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Monday, April 6, 2020

महावीर जयंती विशेष परिचय जन्म जैनधर्म शिक्षाएं, सिद्धांत त्रिरत्न, अणुव्रत

 
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भगवान वर्धमान  महावीर हमारे जीवन आदर्श


हिंदु पंचांग के अनुसार  जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर का जन्म चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है। इस साल यह 6 अप्रैल सोमवार के दिन मनाया जा रहा है। 
महावीर का जन्म 599 ई.पू. के लगभग वैशाली के निकट कुण्डग्राम (मुजफ्फरपुर जिला, बिहार) में हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक क्षत्रियों के संघ के प्रधान थे, जो वज्जिसंघ का एक प्रमुख सदस्य था। उनकी माता त्रिशला वैशाली के लिच्छवि कुल के प्रमुख चेटक की बहन थी। इस प्रकार मातपक्ष से वे मगध के हर्यक राजो-बिम्बिसार के निकट सम्बन्धी थे। महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था। इनका पालन-पोषण राजसी ठाठ-बाट से हुआ। जैन धर्म की एक परम्परा के अनुसार युवावस्था में महावीर का विवाह कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ हुआ। उससे उन्हें अणोज्जा (प्रियदर्शना) नाम की पुत्री उत्पत्र हुई। कालान्तर में उनका विवाह जामालि के साथ हुआ। वह  प्रारम्भ में महावीर का शिष्य बना किंतु उसने ही जैन धर्म में प्रथम भेद उत्पन्न किया।
कल्पसूत्र में कहा गया कि वर्द्धमान के जन्म के समय ज्योतिषियों ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बड़ा होकर चक्रवर्ती राजा बनेगा या महान संन्यासी। कालान्तर में यह भविष्यवाणी सच साबित हुई। वर्द्धमान ने निवृत्ति का मार्ग अपनाकर इतिहास रच दिया। ऐसा होना स्वाभाविक था क्योंकि वर्द्धमान प्रारम्भ से ही चिंतनशील थे। जब वे 30 वर्ष के हुए तो उनके पिता का देहावसान हो गया। तत्पश्चात वर्द्धमान ने अपने बड़े भाई नन्दिवर्द्धन की आज्ञा लेकर गृह त्याग दिया आर सत्य एव मन की शान्ति की खोज में निकल पडे। गृह त्याग के पश्चात् वद्धमान कठोर साधना, काया-क्लेश एवं तपश्चर्या का जीवन व्यतीत करने लगे। आचारागसूत्र में उनके इस काल के जीवन के बारे में विस्तृत वर्णन किया गया है। उसके अनुसार, "प्रथम 13 महीनों में उन्होंने कभी भी अपना वस्त्र नहीं बदला। सभी प्रकार के जीव-जन्तु उनके शरीर पर रेंगते थे। तत्पश्चात् उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया तथा नग्न घूमने लगे।लोगों ने उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किये किन्तु उन्होंने अपना कभी धैर्य नहीं खोया। वे मौन तथा शान्त रहे।कल्पसूत्र ने उनकी तपस्या का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखा, "वे भोजन भी हथेली पर ही ग्रहण करने लगे। 12 वर्षों तक वे अपने शरीर की पूर्ण उपेक्षा कर सब प्रकार के कष्ट सहते रहे। उन्होंने संसार के समस्त 'बन्धनों का उच्छेद कर दिया। संसार से वे सर्वथा निर्लिप्त हो गये। आकाश की भाँति उन्हें किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं रही। वायु की भाँति वे निर्बाध हो गये। शरद् काल के जल की भाँति उनका हृदय शुद्ध हो गया।" 
12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् वर्द्धमान को 42 वर्ष की अवस्था में जम्भियग्राम के पास जुपालिका नदी के तट पर कैवल्य (शुद्धज्ञान) प्राप्त हुआ । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वर्द्धमान 'केवलिन', 'जिन' विजेताद्ध, 'अर्हत्' (योग्य) तथा निर्ग्रन्थ (बन्धन रहित) कहे गये। अपनी साधना में अटल रहने तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हें 'महावीर' नाम से सम्बोधित किया गया। उनके अनुयायी 'जैन' नाम से जाने गये।
कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् महावीर ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार प्रारम्भ किया। वे वर्ष में आठ महीने भ्रमण करते तथा वर्षा काल के चार महीने एक ही स्थान पर रहते। जिन नगरों में उन्होंने अपने उपदेश दिये उनमें चम्पा, वैशाली, मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती आदि थे। बिम्बिसार और अजातशत्रु उनसे कई बार मिले। वैशाली का लिच्छवि सरदार चेटक उनका मामा था तथा जैन धर्म के प्रचार में महावीर का सहायक रहा। ऐसा भी माना जाता है कि अवन्ति का प्रद्योत, चम्पा का दधिवाहन और सिन्धु-सौवीर का उदयन आदि राजा महावीर के श्रद्धालु थे। यद्यपि इनमें से कुछ राजा महात्मा बुद्ध के भी अनुयायी माने जाते हैं। भारतीय शासकों की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण ऐसा हुआ तो इसमें आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। जैन श्रुतियों के अनुसार, उनकी सत्यवाणी तथा जीवन के प्रति शाश्वत दृष्टिकोण के कारण हजारों लोग उनके अनुयायी हो गये। धीरे-धीरे उनकी ख्याति काफी बढ़ गई और दूर-दूर से लोग उनके उपदेश सुनने आने लगे। अन्त में 72 वर्ष की आयु में 527 ई.पू. में राजगृह के समीप पावापुरी ;बिहार शरीफ से 9 मील दूर उनने अपना शरीर त्याग दिया, जिसे जैन धर्म में निर्वाण कहा जाता है। उनके निर्वाण के समय उत्तरी एवं पूर्वी भारत का एक हिस्सा उनके प्रभाव क्षेत्र में आ गया था।
महावीर के ग्यारह मुख्य शिष्य या गणधर थे, जिन्होंने संघ को उपयुक्त रूप से अनुशासित रखा था। ये सभी गणधर ब्राह्मण थे, जो बिहार की छोटी-छोटी बस्तियों से आये प्रतीत होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर के जीवनकाल में जैनधर्म का प्रसार एवं विस्तार पश्चिम बंगाल बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में केन्द्रित रहा। इसका यह अर्थ नहीं है कि शेष स्थानों पर जैन ६ गर्म का अस्तित्व नहीं था। महावीर के संगठन, कौशल और उनके गणधरों की निष्ठा ने जैन संघ को सुव्यवस्थित बनाये रखा। यद्यपि आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक श्रावस्ती निवासी गोसाल मक्खलिपुत्त ने महावीर के लिए कुछ परेशानियाँ खड़ी की थीं परन्तु आजीवक सम्प्रदाय को अधिक समर्थन न मिल सका। इसी प्रकार महावीर के काल में बहुरय तथा जीवपएसिय नामक दो पृथक संघ अस्तित्व में आये, किन्तु वे भी अल्पकालीन रहे। अंत में दिगम्बर-श्वेताम्बर नामक संघभेद हुआ, जो महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग 300 ई.पू. में हुआ था। दिगम्बर-श्वेताम्बर नामक संघभेद ही ऐसा हुआ, जिसने जैन धर्म के विकास-क्रम, प्रसार क्षेत्र, मुनिश्चर्या और प्रतिमा-विज्ञान को प्रभावित किया।

जैन धर्म की शिक्षाएँ 

जैन धर्म का इतिहास निश्चय ही पुराना है। जैन धर्म में तीर्थंकरों की परम्परा का अपना इतिहास है। तीर्थंकर शब्द का तात्पर्य संसार रूपी सागर से ओरों को पार कराने के लिए घाट अथवा मार्ग बनाने वाला। 24 वें तीर्थंकर महावीर से जैन धर्म एक सशक्त धर्म एवं विचारधारा के रूप में प्रचारित हआ। जर्मन विद्धान याकोबी ने जैन शास्त्रीय ग्रंथों का अनुशीलन कर यह बताया कि 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह को अपने सिद्धान्तों का आधार बनाया था किन्तु महावीर ने इसमें अपना ब्रह्मचर्य का पाँचवा सिद्धान्त जोड़ा। पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की परन्तु महावीर ने उन्हें निर्वस्त्र रहने का उपदेश दिया। इस प्रकार महावीर ने जैन धर्म को अधिक कठोर बनाया।
महावीर ने सत्य को जानने में वेदों को प्रमाण नहीं माना। जैन मत में सृष्टि करने वाले किसी ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता। उनके अनुसार सृष्टि अनादि तथा अनन्त है और सृष्टि का क्रम एक प्रवाह के रूप में चलता रहता है। जैन धर्म में कर्मों का बड़ा महत्त्व है और वह मानता है कि व्यक्ति कर्मों के कारण ही बन्धन में पड़ता है। जैन धर्म किसी भी प्रकार के ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखता है। इस दृष्टि से उसे अनीश्वरवादी कहा गया है। वस्तुतः जैन धर्म एक ऐसा धर्म है, जो रूढ़ियों को अस्वीकृत करता है तथा वैज्ञानिक आधार पर सृष्टि जीवन, कर्म, बन्धन, मोक्ष आदि की व्याख्या करता है। जैन धर्म भी बौद्ध धर्म की तरह आचार-प्रधान कर्म है परन्तु यहाँ कठोरता एवं अनम्यता अधिक है। 

जैन धर्म के सात तत्व

जैन धर्म के अनुसार मोक्ष जीवन का परम लक्ष्य है और मोक्ष का अर्थ है-जीव की कर्मबन्धन से पूर्ण मुक्ति। यह समझाने के लिए कि जीव किस तरह कर्म से सम्बद्ध होता है और किस तरह से उससे मुक्त हो सकता है। जैन दर्शन सात तत्त्वों की योजना प्रस्तुत करता है। ये सात तत्त्व हैं-जीव, अजीव, बन्ध, आस्त्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष।

जीव-

जैन दर्शन समस्त जगत् को दो नित्य द्रव्यों में विभाजित करता है-जीव और अजीव । जीव चेतन द्रव्य है और अजीव अचेतन। चेतन जीव का विशिष्ट लक्षण है। (चैतन्य लक्षणो जीवः) जीव-अपने शुद्ध रूप में सर्वज्ञ और स्वयं प्रकाशवान है। वह चेतन तत्त्व आत्मा है। वह अनन्त, अपार और सर्वव्यापक है। जीव की यह जैन दर्शन की धारणा यद्यपि अन्य भारतीय दर्शनों की आत्मा की धारणा के समान ही है किन्तु जैन मत बहुसंख्यक जीवों की सत्ता में विश्वास करता है। इस प्रकार जैन मत में जीवों की संख्या अनन्त है और सब नित्य है। बन्धन की अवस्था में जीव तब पड़ता है, जब वह पुदगल या भूतद्रव्य से संयुक्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसका शुद्ध स्वरूप विलुप्त हो जाता है।

अजीव-

अजीव अचेतन है। अजीव को पुदगल (भूतद्रव्य) आकाश (स्थान), धर्म (गति की अवस्था), अधर्म (विश्राम की अवस्था) तथा काल (समय) में विभाजित किया जाता है। ये सब द्रव्य जीवन और चेतना से शून्य होते हैं। पुदगल का जैन धर्म में एक विशिष्ट अर्थ है। पुद्गल वह है, जिसे जोड़ा या तोड़ा जा सके। संसार की सभी वस्तएँ भत द्रव्य के अणुओं से मिलकर बना है। धर्म और अधर्म का अर्थ पुण्य या पाप नहीं अपितु गति और विश्राम की अवस्थाएँ हैं। प्रत्येक वस्तु कुछ स्थान घेरती है, जिसे आकाश कहा गया है। काल का अर्थ समय है।

बन्ध-

बन्धन से मुक्ति दिलाना जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य है। बन्धन का अर्थ है, जन्म या जीव चेतन तत्त्व है किन्तु शरीर धारण करने से वह बन्धन की अवस्था में आ जाता है। जाव अजीव द्वारा आवरण ही बन्धन है। जिस प्रकार प्रकाशमान मणि के ऊपर मिट्टी का आवरण चढ़ जान से उसका प्रकाश छिप जाता है उसी प्रकार अजीव का आवरण चढ जाने पर जीव का मूल स्वर छिप जाता है। कर्म ही वह कड़ी है, जो जीव को अपने शरीर से जोड़ती है। अतः कर्म ही बन्धन का कारण है। जैन धर्म में चार कषाय (चिपचिपे पदार्थ) बताए गये है-क्रोध, मान, लोभ और माया (भ्रम)। जब व्यक्ति अविद्या (सत्य का उचित ज्ञान न होना) और कषायों के प्रभाव में काय करता । तब कर्म के रूप में पुद्गल जीव की ओर आकृष्ट होते हैं और उसे आवृत कर लेते हैं। यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। "

आस्रव-

कर्म पुद्गल के जीव के ओर प्रवाह ही आस्रव है। दूषित मनोवेग एवं सत्य के ज्ञान के अभाव में कर्म पुदगल जीव की ओर खिंचते हैं। ऐसी अवस्था में जीव अपना मूल स्वरूप खोकर आवागमन के चक्र में फंस जाता है।

संवर एवं निर्जरा 

-मोक्ष के लिए आवश्यक है कि जीव को कर्म के बन्धन से मुक्त किया जावे। इसके लिए पहले तो नये कर्मों के आगमन को रोकना आवश्यक है। कृष्टों के न रहने पर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चरित्र के द्वारा यह सम्भव होता है। नए कर्मों के आगमन को रोकने की प्रक्रिया संवर कहलाती है। जैन धर्म पूर्व संचित कर्मों से छुटकारा दिलाने के बारे में भी सुझाव प्रस्तुत करता है। क्योंकि संचिता के विनाश के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। जैन धर्म में इस हेतु कठोर तप का मार्ग दर्शाया गया है। इसे निर्जरा कहा गया है।

मोक्ष

-साधना का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, जिसमें जीव और कर्म के सम्बन्ध का पूर्ण विच्छेद हो जाता है। जीव कर्म बन्धन के कारण ही भौतिक तत्त्व शरीर से बँधा है। भौतिक तत्त्व के पृथक होने पर जीव शुद्ध हो जाता है और उसे आत्मा में निहित ज्ञान का साक्षात्कार होने लगता है। इस भौतिक तत्त्व (कर्म पुद्गल) से आत्मा को मुक्त कर देना ही मोक्ष है।

जैन धर्म के त्रिरत्न 

सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक आचरण
 महावीर के अनुसार अणुव्रत पाँच होते हैं- (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य और (5) अपरिग्रह। जीवों की स्थल हिंसा के त्याग को अहिंसा कहते हैं।

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