले सार्वजनिक सेक्टर निजी हाथों में चलें जायेंगे। 
उदाहरण के तौर पर जैसे आज हर राज्य में बड़े पैमाने पर सरकारी अस्पतालों में गंभीर बिमारियों का इलाज मुफ्त मुहैया कराया जाता है लेकिन जब यहां सरकारी दवाइयों की कालाबाजारी तथा चिकित्सकों द्वारा लापरवाही बरती जाएगी तो जाहिर है कि अस्पतालों की हालत बदतर होगी। ऐसी स्थिति में अगर एक अस्पताल भी निजी क्षेत्र में जाता है , तो वहां कैंसर , एड्स , टीबी जैसे आदि भयानक रोगों की दवाओं के लिए मूफ्त ईलाज की जगह लाखों रुपए इन्ही मध्यम वर्गीय तथा पिछड़े परिवारों को खर्च करने पड़ेंगे।
मतलब उसी मध्यम वर्गीय नौकरशाही पर आश्रित परिवारों
पर आर्थिक बोझ पड़ेगा जो वर्तमान में सरकारी उपक्रमों के प्रति वफादार नहीं है।
दूसरा उदाहरण किसी राज्य में वहां का परिवहन निगम घाटे में चलें तो इनके कर्मचारियों की उदासीनता, व्यवहार,  बेईमानी, रखरखाव में लापरवाही आदि कारक जिम्मेदार होंगे, साथ ही भौतिकवादी दृष्टिकोण में जनता चकाचौंध और अधिक सुविधाओं के लिए निजी उपक्रमों की तरफ आकर्षित होती है , जहां उनसे अंधाधुंध वसुली होती है फिर यह लोग निजी क्षेत्र में अधिक विश्वास करते हैं। लेकिन दूसरी तरफ  यहां आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को अतिरिक्त बोझ झेलना पड़ता है।  फिर यही लोग महंगाई के विरोध में बवाल खड़ा करते हैं। खैर निजीकरण से भी रोजगार बढ़ता है लेकिन बड़े बड़े निजी प्रतिष्ठानों में भाई-भतीजावाद के कारण साधारण एवं ग्रामीण इलाकों के युवाओं को रोजगार नहीं मिल पाता है, साथ साथ निजीकरण से सरकारी नौकरियों में कमी आने लगती है।
गौरतलब है कि भारत में रेलवे की शुरुआत निजी क्षेत्र से हुई थी फिर उसका राष्ट्रीयकरण हुआ तथा  इसी प्रकार बड़ी संख्या में निजी बैंकों का भी  राष्ट्रीयकरण किया गया लेकिन बीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में फिर से धीरे धीरे इन सबका निजीकरण होने के आसार बन रहे हैं। इस उथल-पुथल से ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं बचे खुचे सार्वजनिक उपक्रम निजी क्षेत्र में ना चले जाए । अभी भी मूलभूत आवश्यकता वाले सार्वजनिक उपक्रम जो निजी क्षेत्रों की होड़ में पिछड़ रहें हैं जिसमें शिक्षा, चिकित्सा, रेलवे, विमान परिवहन आदि आंशिक शेष रहे हैं । वर्तमान में आंशिक रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण वह अतिआवश्यक उपक्रम है जहां करोड़ों की तादाद में मध्यम वर्ग व पिछड़ी आबादी के लोग सीधा लाभ ले रहे है। अगर अभी भी इन्हें निजीकरण से नहीं बचाया तो आने वाली पीढ़ियों के लिए मुश्किलें बढ़ जाएगी। भविष्य में निजीकरण की गर्त में वे ही मध्यम व पिछड़े वर्ग आने वाले है जिनके ही लोग आज निजीकरण से अर्थव्यवस्था की मजबूती देख रहे हैं और निजीकरण का समर्थन कर रहे हैं। तथा सार्वजनिक उपक्रमों से दूर जाकर इनकी कार्यप्रणाली और विकास में असहयोग दे रहे हैं। इसलिए समय रहते निजीकरण से देश को बचाना चाहिए क्योंकि इसी में हमारी आने वाली पीढ़ियों की सुख-सुविधाएं और आर्थिक आधार निहित है।
हालांकि निजीकरण से प्राइवेट सेक्टरों में रोजगार,उत्पादन क्षमता , सेवा आदि में गुणवत्ता जरूर आती है लेकिन इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह कि गरीब लोग ओर भी गरीब  तथा अमीर ओर भी अमीर होते जायेंगे। उद्योगपति एवं निजी कंपनियां अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर लेगी। मंहगाई बढ़ेगी , उत्पादन तथा सेवा क्षेत्रों में गरीब आबादी पिछड़ जाएगी। इसलिए अगर सार्वजनिक क्षेत्रों की कार्यप्रणाली में सुधार कर यहां की नौकरशाही ईमानदारी और लगन से काम करें तो लोकतांत्रिक भारत की गरीब व मध्यम वर्गीय  जनता एक बार फिर  जनकल्याण एवं समाजवाद की तर्ज पर चलकर  पूंजीवाद की चपेट से बच सकती है। इसके लिए देश के नागरिकों को भी सार्वजनिक उपक्रमों में निष्टा रखनी होगी सहयोग देना होगा ताकि यह क्षेत्र घाटे में चलकर देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर ना करें। साथ ही विभिन्न सरकारों को भी चाहिए कि वे संतुलित एवं महत्वपूर्ण सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण नहीं करें बल्कि उनमें नवाचार लाकर ओर भी समृद्धशाली बनाएं ।

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