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विश्व मानवाधिकार दिवस प्रतीकात्मक फोटो जागृति पथ |
World human rights day 10 December , विश्व मानवाधिकार आयोग की स्थापना, भारत में मानवाधिकार आयोग , स्थापना व कार्य, Human right in India
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में लगभग सभी देश लोकतांत्रिक व्यवस्था अपना चुके हैं कुछ बचे-खुचे इसकी जद्दोजहद में आज भी संघर्ष कर रहे हैं। मानव सभ्यता सनातन स्वतंत्रता और सुरक्षा के लिए कल्याणकारी राज्य के लिए प्रयासरत रही है। इक्कीसवीं सदी के आगमन में हम भौतिकवादी और राष्ट्रवादी दौड़ में मानव अधिकार और सुरक्षा के मामलों में संकट का सामना कर रहे थे। इसलिए मानव सुरक्षा व अधिकारों की रक्षा के हेतु अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं की स्थापना की गई। वर्तमान में मानवाधिकारों की रक्षा का विषय मजबूत होना प्राकृतिक न्याय तथा मानव हित का परिचायक है।
सामान्य जीवन यापन के लिए प्रत्येक मनुष्य के कुछ प्राकृतिक और संवैधानिक अधिकार होते हैं, जो आपसी समझ और नियमों द्वारा निर्धारित होते हैं। इसी विषय को मध्यनजर रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकार आयोग की स्थापना वर्ष1946-47 में आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् की एक कार्यात्मक समिति के रूप में की थी। इसी के अंतर्गत संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र को आधिकारिक मान्यता दी गई थी। लम्बे समय बाद 15 मार्च, 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक नई मानवाधिकार परिषद् के गठन का प्रस्ताव पारित किया। पुराने आयोग को 16 जून, 2006 को समाप्त कर नवीन मानवाधिकार परिषद का गठन किया गया । उल्लेखनीय है कि नई परिषद् स्थायी है तथा प्रत्यक्ष रूप से महासभा के अधीनस्थ है। यह कहीं भी एवं किसी भी देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन का गहन विश्लेषण कर सकेगी। इसका कार्य सार्वभौमिकरण, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता एवं सृजनात्मक अंतर्राष्ट्रीय संवाद के सिद्धांतों के अंतर्गत निर्देशित होगा इसे समय पर सभी एजेंसियों एवं निकायों को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी ताकि मानवाधिकार उल्लंघन को व्यवस्थापरक ढंग से रोका जा सके। ज्ञातव्य है कि भारत मानवाधिकार परिषद् का सदस्य देश है।
मानव अधिकार से तात्पर्य उन सभी अधिकारों से है जो व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं प्रतिष्ठा से जुड़े हुए हैं। हमारे देश में समाज के गरीब, अशिक्षित और कमजोर तबके के लोगों को अपने अधिकारों को प्रयोग की स्वतंत्रता एवं रक्षा हेतु PUCL या PUDR जैसी संस्थाओं के परिप्रेक्ष्य में 28 सितंबर, 1993 को मानव अधिकार कानून अमल में लाने के बाद 12 अक्टूबर, 1993 को 'राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग' का गठन किया गया।
भारतीय संविधान के भाग-तीन में मूलभूत अधिकारों के नाम से वर्णित किए गए हैं और न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है, जिसकी भारतीय संविधान रक्षा ही नही, बल्कि इसका उल्लंघन करने वालों को न्यायालय में सजा भी देता है। वर्तमान समय में देश में जिस तरह अधिकारों के हनन का माहौल आए दिन देखने को मिलता है ऐसे में मानवाधिकार और इससे जुड़े आयामों पर चर्चा महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
यद्यपि मानव अधिकार को लेकर भारत ही नहीं दुनियाभर के कई देश काम कर रहे हैं। मानव अधिकार के अंर्तगत वे सारे अधिकार हैं जो एक मानव को बुनियादी सुविधाएं और आज़ादी प्रदान करते हैं। देश में कई बार मानव अधिकार हनन के मामले भी सामने आए जिसमें मानव अधिकार विभाग ने काफी अच्छी भूमिका निभाई है। आयोग को प्रतिवर्ष हजारों शिकायतें मिलती हैं। इनमें से अधिकतर हिरासत में मृत्यु, हिरासत के दौरान बलात्कार, लोगों के गायब होने, पुलिस की ज्यादतियों, कार्यवाही न किये जाने, महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार आदि से संबंधित होती हैं। मानवाधिकार आयोग का सबसे प्रभावी हस्तक्षेप पंजाब में युवको के गायब होने तथा गुजरात दंगों के मामले में जाँच के रूप में रहा। वैसे आयोग को स्वयं मुकदमा सुनने का अधिकार नहीं है। यह सरकार या न्यायालय को अपनी जाँच के आधार पर मुकदमें चलाने की सिफारिश कर सकता है। मानव हितों और न्याय के लिए प्रयासरत इस आयोग को अब तक चुनौतीभरा सफर तय करना पड़ा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महाशक्ति राष्ट्रों में यह आयोग केवल परामर्शदाता के रूप में नजर आया तथा कभी कभी विभिन्न देशों के बीच शस्त्रीकरण की प्रतिस्पर्धा , सीमा पर झगड़े तथा छोटे बड़े युद्धों के दौरान मानवाधिकारों की रक्षा में आयोग को दुविधाओं का सामना करते हुए मूक उदासीन रहना पड़ा। हमारे देश में भी इस मामले में चुनौतियों की कमी नहीं रही है।
यद्यपि भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एक स्वायत्त विधिक संस्था है फिर भी भविष्य में शक्तिशाली सत्तासीन पार्टी के हाथ में कठपुतली न बन जाए यह एक बड़ी चुनौती होगी। सत्ताधारी दल द्वारा अपनी योजनाओं और निर्णयों में मानवाधिकार आयोग की निगरानी को नजरंदाज कर मात्र बेबस परामर्शदात्री संस्था में बदलने का खतरा भी है। साथ ही बढ़ती जनसंख्या में संसाधनों की कमी के दुष्प्रभाव यथा; अशिक्षा,गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, किसानों की दुर्गति, स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं, साईबर अपराध व सोशल मीडिया से जुड़ी घटनाएं,उपभोक्ताओं की समस्याएं, महिलाओं के साथ रेप की घटनाएं व शोषण,हिंसात्मक घटनाएं आदि अधिकार हनन के मामले मानवाधिकार आयोग के कार्यक्षेत्र की सीमाओं को बढ़ाने के साथ-साथ कठिन भी बना देते हैं। राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े मामलों तथा धार्मिक हिंसक घटनाओं में पुलिस और सैन्य बल की स्वतंत्र कार्रवाई की छूट को लेकर मानवाधिकार आयोग को लोगों से आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। तमाम आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए आज हमारे आबादी बहुल राष्ट्र में मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था को सर्वोपरि माना जाना चाहिए क्योंकि देश में धार्मिक, संप्रदायिकता, जातिगत हिंसाओं मेंं निर्दोष लोगों का शिकार होना आये दिन देखा जाता है। माॅबलिचिंग जैसे मामले भी सामने आये हैं तो कहीं पुलिस प्रशासन द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न की शिकायतें मिली हैं। हालांकि हमारा मानवाधिकार आयोग समय-समय पर मानव हित के लिए ढाल के रूप में उभर कर सामने आया है लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए मानव सभ्यता के अधिकारों के लिए मानवाधिकार आयोग को निष्पक्ष, स्वतंत्र और सार्वभौमिक रूप से अपने स्वरूप में मील का पत्थर साबित करना है जिसमें हमारी मानव सभ्यता सूरक्षित और भयमुक्त होकर फलीभूत हो सके।
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