भगवान गौतम बुद्ध जयंती वैसाख बुद्ध पूर्णिमा विश्व गुरु तथागत का जीवन वृत्तांतJagriti PathJagriti Path

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Wednesday, May 6, 2020

भगवान गौतम बुद्ध जयंती वैसाख बुद्ध पूर्णिमा विश्व गुरु तथागत का जीवन वृत्तांत

Lord Buddha
Lord Buddha


7 मई  वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को बुद्ध पूर्णिमा के साथ-साथ वैसाख पूर्णिमा का त्यौहार मनाया जाता है। पुरातन मान्यता  के अनुसार इस दिन का बेहद महत्व है। इसी दिन भगवान गौतम का जन्म हुआ था। इसी दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति भी हुई थी।  कुछ मान्यताओं के अनुसार यह  भगवान विष्णु के नौवें अवतार माने जाते हैं।  इस दिन को बहुत ही पावन माना जाता है। 
वर्ष 2020 की यह बुद्ध पूर्णिमा या भगवान बुद्ध  गौतम बुद्ध की 2582वीं जयंती मनाई जाएगी।
बुद्ध पूर्णिमा के शुभावसर पर मंदिरों में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है| सभी बुद्ध की प्रतिमा का जलाभिषेक करते है और फल, फूल, धुप इत्यादि चढाते हैं| बौध श्रद्धालु इस दिन ज़रुरतमंदों की सहायता करते हैं और कुछ श्रद्धालु इस दिन जानवरों-पक्षियों को भी पिंजरों से मुक्त करते है और विश्वभर में स्वतंत्रता का सन्देश फैलाते हैं| 
जानते हैं भगवान गौतम बुद्ध का जन्म परिचय और उनके संदेश
 जन्म एवं बचपन-बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु से 14 मील दूरी पर अवस्थित, लुम्बिनी वर्तमान रूम्मिनदेई वन में हुआ था, जो नेपाल की तराई में है। महात्मा बुद्ध का जन्म नाम सिद्धार्थ था। गौतम गोत्र से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें गौतम भी कहा जाता है। इनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के प्रधान थे। बुद्ध की माता का नाम महामाया था, जो कोलिय गणराज्य की राजकन्या थी। बुद्ध के जन्म के सातवें दिन माता महामाया का निधन हो गया। उसके बाद बुद्ध का लालन-पालन उनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। कहा जाता है कि बद्ध के जन्म पर कालदेवल नामक तपस्वी एवं भविष्यवेत्ता ब्राह्मण कौण्डिन्य ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बड़ा होकर एक चक्रवर्ती शासक या महान् संन्यासी बनेगा।
भगवान बुद्ध एवं महाभिनिष्क्रमण- शद्धोदन के प्रयासों के बावजूद सिद्धार्थ बचपन से ही चिंतनशील रहने लगे। पिता द्वारा रास-रंग में बांधे रखने के प्रयास सफल नहीं हो पाये। उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में कोलिय गणराज्य की रूपलावण्यमयी राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया गया। कहीं-कहीं उनकी भार्या का नाम गोपा या बिम्बा भी दिया गया है। विवाह के 12 वर्ष पश्चात् उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल रखा गया। राहुल के जन्म का समाचार सुनकर गौतम ने कुछ विचलित भाव से कहा आज मेरे बन्धन की श्रृंखला में एक कड़ी और जुड़ गई।'
लगभग 13 वर्ष तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक प्रवृत्तियों में नहीं लग सका। सिद्धार्थ के मन में वैराग्य भावना बढ़ती जा रही थी। बौद्ध साहित्य में ऐसी अनेक घटनाओं और दृश्यों के उल्लेख मिलते हैं, जिनसे सिद्धार्थ की चिन्तनशील प्रवृत्ति को नई दिशा मिली | बौद्ध साहित्य के अनुसार, नगर भ्रमण के दौरान भिन्न-भिन्न अवसरों पर सिद्धार्थ ने मार्ग में पहले जर्जर शरीर वृद्ध , फिर व्यथापूर्ण रोगी, फिर मृतक और अन्त में प्रसन्नचित संन्यासी को देखा। इन दृश्यों को देखकर सिद्धार्थ को पक्का विश्वास हो गया कि संसार दुःखों का घर है और यह शरीर, यौवन और सांसारिक सुख क्षणिक हैं। धीरे-धीरे सिद्धार्थ के मन में वैराग्य का विचार दृढीभूत हो गया। इसी वैराग्य भावना ने उन्हें तृष्णा की जंजीर को तोड़ने, अज्ञान का कोहरा दूर भगाने तथा अपनेपन की मिथ्या-मति को मिटाने की प्रेरणा प्रदान की तथा एक रात्रि को अपने पुत्र, पत्नी और पिता तथा सम्पूर्ण राज्य वैभव को त्यागकर वे ज्ञान की खोज में निकल पड़े। उनके जीवन की इस घटना को बौद्ध धर्म एवं साहित्य में 'महाभिनिष्क्रमण' के नाम से पुकारा जाता है।  उस महाभिनिष्क्रमण की रात्रि को वह अपने घोड़े कंथक पर 30 योजन दूर निकल गये और गोरखपुर के समीप अनोमा नदी के तट पर उन्होंने अपने राजसी वस्त्रे उतार दिये और तलवार से अपने राजसी बाल काट डाले एवं अपने आभूषण तथा राजसी वस्त्र एक साधारण किसान का देकर स्वयं उसके वस्त्र धारण कर लिये। निश्चय ही अमावस्या की वह रात्रि अपने आगोश में अनेक विचारों एवं द्वद्वों को समेटे हुए होगी क्योंकि दुनिया में मानव जाति के लिए व्याकुल कोई व्यक्ति राजसी ठाट-बाट को छोड़कर एक बड़े उद्देश्य के लिये जंगल की ओर निकल रहा था।
 गौतम बुद्ध और सम्बोधि- ज्ञान की खोज में गौतम एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगे। सबसे पहले उनका सम्पर्क वैशाली के समीप आलार कालाम नामक तपस्वी से हुआ, जो साख्य दर्शन का विद्वान था। आलार कालाम के आश्रम में रहकर गौतम ने साधना कार्य किया लेकिन उन्हें शाति नहीं मिली। इसके बाद वे घूमते हुए राजगह के निकट रुद्रक रामपुत्त नामक आचार्य के आश्रम में पहुँचे, जो योग की शिक्षा प्रदान करते थे। वहाँ रहकर भी गौतम को सन्तीष नहीं मिला। यहाँ से वे उरुवेला की सुरम्य वनस्थली में आये और तपस्या में लीन हो गये। यहाँ उन्हें कौण्डिन्य आदि पाँच ब्राह्मण साधक संन्यासी भी मिल गये। अपने इन ब्राह्मण साथियों के साथ वे उरुवेला में कठोर तपस्या करने लगे। गौतम ने तपस्या को अधिक कठोर कर आहार का भी त्याग कर दिया, जिससे उनका शरीर निश्चल एवं शक्तिविहीन-सा हो गया, लेकिन उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। ऐसी जनश्रुति है कि एक दिन नगर की कुछ स्त्रियां गीत गाती हई उस ओर से निकली, जहाँ सिद्वार्थ तपस्यारत थे। उनके कान में स्त्रियों का एक गीत पड़ा, जिसका भावार्थ था, "वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ो। ढीला छोड़ देने से उनसे सुरीला स्वर न निकलेगा। परन्तु तारों को इतना भी मत कसो, जिससे वे टूट जाये।" कहते है कि सिद्वार्थ के हृदय में गीतों के भावों का गहरा असर पड़ा। यहीं से उन्हें जीवन में मध्यम मार्ग का दर्शन-ज्ञान हुआ। उन्होंने जान लिया कि योग साधना में हल्का आहार बाधक नहीं है। अतः गौतम ने पुनः अन्न ग्रहण करना प्रारम्भ कर दिया। उन्हें ऐसा करते देख उनके पाँच ब्राह्मण साथियों ने नाराज होकर कहा कि 'गौतम भोगवादी है। वह अपने पथ से भ्रष्ट हो गया है। ऐसा कहकर वे गौतम का साथ छोड़कर चले गये।
उरुवेला से गौतम गया चले आए और वहीं एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गये। सात दिन अखण्ड समाधि में स्थित रहने के बाद आठवें दिन वैशाखी पूर्णिमा की रात को उन्हें सम्बोधि I (आन्तरिक ज्ञान) प्राप्त हुई और अब वे बुद्ध (जिसे ज्ञान प्राप्त हो) के नाम से विख्यात हुए। अब वे तथागत जिसने सत्य को जान लिया बौद्ध के नाम से भी जाने गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोट । प्राप्त हुआ था, उसका नाम बोधिवृक्ष पड़ा। गया अब बोधगया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस घटना के बाद भी महात्मा बुद्ध चार सप्ताह तक उसी बोधिवृक्ष के नीचे रहे और धर्म के स्वरूप का चिन्तन करते रहे।
धर्म-चक्र-प्रवर्तन- बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् पीडित मानवता के उद्धार के लिए ज्ञान का सबको उपदेश देने का निश्चय किया। वे गया से सारनाथ (बनारस) पहुँचे और वहाँ उन्होंने सर्वप्रथम धर्म का उपदेश उन ब्राह्मण साथियों को दिया, जो उन्हें गया में छोड़कर चले गये थे। बौद्ध साहित्य में प्रथम धर्म उपदेश की यह घटना 'धर्म-चक्र-प्रवर्तन' (धर्मरूपी चक्र का चलना) कहलाती है। चक्र शब्द यहाँ धर्म के चक्रवर्ती साम्राज्य का प्रतीक है।
इसके बाद महात्मा बुद्ध काशी पहुँचे। वहाँ का एक धनिक व्यक्ति यश महात्मा बुद्ध का शिष्य एवं बौद्ध भिक्षक हो गया और उसके परिवारजन भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये। शीघ्र ही महात्मा बुद्ध के शिष्यों की संख्या आठ हो गई। उन्होंने इन शिष्यों को धर्म प्रचार का दायित्व सौंपते हुए कहा- हे भिक्षुओं, आरम्भ में कल्याणकर, मध्य में कल्याणकर और अंत में कल्याणकर, इस धर्म का उपदेश करो। लोगों के हित के लिए, लोगों के कल्याण के लिए विचरण करो। एक साथ दो मत जाओ।"
काशी से बुद्ध उरुवेला पहुँचे, जहाँ काश्यप के नेतृत्व में अनेक ब्राह्मण पुरोहित बुद्ध के शिष्य बन गये। उरुवेला से अपने शिष्यों के साथ बद्ध राजगह पहुंचे, जहाँ मगध नरेश बिम्बिसार अपने अनुचरों के साथ बुद्ध के दर्शन एवं उनके उपदेश सचनने के लिए स्वयं उपस्थित हुआ। इसी समय सारिपत्र एवं मौदगल्यायन भी बुध्द के शिष्य बन गये। कुछ ही समय में बद्ध के शिष्यों की संख्या 60 हो गई। तब उन्होंने एक संघ की स्थापना की, जिनकी सहायता से लगभग 45 वर्षों तक बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया।
धर्म प्रचार करते हुए बुद्ध अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु पहुँचे। वहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। उसी समय उनका पुत्र राहुल एवं परिवार के अन्य सदस्य उनके शिष्य बन गये। यहाँ से तथागत वैशाली पहुँचे। वैशाली की विख्यात नगरवध आम्रपाली बुद्ध की शिष्या बन गई और उसने भिक्षुओं के निवास के लिए अपनी आम्रवाटिका प्रदान की। यहीं पर महात्मा बुद्ध ने महाप्रजापति गौतमी के विशेष आग्रह पर स्त्रियों को संघ में प्रवेश की स्वीकृति प्रदान की। इसके बाद कोसल जनपद की राजधानी श्रावस्ती पहुंचे। वहाँ का एक अत्यन्त धनी सेठ अनाथपिण्डक बुद्ध का अनुयायी बन गया। उसने राजकुमार जेत से बहुमूल्य जेतवन विहार खरीदा और उसे बौद्ध संघ को प्रदान किया। कौशल नरेश प्रसेनजित भी महात्मा बुद्ध की शरण में आ गया और उसने संघ के लिए पूर्वाराम नामक विहार बनवाया। कौशल जनपद में ही अंगुलिमाल नामक दुर्दान्त डाक उनका शिष्य बन गया।
बुद्ध जीवनपर्यन्त मगध, काशी, कौशल, वज्जि, मल्ल, वत्स, शाक्य, कोलिय,मोरिय, अंग आदि जनपदों में विचरते रहे और अपनी शिक्षाओं का प्रचार करते रहे। उन्होंने अपना सर्वाधिक समय कोसल जनपद में बिताया। अवंति राज्य में उन्होंने महांकच्चायन के नेतृत्व में अपने शिष्यों का एक दल भेजा था, जिसका वहाँ अभूतपूर्व स्वागत हुआ। 
महापरिनिर्वाण- अपने जीवन के अन्तिम दिनों में बुद्ध भ्रमण करते हुए मल्ल जनपद की राजधानी पावा पहुंचे। वहाँ उन्होंने चुन्द नामक व्यक्ति के यहाँ भोजन किया, जिसके बाद उन्हें अतिसार हो गया। इस कष्ट को सहन करते हुए वे कुशीनारा पहुँचे। यहाँ 483 ई.पू. में अस्सी वर्ष की अवस्था में, उन्होंने हिरण्यवती नदी के तट पर शरीर त्याग दिया। इस घटना को बौद्ध ग्रन्थों में 'महापरिनिर्वाण कहा जाता है। निर्वाण के पूर्व उन्होने भिक्षुओं को संबोधित किया आनन्द संम्भवतः तुमने ऐसा सोचा कि हमारे शास्त्र चले गए, अब हमारा शास्त्र नहीं हैं आनंद इसे ऐसा मत समझना मैनें जो धर्म और विनय उपदेश किये है, प्रज्ञप्त किये हैं, मेरे बाद वे ही तुम्हारे शास्त्र होगें इसलिए आनंद आत्मदीप, आत्मशरण,अनन्यशरण, धर्मदीप, धर्मशरण होकर विहरो!(महापरिनिब्बान सुत्त दीर्घानिकाव्य) 
बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ एवम सिद्धान्त चार आर्य सत्य 1 दुःख 2 दुःख समुदय 3 दुःख निरोध 4 दुख निरोध मार्ग
अष्टान्गिक मार्ग
1 सम्यक  दृष्टि  2 सम्यक संकल्प  3 सम्यक वाणी  4 सम्यक कर्मान्त 5 सम्यक  आजीव 6 सम्यक  व्यायाम 7 सम्यक स्मृति  8 सम्यक  समाधी
बौद्ध धर्म के ग्रन्थ 1 विनय पिटक 2 सूत पिटक 3 अभिधम्म पिटक 

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