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Friday, April 24, 2020

अप्रैल 24 महत्वपूर्ण दिन केशवानन्द भारती मामला संविधान का रक्षा कवच


Keshvanand bharati banam bharat sarkar
 केशवानंद भारती मामला संविधान का रक्षा कवच कैसे बना?



आज ही के दिन यानि 24 अप्रैल 1973 को ऐतिहासिक केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने अपने संवैधानिक रुख में संशोधन करते हुए कहा कि संविधान संशोधन के अधिकार पर एकमात्र प्रतिबंध यह है कि इसके माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद यह सिद्धांत अभी भी कायम है और जल्दबाजी में किए जाने वाले संशोधनों पर अंकुश के रूप में कार्य कर रहा है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में 68 दिन तक सुनवाई हुई, यह तर्क वितर्क 31 अक्टूबर 1972 को शुरू होकर 23 मार्च 1973 को खत्म हुआ। 24 अप्रैल 1973 को, चीफ जस्टिस सीकरी और उच्चतम न्यायालय के 12 अन्य न्यायाधीशों ने न्यायिक इतिहास का यह सबसे महत्वपूर्ण निर्णय दिया। 
आइए समझें कि यह फैसला भारत के संविधान संशोधन के लिए क्यो महत्वपूर्ण हैं और यह सविंधान का रक्षा कवच के रूप में किस तरह कार्य कर रहा हैं 

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सबसे पहले 1951 में शकरीप्रसाद बनाम भारत संघ वाले मामले संसदीय संशोधन शक्ति के प्रश्न पर विचार किया था, जिसमें सविधान के प्रथम सशोधन अधिनियम, 1951 पर आक्षेप किया गया था। इसे उच्चतम न्यायालय ने वैद्य घोषित करते हुए उक्त मामल मे यह निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 13(2) में 'विधि' शब्द के अन्तर्गत ऐसी 'साविधानिक विधि (सशोधन) नहीं आता है जो अनुच्छेद 368 के अधीन बनाई गई हो। उच्चतम न्यायालय ने अपने इस निर्णय की। पुष्टि 1965 में 'सज्जनसिंह बनाम राजस्थान राज्य' वाले मामले में की। किन्तु 1967 में ' गोलकनाथ और कुछ अन्य बनाम पजाब राज्य' वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने इस निर्णय को उलट दिया और यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 13(2) में 'विधि शब्द के अन्तर्गत 'साविधानिक विधि भी सम्मिलित है और संसद को अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान के भाग तीन में मूल अधिकारों को न्यून करने वाला या निराकृत करने वाला कोई भी संशोधन करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। तब से यह विषय अत्यन्त विवादास्पद बना रहा। 'गोलकनाथ वाले मामले में दिए गए निर्णय को प्रभावहीन करने हेतु ससद ने चौबीसवा, पच्चीसवां और उन्तीसवां संशोधन पारित कर दिया।
1973 में पूज्य श्री केशवानन्द भारती श्री पदगालवरू और कुछ बनाम केरल राज्य सर्वोच्च न्यायालय ने 'गोलकनाथ वाले मामले में दिये गये निर्णय को उलटते हुए यह विनिश्चय किया है कि संसद को मूल अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार प्राप्त  है। लेकिन माननीय न्यायाधिपतियों के बहुमत (छह के मुकाबले सात) ने उसमें एक शर्त जोड़ दी है। शर्त यह है कि संविधान का अनुच्छेद 368, जिसमें संसद को  सविधान में ऐसा संशोधन करने की  शक्ति प्रदान नहीं करता है जिससे कि संविधान की आधारभूत संरचना या आधारभूत' खाका अथवा 'मूलभूत तत्व' नष्ट हो जाए
 यद्यपि उसमें यह कया गया कि कोई विशिष्ट नामित संविधान के लक्षण उसके आधारभूत ढाचे का भाग  है। इस प्रकार बहुमत द्वारा संसद को संविधान में परिवर्तन करने के व्यापक अधिकार का सौपा जाना स्वीकार कर लिया गया था, जब तक कि ऐसे परिवर्तन उसके 'आधारभूत ढांचे के अन्तर्गत आते हैं। निस्सन्देह ही 'केशवानन्द भारती वाले मामले में पहली बार उच्चतम न्यायालय  से 'मूलभूत तत्व' अथवा 'आधारभूत तत्व' संरचना या 'बुनियादी ढांचे या खाका' का का सिद्धान्त उत्पन्न हुआ।
स्वतन्त्र भारत के संवैधानिक इतिहास में 'केशवानन्द भारती वाला मामला सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और अभी तक उच्चतम न्यायालय ने जितने मामलों की सुनवाई की है उनमें यह सबसे बड़ा है। तेरह न्यायाधिपतियों की विशेष पीठ के बहुमत के विनिश्चय से इसमें संविधान के 'आधारभूत ढांचे' अथवा 'मूलभूत तत्वों का सिद्धान्त (Doctrine of Basic Structure) व्युत्पन्न हुआ था। बहुमत का यह विनिश्चय इस प्रश्न का उत्तर था कि क्या संविधान के अनुच्छेद 368 के अधीन संशोधन करने का संसदीय शक्ति पर कोई सीमाएं विद्यमान हैं और यदि ऐसा है तो ये सीमाएं क्या हैं? उक्त 'युग प्रवृत्ति विनिश्चय में यह तर्क प्रस्तुत किया गया था कि यह बात सारहीन है कि चाहे संशोधन की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 368 में हो या अनुसूचित सप्तम की सूची एक की प्रविष्टि 97 में हो, उसका प्रयोग अन्तर्निहित और विवक्षित परिसीमाओं ( inherent and implied limitations) के अधीन है। यह तर्क इस रूप में था कि संविधान आवश्यक रूप से विस्तृत और व्याख्यावादी होने की बजाय साधारण होना चाहिए और इसलिए सांविधानिक अर्थान्वयन में विवक्षा की एक महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। परिसीमाएं परिस्थितियों और ऐतिहासिक घटनाओं से उत्पन्न होती हैं जिनके कारण हमारे संविधान का अधिनियमन हुआ, जो एक ओर भारत के विभिन्न राज्यों के नागरिकों के अधिकारों और समाज के बहुत से वर्गों के बीच तथा दूसरी ओर विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के बीच सन्तुलन बनाता है। संविधान द्वारा दी गयी शक्ति का ऐसा अर्थान्यवयन नहीं किया जा सकता कि वह संविधान द्वारा प्रदत्त की गयी अन्य शक्तियों को नष्ट करती है। यदि संसद की संशोधन शक्ति पर कोई अन्तर्निहित परिसीमा नहीं है तो उस शक्ति का प्रयोग न्यायिक शक्ति और शासकीय शक्ति को और यहां तक कि राज्य विधानमण्डलों की मामूली विधायी शक्ति को नष्ट करने के लिए भी किया जा सकता है।

24 अप्रैल, 1973 जबकि केशवानन्द भारती के मामले का निर्णय दिया गया था और अब के बीच को कालावधि यद्यपि हमारे सविधान के इतिहास में एक बहुत ही छोटी अवधि है किन्तु समालोचकों के अनुसार इससे समय-समय पर दी गई चुनौतियों से सविधान का संशोधन करने की ससद की शक्ति की सीमाओं के बारे में सविवाद को तय करने में सहायता मिली है। न्यायिक निर्णय के आधार पर अब यह घोषित विधि अच्छी तरह से सुस्थिर मानी जानी चाहिए कि हमारा सविधान एक नियन्त्रित सविधान है जो उसके द्वारा सृष्ट तथा उत्पन्न विभिन्न प्राधिकारियों पर शक्तिया प्रदान करता है। सविधान सर्वोच्च विधि है। वह देश की सर्वोपरि विधि है और न तो कोई ऐसा प्राधिकरण, न कोई ऐसा विभाग अथवा राज्य की शाखा है जो सविधान से ऊपर या उससे परे है अथवा जिसे ऐसी शक्तियां प्राप्त है जो कि सविधान द्वारा आनयन्त्रित तथा अनिर्बन्धित है। संसद भी सविधान की ही सष्टि है और उसे केवल ऐसी शक्तिया प्राप्त हो सकती हैं जो कि उसे सविधान के अधीन दी गई है। निर्णयानुसार संशाधन की शक्ति उसे सविधान द्वारा ही प्रदत्त की गई है और यह एक सीमित शक्ति है। ससद इस शक्ति का प्रयोग करते हुए सविधान का इस प्रकार संशोधन नहीं कर सकती कि उसके आधारभूत ढांचे को परिवर्तित कर दे अथवा उसकी अनन्यता में परिवर्तन ला दे। न्यायालय के मतानुसार संसद की सीमित सशोधन शक्ति अपने आप में संविधान का एक आवश्यक लक्षण है, यह उसके आधारभूत ढांचे का भाग है क्योंकि यदि सविधान की सीमित शक्ति में विस्तार करके उसके निस्सीम शक्ति बना दिया जाता है तो सविधान को समस्त प्रकृति परिवर्तित हो जाती है। पर यहां यह उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायाल की उक्त विशेष पीठ में छह न्यायाधिपतियों (चन्द्रचूड, द्विवेदी पालेकर, मैथ्यू, बेग एवं रे) ने यह दृष्टिकोण अपनाया था कि संशोधन की शक्ति पर किसी प्रकार की कोई सीमाएं विद्यमान नहीं हैं। यहां तक कि स्वयं न्यायाधिपति एच.आर. खन्ना का भी यह निष्कर्ष था कि उन परिसीमाओं के अलावा जो 'संविधान में अन्तर्निहित हैं, संशोधन करने की शक्ति पर कोई भी विवक्षित या अन्तर्निहित परिसीमाएं नहीं हैं। इस प्रकार बहुमत में भी केवल छह न्यायाधिपतियों ने ही स्पष्ट रूप से इस अन्तर्निहित या विवक्षित परिसीमाओं के सिद्धान्त को स्वीकार किया। ऐसा प्रतीत होता है कि एक और मुख्य न्यायाधिपति सीकरी और पांच अन्य न्यायाधिपतियों (शैलत, ग्रोवर, हेगड़े रेड्डी और मुखर्जी) तथा दूसरी और न्यायाधिपति एच.आर. खन्ना जिनको मिलाकर कथित बहुमत बना संसद की संशोधनात्मक शक्ति को सीमित करने का सुनिश्चित परिधि के बारे में पूर्णतया सहमत नहीं थे।

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