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भारत की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले प्रतीकात्मक फोटो जागृतिपथ |
सावित्रीबाई का जीवन परिचय एवं उनका संघर्ष
First female teacher Savitribai Phule
भारतीय इतिहास में नारी शक्ति का स्थान बहुत ऊंचा है क्योंकि भारतीय नारी ने समाज और देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए हैं जिससे लिए आज उनको सम्मान से याद किया जाता है। भारत में एसी कई महान नारियों हुई जो तात्कालिक परिस्थितियों में अंधविश्वास,जूल्म तथा कुरीतियों से डट कर लड़ी थी। मातृभूमि की रक्षा की बात हो या किसी मुसीबत से जूझने की बात भारत की नारी कहीं पीछे नहीं है। रानी लक्ष्मीबाई जैसी महान नारियों ने देश की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में भी संघर्ष किया था।
इसी कड़ी में सबसे पहला नाम आता भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को जो भारत की एक महान समाज-सुधारिका एवं मराठी कवयित्री थीं। उन्होने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर स्त्रियों के अधिकारों एवं शिक्षा के लिए जो विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष किया वो बहुत असाधारण एवं विचित्र था। सावित्रीबाई फूले भारत के प्रथम कन्या विद्यालय में प्रथम महिला शिक्षिका थीं। सावित्रीबाई को आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत माना जाता है। 1852 में उन्होने अछूत बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी। उस समय अछूत तबकों की हालत बहुत दयनीय थी। ऐसे समय में सावित्रीबाई का यह कार्य काबिले तारीफ था जो उस समय दलित समाज के लिए बहुत बड़ी उद्धारक बनी थी।
सावित्रीबाई का जीवन परिचय
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था। सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली प्रधानाचार्य और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। सावित्रीबाई ने अपने जीवन को एक मिशन की तरह से जीया जिसका उद्देश्य विभिन्न प्रकार की कुरीतियों से महिलाओं को मुक्त करवाना था। जिसमें विधवा विवाह करवाना, छुआछात मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना।
सावित्रीबाई का जीवन संघर्ष और सामाजिक उत्पीड़न
सावित्रीबाई का जीवन बहुत संघर्ष और उत्पीड़न भरा तथा उसके साथ जातिगत भेदभाव तथा धार्मिक मान्यताओं के आधार पर छुआछूत जैसी कूरीति ने सावित्री के जीवन में बहुत अड़चनें पैदा की थी। सावित्रीबाई जब स्कूल जाती थीं, तो लोग पत्थर मारते थे तथा उन पर गंदगी और कीचड़ फेंक देते थे। आज से 150 साल पहले बालिकाओं के लिये जब स्कूल खोलना अनूचित काम माना जाता था तो हम कल्पना कर सकते हैं कि सावित्रीबाई ने कितनी सामाजिक मुश्किलों से लड़कर देश में एक बालिकाओं के लिए विद्यालय खोला होगा।
विद्यालयों की स्थापना और शिक्षण कार्य
1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ उन्होंने एक विद्यालय की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पाँच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी व्यवस्था पुणे जैसे शहरों में किया गया।
सावित्रीबाई फुले का निधन
10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग महामारी में सावित्रीबाई प्लेग के मरीज़ों की सेवा करती थीं। एक प्लेग के संक्रमण से प्रभावित बच्चे की सेवा करने के कारण इनको भी संक्रमण हो गया था और इसी कारण से उनकी मृत्यु हो गई थी।
प्रेरणा दायक व्यक्तित्व एवं सहनशीलता
सावित्रीबाई नायिका नही महानायिका थी क्योंकि उन्होंने निस्वार्थ हर धर्म तथा जाति के लोगों के लिए संघर्ष किया
जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर, विष्ठा तक फैंका करते थे। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं। इस वाकए को सुनकर हम कल्पना कर सकते हैं कि वाकई सावित्रीबाई कितनी सहनशील और कर्मठ थी जो इतनी प्रताड़ना सहने के बाद भी कभी आपा नहीं खोया और अपने संघर्ष के मैदान को नहीं छोड़ा। लेकिन आखिर में सावित्रीबाई ने वो मुकाम हासिल करने में सफल हो गई क्योंकि आज इतिहास उन लोगों को याद नहीं करता जो सावित्रीबाई को परेशान करते थे बल्कि सावित्रीबाई के नाम को बड़ी श्रद्धा और सम्मान से याद करता जो असल में पिछले लोगों के लिए फरिश्ता बन कर आयी थी।
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