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कृषि बिल 2020 |
हाल ही में लोकसभा में दो कृषि विधेयकों- ‘कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्द्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020’ और मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा विधेयक, 2020 को बहुमत से पारित कर दिया गया है। इन विधेयकों के पास होने के बाद पंजाब और हरियाणा के किसानों ने काफी विरोध भी किया लेकिन इसी बीच राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (President Ram Nath Kovind) ने सभी कृषि विधेयकों को अपनी मंजूरी दे दी है।बता दें कि राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद से ही ये तीनों कृषि विधेयक अब एक्ट यानि कानून बन गए हैं।गौरतलब है कि इस विधेयकों को कुछ दिनों पहले ही लोकसभा और फिर राज्यसभा में पास किया गया था।
हालांकि इन बिलों को लेकर विपक्षी पार्टियां बुरी तरह खफा हैं और पंजाब, हरियाणा समेत कई जगहों के किसान भी इन बिलों की मुखालिफत कर रहे हैं।किसानों को चिंता है कि उन्हें अपनी फसलों पर मिलने वाला एमएसपी (Minimum Support Price) खत्म होने का खतरा है। यहां तक कि इस बिल की खिलाफत में मोदी कैबिनेट मंत्रियों में शामिल पंजाब की विपक्षी पार्टी अकाली दल की आलाकमान हरसिमरत कौर ने इस्तीफा भी दे दिया है।
आइए जानते हैं इन तीन कानुनों के बारे में क्या भारत में किसानों की गंभीर समस्याओं के समाधान के लिए केवल कानून बनाने चाहिए या सीधे धरातलीय सहायता करके भारत के अन्नदाता का सहयोग करना चाहिए। वर्तमान में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं वे अपने कर्ज से दबे हैं बिजली के भारी बिल चुकाने में सक्षम नहीं हैं उन्हें उनकी फसल का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है ऐसे में यह बिल किसानों को कितना लाभ पंहुचाएगे? या किसानों को केवल कानूनी औपचारिकता से जकड़ देगे। हालांकि भारतीय किसान भारत के असली निर्माता है वे क़ृषि प्रधान देश की रीढ़ की हड्डी है तो सीधा सा सवाल है कि बिना किसी कानूनी दांव पेंच और राजनीति के किसानों को सीधा लाभ देने की जरूरत है उनके कर्ज माफ करने की जरूरत है उन्हें सस्ती से सस्ती दरों में लोन देने और आर्थिक सहायता देने की जरूरत है। तथा उनके खाद्य बीज, कृषि उपकरण आदि सस्ते दामों में उपलब्ध करवा के मानसिक रूप से स्वतंत्र और उत्साह के साथ खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए तो बेहतर है । बिना किसी बिचोलियों से फसल विक्रय करने की छूट दी जाए।
अगर किसानों को उनकी फसलों के वाजिब दाम दिलवाने है तो कोई कानून नहीं बल्कि कालाबाजारी, मंडियों में व्यापारियों की बूरी नीतियों पर लगाम लगाने की जरूरत है जिससे बड़े बड़े व्यापारी किसानों को विवश कर के सस्ते दामों में फसल खरीद कर फिर बाजारों में ऊंचे दामों में बेचते हैं। लेकिन यह कानून दिखने में तो किसानों की प्रमुख समस्याआें को राहत देने वाले लग रहें हैं लेकिन भविष्य में किसानों को कोई नई समस्या उत्पन्न न हो जाए इसलिए इस कानून और मौजूदा किसानों की स्थिति तथा भविष्य के हालातों आदि का गहन विश्लेषण करना जरूरी है तथा किसानों को यह कानून भली भांति समझना जरूरी है।
इस कानुनों के बनने के बाद एम एस पी का पूरा ध्यान रखना जरूरी है क्योंकि यह उनकी फसल के कीमत की एक गारंटी है।
हालांकि माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नरेंद्र सिंह तोमर ने यह साफ शब्दों में कहा है कि किसानों को उनकी फसलों पर मिलने वाला MSP पूरी तरह से सुरक्षित है ।
आइए समझ लेते हैं कि एम एस पी क्या है?
एमएसपी वो राशी है जो सरकार हर फसल के सीजन से पहले कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइजेस (सीएसीपी,Commission for Agricultural Costs and Prices) की सिफारिश पर एमएसपी तय करती है। यदि किसी फसल की बहुत ज्यादा पैदावार हुई है तो उसकी बाजार में कीमतें कम होती है, तब एमएसपी उनके लिए तय कीमत का काम करती है। यह एक तरह से कीमतों में गिरने पर किसानों को बचाने वाली बीमा पॉलिसी की तरह काम करती है या उनकी फसल की कीमत की गारंटी है भले ही पैदावार अधिक होने से फसल के भाव गिर गये हो।
एम एस पी कब और कैसे हुई लागू?
1950-60 के दशक में किसान अपनी फसलों की बर्बादी को लेकर बहुत परेशान थे। फसलों की ज्यादा पैदवारी होने पर बाज़ार में उनको वाजिब कीमत नहीं मिल पाती थी। यहां तक कि उनकी लागत जिसमें खाद्य बीज, विद्युत बिल,मजदूरी आदि की भी पूर्ति नहीं हो पाती थी। जिसके बाद किसानों ने आंदोलन कर दिया जिसको देखते हुए साल 1965 में इसपर मुहर लगाई थी और 1966-67 में पहली बार गेहूं और धान का एमएसपी तय किया गया था। जिसमें किसी भी परिस्थिति में किसानों की फसलों के उचित दाम दिलवाने की सिफारिश थी तथा फसल नष्ट होने पर फसल के क्षेत्रफल के आधार पर मूआवजा दिया जाने लगा।नवीन कानून की विशेषताएं
•इस नये कानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी। अध्यादेश अनुमति देता है कि उपज का राज्यों के बीच और राज्य के भीतर व्यापार एपीएमसी एक्ट्स के अंतर्गत गठित मार्केट के बाहर भी किया जा सकता है।
•इस कानून को सरकार ने कांट्रैक्ट फार्मिंग के मुद्दे पर लागू किया है। इससे खेती का जोखिम कम होगा और किसानों की आय में सुधार होगा। समानता के आधार पर किसान प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि के साथ जुड़ने में सक्षम होगा।
•अध्यादेश के अनुसार व्यापार क्षेत्र में किसान उपज की इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग की अनुमति देता है।इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग और ट्रांज़ैक्शन प्लेटफॉर्म को तैयार किया जा सकता है ताकि किसान उपज को इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और इंटरनेट के जरिए खरीदा और बेचा जा सके तथा उसकी भौतिक रूप से डिलिवरी की जा सके।
•अध्यादेश के अंतर्गत कोई भी व्यापार करने पर राज्य सरकार किसानों, व्यापारियों और इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म्स से कोई बाजार फीस, सेस या प्रभार नहीं वसूलेगी।
•इस कानून के लागू हो जाने से किसानों के लिए एक सुगम और मुक्त माहौल तैयार हो सकेगा, जिसमें उन्हें अपनी सुविधा के हिसाब से कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की आजादी होगी और 'एक देश, एक कृषि बाजार' बनेगा।
क्यों जताई किसान यूनियन ने आपत्ति?
किसान संगठन ने राज्यसभा में बिना चर्चा के पास हुए बिल को देश की संसद के इतिहास में पहली दुर्भाग्यपूर्ण घटना बताया है। उन्होंने कहा कि अन्नदाता से जुड़े तीन कृषि विधेयकों को पारित करते समय ना तो कोई चर्चा की और ना ही इस पर किसी सांसद को प्रश्न करने का अधिकार दिया गया।
संगठन कि मांग है कि आज देश की सरकार पीछे के दरवाजे से किसानों के समर्थन मूल्य का अधिकार छीनना चाहती हैं, जिससे देश का किसान बर्बाद हो जाएगा।
मण्डी के बाहर खरीद पर कोई शुल्क ना होने से देश की मण्डी व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। सरकार धीरे-धीरे फसल खरीदी से हाथ खींच लेगी। फिर विवश किसान निजी खरीदारों की कठपुतली बन के रह जाएगा। मंडी के बाहर खरीदारी करने वाली कंपनियां बनेगी तथा वे अपनी जरूरत के मुताबिक फसल की डिमांड करेगी किसान इन खरीदारों को मजबूरन अपनी फसल को पेश करना पड़ेगा।
किसान को बाजार के हवाले छोड़कर देश की खेती को मजबूत नहीं किया जा सकता। इसके परिणाम पूर्व में भी विश्व व्यापार संगठन के रूप में मिले हैं। क्योंकि सीधे किसानों से फसल खरीदना तथा उनकी फसल पर आए खर्च तथा बर्बादी के समय या दुर्भाग्यपूर्ण किसी प्राकृतिक आपदा के समय बर्बाद हुई फसल और भारी लागत के लिए कौन जिम्मेदार होगा। बिना मंडी के फसल मूल्य की प्रतिस्पर्धा में कमी आएगी तथा फसल की गुणवत्ता अनुसार दाम तय करना या मंडी में फसल प्रदर्शन जैसी बातें खत्म हो जाएगी। तथा किसानों को अपनी जमीन अनुसार तथा विभिन्न प्रकार की फसल बोने की आजादी नहीं रहेगी। तथा किसान की हर फसल की खरीद की गारंटी जरूरी है यह जिम्मेदारी सरकार की है । नहीं तो बड़े बड़े खरीदार अपनी आवश्यकता अनुसार फसल खरीद लेंगे तथा लघु किसान अधिक मात्रा में उत्पन्न हुई फसल के अच्छे दामों के इंतजार में रहेगा। भंडारण मुख्य समस्या है फसल भंडारण के लिए भी सरकार को चिंता करनी चाहिए।
किसान संगठनों के कहां- 'सरकार को करना होगा समझौता
भारतीय किसान यूनियन ने कहा कि 'किसान अपने हक की लड़ाई में हार नहीं मानेंगे। वे सरकार से अपनी मांगों पर ध्यान केंद्रित करवाकर अन्नदाता की समस्याओं का समाधान करवायेंगे।
किसानों की यह थी मांगे
किसान बिलों से जुड़े अध्यादेशों को तुरंत वापस लिया जाए (1) कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवा पर करार अध्यादेश 2020 (2) कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अध्यादेश 2020 (स) आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन अध्यादेश 2020 कृषि और किसान विरोधी तीनों अध्यादेशों को तुरंत वापिस लिया जाए।
दूसरी महत्वपूर्ण मांग
एमएसपी (MSP) पर कानून बने
न्यूनतम समर्थन मूल्य को सभी फसलों पर (फल और सब्जी) लागू करते हुए कानून बनाया जाए। समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसल खरीदने को अपराध की श्रेणी में शामिल किया जाए।
तीसरी मांग-
सरकारी मंडी और फसल खरीदी का कानून बने
मण्डी के विकल्प को जिन्दा रखने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं एवं फसल खरीद की गारंटी के लिए कानून बनाया जाए। कानून में ये स्पष्ट हो कि प्राइवेट मंडियों की अधिकता हो जाने पर भी सरकारी मंडियां बंद नहीं होंगी बल्कि प्रतिस्पर्धा की भावना से किसानों के हित में काम करती रहेंगी।
किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर डरे हुए क्यों हैं ?
किसानों को यह डर सता रहा है कि कहीं यह कानून लागू होने के बाद उनकी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गाज गिर जाएगी। प्राइवेट खरीदारों का दबदबा बन गया तो उनकी समस्याओं का समाधान कैसे होगा। सरकारी मंडी बंद हो जाएगी तो उनकी फसल के क्रय की गारंटी तथा फसल बर्बादी में सहायक कौन होगा। प्राइवेट मंडियों के अधिक खुल जाने से फसल क्रय की प्रतिस्पर्धा होगी जिसमें किसानों को सस्ते दामों में मजबुरन फसल बेचनी पड़ेगी। तथा किसानों की जमीन और फसल उगाने की स्वतंत्रता नहीं रह जाएगी। मतलब किसान बंधुआ मजदूर बन कर रह जाएगा।
मोदी सरकार का स्पष्टीकरण
समझौते से किसानों को पहले से तय दाम मिलेंगे लेकिन किसान को उसके हितों के खिलाफ नहीं बांधा जा सकता है। किसान उस समझौते से कभी भी हटने के लिए स्वतंत्र होगा, इसलिए लिए उससे कोई पेनाल्टी नहीं ली जाएगी।बिल में साफ कहा गया है कि किसानों की जमीन की बिक्री, लीज और गिरवी रखना पूरी तरह प्रतिबंधित है। समझौता फसलों का होगा, जमीन का नहीं।किसान बिल से किसानों को आजादी मिलती है। अब किसान अपनी फसल किसी को भी, कहीं भी बेच सकते हैं। इससे 'वन नेशन वन मार्केट' स्थापित होगा। बड़ी फूड प्रोसेसिंग कंपनियों के साथ पार्टनरशिप करके किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकेंगे।
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किसान बिल 2020 |
असल में सरकार को अन्नदाताओं के लिए क्या करने की जरूरत है-
भारत कृषि-प्रधान देश है। साथ ही दुनिया की सम्पूर्ण आबादी के लिहाज से दूसरे पायदान पर है। देश की विशाल जनसंख्या को खाद्यान्न उपलब्ध करवाने में किसान पिछड़ने लगा है।
यह किसान कृषि-कार्य करके अपना ही नहीं, अपने देश का भी भरण-पोषण करते है। गांवों में अधिकांश किसान ही बसते हैं। यही भारत का अन्नदाता है। यदि भारत को उन्नतिशील और सबल राष्ट्र बनाना है तो पहले किसानों को समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाना होगा। किसानें की उपेक्षा करके तथा उन्हें दीनावस्था में रखकर भारत को कभी समृद्ध और ऐश्वर्यशाली नहीं बनाया जा सकता।
आज के समय में कृषि योग्य भूमि की लगातार कमी होना तथा किसानों का कृषि के प्रति रुझान कम होना चिंता का विषय है। देश में बढ़ती जनसंख्या और शहरीकरण से कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण हो रहा है । भारत जैसे विशाल भू-भाग वाले राष्ट्र में अब भी कृषि योग्य भूमि की कमी नहीं हैं अगर इसका वैज्ञानिक और तकनीकी तौर पर प्रयुक्त किया जाए। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती हैं कि किसानों का कृषि कार्य में लगातार गिरावट आना ।
किसान अन्य व्यवसाय का चुनाव करके शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं । दिल्ली, मुम्बई आदि बड़े शहरों में जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। इन बड़े शहरों को एक दिन में कितनी मात्रा में खाद्यान्न की आवश्यकता है? हम कल्पना कर सकते हैं। इसी तरह शहरों में आबादी बढ़ती जाएगी तो उनके लिए भोजन की आपूर्ति का संकट उत्पन्न हो जाएगा। गांवों में लोग खेती करते तो हैं, लेकिन खाद्य उत्पादन सिर्फ उनके स्वयं लिए पर्याप्त होता है। ऐसे में देश की सम्पूर्ण आबादी में खाद्यान्न उपभोक्ताओं की तुलना में उत्पादकों की संख्या बहुत कम है। खाद्य संकट का यह सबसे बड़ा कारण है। इसका सबसे बड़ा कारण किसानों में असंतोष और उनकी दयनीय स्थिति है।
यह बहुत दुख की बात है लेकिन यह सच है कि भारत में किसानों की आत्महत्या के मामलों में पिछले कुछ वर्षों में वृद्धि हुई है। इन आत्महत्याओं के पीछे कई कारण हैं जिनमे प्रमुख है अनियमित मौसम की स्थिति, ऋण बोझ, परिवार के मुद्दों तथा समय-समय पर सरकारी नीतियों में बदलाव। आजादी के बाद किसानों के सामने उन्नत तकनीक और संसाधनों की कमी थी। आज संसाधनों की उपलब्धता होते हुए भी खाद्यान्न उत्पादन और इनकी गुणवत्ता का खतरा मंडरा रहा है।
आज हमारे सामने खाद्यान्न संकट गहरा रहा है, इस संकट से उबरने के लिए हमारी ढाल सिर्फ किसान ही है और किसानों की ही स्थति को अनदेखा करते रहेंगे तो इससे बड़ी कोई भूल नहीं होगी।
स्वतंत्र भारत से पूर्व और स्वतंत्र भारत के पश्चात् एक लम्बी अवधि बीतने के बाद भी भारतीय किसानों की दशा में कोई सुधार दिखाई नहीं देता है। जिन अच्छे किसानों की बात की जाती है, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है। बढ़ती आबादी, औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण कृषि योग्य क्षेत्रफल में निरंतर गिरावट आई है। कृषि प्रधान राष्ट्र भारत में लगभग सभी राजनीतिक दलों का कृषि के विकास और किसान के कल्याण के प्रति नरम रवैया ही रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किसानों को भारत की आत्मा कहा था। बावजूद इसके किसानों की समस्याओं पर ओछी राजनीति करने वाले ज्यादा और उनकी समस्याओं की तरफ ध्यान देने वाले कम हैं।
चुनावी दौर में विभिन्न राजनीतिक दलों की जुबान से किसानों के लिए हितकारी बातें अन्य मुद्दों के समक्ष निम्न हो जाती हैं। जिस तरह से तमाम राजनीतिक दलों से लेकर मीडिया मंचों पर किसानों की दुर्दशा की बातें होती है, उसमें समाधान की शायद ही कोई चर्चा होती है। इससे यही लगता है कि यह समस्या वर्तमान समय में सबसे अधिक छोटा विषय बनकर रह गयी है। भारत में प्रतिवर्ष कई किसानों की मौत का कारण फसल संबंधित बैंकों का कर्ज न चुकता कर पाने के दबाव में आत्महत्या करना है। यही नहीं, हमारे देश के लाखों किसान बढ़ती महंगाई को लेकर भी परेशान हैं, क्योंकि इसका सीधा नुकसान किसानों की स्थिति पर पड़ता है।
आज किसानों को सबसे बडी मार संसाधनों की मंहगाई से पड़ती है। डीजल, पेट्रोल आदि ईंधन की दरों में बढ़ोतरी तथा कृषि उपकरणों के आसमान छूते मुल्य किसानों में निराशा उत्पन्न कर रहे हैं।
हरित क्रांति के बाद कृषि उत्पादन में वृद्धि तो हासिल की लेकिन रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में भी अवांछित बढ़ोतरी हुई है।
इस तरीके से येन-केन प्रकारेण खाद्यान्न तो उपलब्ध हों जाएगा लेकिन स्वास्थ्य से समझौता करना पड़ेगा।
इसलिए अनाज,फल आदि खाद्य उत्पादों को प्राकृतिक रूप से उत्पादन करना होगा।जिसके लिए किसानों की संख्या में बढ़ोतरी और उनके हौंसले बुलंद करने होंगे।
शहरीकरण को धीमा करके कृषि योग्य भूमि के क्षेत्रफल में वृद्धि करनी होगी। गौरतलब है कि भूमि का बड़ा हिस्सा बाढ़, औद्योगिक क्षेत्र के प्रदुषित जल , गंदगी आदि से प्रभावित होकर बंजर रह जाता है। सीमांत किसानों और गांव के छोटे-बड़े कृषकों के पास उपजाऊ जमीन का क्षेत्रफल निरंतर कम होता जा रहा है। विभिन्न सरकारों उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की और उन्हें सफलता भी मिली लेकिन कम क्षेत्र में अधिक उत्पादन सिर्फ रासायनिक जहर से किया जाने लगा है। जो कैंसर जैसी बिमारियों को बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं। इस तरह की खाद्यान्न आपुर्ति हमें मजबूरन स्वीकार करनी पड़ती है। हमें हमारे अन्नदाताओं को जहर बौने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। किसानों के लिए क्या करना चाहिए यह सब हम हर अखबार या अन्य लेखों में पढ़ते हैं, मिडिया से सूनते हैं, देखते हैं। किसानों के हित के लिए कार्यों को इस लेख में गिनाना नहीं चाहूंगा।
खाद्य संकट की विकराल समस्या से निजात पाने के लिए हमारे पास एक मात्र विकल्प है कि हमारे देश में किसानों की संख्या में कमी नहीं हो, किसानों में असंतोष व्याप्त नहीं हो। आज किसान दिन-रात मेहनत करता हैं लेकिन साल के अंत में उसकी आमदनी और बचत किसी कारखाने में आठ घंटे काम करने वाले एक मजदूर से कम होती है। यहां से हमारे किसान का हौसला टूट जाता है। यहां तक कि कुछ सीमांत किसान अपने परिवार का भरण-पोषण करने में अक्षम हो जाते हैं। किसानों की स्थिति में सुधार की जरूरत कहां और किस तरह से है इस बात को केवल दो लाइनों में व्यक्त करना चाहूंगा। हमारे अन्नदाता को ऐसी परिस्थितियों की जरूरत हैं जिससे वह बिना बोझ के आत्मविश्वास,लगन,उत्साह से खेती करें।
उनकी तमाम बाधाओं को भले ही परिवार की आर्थिक स्थिति की समस्या हो या कर्ज हो , फसल बर्बाद का नुक़सान हो आदि के लिए सरकार को उसके साथ खड़ा होकर उसे मानसिक, शारिरिक, सामाजिक, आर्थिक रूप से मजबूत करना होगा।
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