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BR ambedkar |
14 अप्रेल 2020 को हम भारत रत्न भीम राव अम्बेडकर की 129 वीं जयंती मना रहे हैं आज बात करेंगे एक एसे महान व्यक्तित्व की जिसने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने जीवन में कई कीर्तिमान हासिल किये तथा भारतीय समाज सुधार , राज्यव्यव्स्था , सविंधान निर्माण तथा दलितों और स्त्रियों के उत्थान में उनके प्रयास आज भी अग्रणी हैः बाबा साहेब एक महापुरुष थे जिनको ज्ञान का प्रतीक कहा जाता हैं क्योकि उन्हें 9 भाषाओँ का ज्ञान था तथा उनके पास 36 डिग्रियां थी उन्हें भारतीय राज्यव्यवस्था का पितामह कहा जाता है | भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें सविंधान का दक्ष पायलट कहा था | तथा उन्हें आधुनिक भारत का मनु भी कहा जाता हैं | उस समय जब दलितों की दशा बहुत दयनीय थी तब भी एसे समय में उन्होंने सामाजिक न्याय और जातिवाद के खिलाफ जो संघर्ष किया था वों काबिलियत उनको महान योद्धा बनाती है बाबा साहेब ने अपनी शिक्षा और उच्च कोटि की प्रतिभा के बल पुरे विश्व में अपनी पहचान बना दी थी जिससे भारत में संविधान निर्माण के लिए उनको प्रारूप समिति के अध्यक्ष बनाये गये
गरीबों और पिछड़ों के लिए कार्य करने और सामाजिक ऊँचनीच का विरोध करने के कारण आज भी भारत में कुछ लोगो एवम उनकी विचारधारा के कारण उनके प्रति नफरत की भावना साफ दिखती हैं कुछ लोग आज भी उनकी मूर्तियों को तोड़ते हैं तथा उनको अपमानित करते है क्योकि इस महापुरुष ने सामाजिक असमानता को मिटाने का संकल्प लिया था लेकिन अगर हम जातिवादी सोच का चश्मा उतार कर उनके कार्यो और विचारो को ईमानदारी से समझे तो डॉ भीम राव अम्बेडकर सम्पूर्ण भारत के महान दार्शनिक , समाज सुधारक, राजनेता तथा सामाजिक न्याय के प्रेरक, समतामूलक समाज के श्रेष्ठ स्वप्नद्रष्टा, ज्ञान और समता के प्रतीक, दमित-वंचित वर्ग की बुलंद आवाज़, भारतीय संविधान के शिल्पकार थे जिनकी असाधारण प्रतिभा और अमूल्य योगदान का लाभ सभी भारतीयों को बखूबी मिल रहा हैं
डाॅ. बाबा साहेब भीमराव रामजी आंबेडकर: का जीवन एवं दर्शन
सदी के प्रमुख समाज सुधारक, राजनेता तथा दलितमुक्ति के दार्शनिक भारत में सामाजिक न्याय के प्रेरक, समतामूलक समाज के श्रेष्ठ स्वप्नद्रष्टा, ज्ञान और समता के प्रतीक, दमित-वंचित वर्ग की बुलंद आवाज़, भारतीय संविधान के शिल्पकार और स्वतंत्र भारत में केंद्रीय सरकार के प्रथम कानून मंत्री डॉ भीमराव आम्बेडकर ( जन्म: 14 अप्रेल 1891; देहान्त: 6 दिसम्बर 1956 ) का भारत के 20 वीं सदी के अग्रिम पंक्ति के चर्चित राजनेताओं एवं सामाजिक भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वाले योद्धाओं में विशिष्ट स्थान है। उन्होंने अछुतों के सामाजिक तथा धार्मिक अधिकारों के लिए संघर्ष के साथ सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। 1927 में पानी के सार्वजनिक उपयोग के लिए उन्होंने महाड सत्याग्रह किया और 1928 में भारत आये, साइमन कमीशन से दलितों के लिए शैक्षणिक सुविधाओं की मांग की। 1930 में अम्बेडकर ने दलित नेता के रूप में प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और 1932 में दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल की मांग पर महात्मा गांधी के साथ पूना समझौता किया। समानता पर आधारित समाज की स्थापना के लिए लए संघर्षरत बाबा साहेब ने 1938 में मुंबई विधानसभा में खोती (जमींदारी प्रथा) की समाप्ति के लिए विधेयक पेश किया। स्त्री तथा श्रमिकों के अधिकारों के लिए भी प्रयत्नशील रहे।
संविधान प्रारूप लेखन समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्र भारत के प्रथम कानन मंत्री के रूप में आपने "हिन्दू कोड बिल' प्रस्तुत किया, कट्टरवादियों के विरोध के कारण असफलता मिली जिसके परिणामस्वरूप मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। दलितों के प्रति सवर्णों के टलिको ' प्रात सवर्णों के दृष्टिकोण में अपेक्षित बदलाव न पाकर 1956 में हिन्दू धर्म छोड़कर अम्बेडकर जी ने अपनी मृत्यु से पूर्व बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।
बाबा साहेब अंबेडकर के सामाजिक विचार
उन्नीसवीं सदी से ही भारतीय समाज सुधार के लिये प्रयास किये जा रहे थे, लेकिन अम्बेडकर के प्रयास इन सबसे भिन्न थे। अम्बेडकर ने सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन का विकल्प दिया। समाज सुधार को वे दो अर्थों में देखते थे। पहला - पारिवारिक सुधार तथा दूसरा समाज का पुनर्गठन। विधवा विवाह, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा आदि पारिवारिक सुधार की श्रेणी में आते हैं तो ऊंच-नीच, छुआछूत, वर्णभेद एवं जातिभेद मिटाना समाज सुधार की श्रेणी में। उनका मानना था कि समाज सुधार के बिना सच्ची राष्ट्रीयता का उदय सम्भव नहीं है। वे सामाजिक अत्याचार की तुलना में राजनीतिक अत्याचार को नगण्य मानते थे और समाज का विरोध करने वाले समाज सुधारक को सरकार का विरोध करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी। इसीलिए उन्होंने समाज सुधार बनाम राजनैतिक चेतना के पुराने सवाल को उठाया जिसको लेकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में दो धड़े रहे थे और कांग्रेस में समाज सुधार वाले पक्ष की पराजय को वे दुर्भाग्यपूर्ण मानते थे।
अम्बेडकर ने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों यथा-जातिवाद, ब्राह्मणवाद, छुआछूत आदि पर तीखे प्रहार किये और कहा कि समाज व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन करने के लिए सामाजिक सुधार मात्र नहीं, सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता है। जातिप्रथा उन्मूलन, दलितोत्थान तथा अस्पृश्यता निवारण अम्बेडकर के सामाजिक विचारों के केन्द्र में हैं।
जातिप्रथा
जीवन के कटु अनुभवों से अम्बेडकर ने सीखा था कि भारत में सामाजिक असमानता की जड़ जाति व्यवस्था है। जाति व्यवस्था से स्वयं पीड़ित अम्बेडकर ने उसके उद्गम, स्वरूप तथा नष्ट करने के उपायों पर शोधपूर्ण आंकलन प्रस्तुत किया।
अम्बेडकर का मानना था कि समाज व्यक्तियों से नहीं वर्गों के मिलने से बनता है और जब समूह के बाहर विवाहों के स्थान पर समूह के अन्दर असगोत्र विवाह की प्रणाली चलने लगती है तो वर्ग जाति में बदल जाते हैं। भारत में भी इतिहास के किसी युग में पुरोहित वर्गों ने अपने को समाज से अलग एक जाति में बन्द कर लिया जिसका अन्य वर्गों ने भी अनुसरण किया और परिणामस्वरूप कई जातियों का जन्म हुआ। वे इस धारणा में विश्वास नहीं करते थे कि जाति प्रथा के उद्गम का उद्देश्य प्रजाति तथा रक्त की शुद्धता की रक्षा करना था, क्योंकि उनके अनुसार भारत की विभिन्न प्रजातियों के रक्त और संतति के आपस में मिलने के बहुत बाद में जाति प्रथा का जन्म हुआ।
अम्बेडकर इस बात को नहीं मानते थे कि विधि व्यवस्था के प्रणेता मनु ने जाति व्यवस्था का निर्माण किया। उनका कहना था कि कोई व्यक्ति चाहे कितना ही शक्तिशाली हो, जाति व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सकता था। हाँ, मनु ने जाति के विद्यमान नियमों को संहिताबद्ध करके उन्हें धार्मिक तथा दार्शनिक आधार अवश्य प्रदान किया।
अम्बेडकर का मानना था कि वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित हिन्दू समाज रचना हिन्दू धर्म द्वारा स्वीकृत है क्योंकि यह व्यवस्था इस सिद्धान्त पर आधारित है कि ईश्वर ने मानव को अपने भिन्न-भिन्न अंगों से पैदा किया है। ब्राहाम्ण ईश्वर के मुख से क्षत्रिय भुजा से, वैश्य जंघा से तथा शूद्र पैरों से पैदा हुआ है। ईश्वरीय शरीर के अंगों की प्रतिष्ठा के अनुसार ही वर्ण एवं जाति की सामाजिक प्रतिष्ठा होती है। उनका कहना था कि हिन्दू समाज इसी आधार पर जाति व्यवस्था की इस्पाती चौखट में बंधा हुआ है जिसमें एक जाति सामाजिक प्रतिष्ठा में दूसरी से नीचे है और अपने स्थान के अनुपात में प्रत्येक जाति के विशेषाधिकार निषेध और असमर्थतायें हैं। अम्बेडकर के अनुसार जाति का आधार जन्म होने के कारण व्यक्ति के कार्य एवं योग्यता का कोई स्थान नहीं है अतः ऐसी व्यवस्था में व्यक्ति समानता तथा न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता।
जाति व्यवस्था के आधार पर प्रचलित वंशानगत व्यवसायों को अम्बेडकर प्राकृतिक योग्यता एवं स्वतंत्रता के विरूद्ध मानते थे। उनके अनसार जाति व्यवस्था केवल श्रम का विभाजन न होकर श्रमिकों का भी विभाजन है। जाति व्यवस्था पहले से ही व्यक्ति के कार्य का निर्धारण कर देती है जो उसकी मौलिक सामर्थ्य पर आधारित ना होकर उसके माता-पिता की स्थिति पर आधारित होता है। व्यवसाय परिवर्तन की स्वतंत्रता न होने के कारण इसने बेरोजगारी को बढ़ाया है। इस प्रकार आर्थिक संगठन के रूप में अम्बेडकर जाति को हानिकारक संस्था मानते थे।
जाति व्यवस्था की पदसोपानीय संरचना के सर्वोच्च पायदान पर ब्राह्मण थे जो सर्वाधिकार सम्पन्न थे। ब्राह्मण ही समग्र रूप से समाज के नियमों के नियंता थे। अम्बेडकर जानते थे कि जाति व्यवस्था में सर्वाधिक लाभ ब्राह्मणों को मिला है अतः वे जाति व्यवस्था के सदैव समर्थक रहेंगे। उनका कहना था कि जाति व्यवस्था की अभेद्य दीवार जिस सामग्री से बनी है उसमें तर्क तथा नैतिकता जैसा कोई ज्वलनशील पदार्थ नहीं है और इसकी रक्षा के लिए ब्राह्मणों की फौज खड़ी है। लेकिन अम्बेडकर ने यह भी स्पष्ट कहा कि वे ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं है, ब्राह्मणवाद से ग्रस्त लोगों से उनका विरोध है। ब्राह्मणवाद को वे हिन्दू समाज के लिए ऐसा जहर मानते थे, जिसके शमन द्वारा ही हिन्दूवाद को बचाया जा सकता है।
अम्बेडकर के सामाजिक चिन्तन की एक अन्य विशेषता यह है कि उनकी भारतीय जाति व्यवस्था एवं धर्म पर आधारित सामाजिक संरचना की अपनी गहरी समझ के आधार पर उन्होंने समाजवादियों द्वारा की गई भारतीय इतिहास तथा समाज की आर्थिक व्याख्या को अस्वीकार कर दिया। वे आर्थिक शक्ति को सत्ता का एकमात्र स्त्रोत नहीं मानते थे। उन्होंने कहा कि समाजवादी यह मानकर चलते हैं कि चूँकि यूरोपीय समाज की वर्तमान अवस्था में सम्पत्ति शक्ति का प्रमुख स्त्रोत है तो भारत में भी यही बात सही होगी। धर्म, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा सम्पत्ति तीनों ही शक्ति और सत्ता के स्त्रोत रहे हैं जिनका इस्तेमाल आदमी ने दूसरों की स्वतंत्रता को छीनने के लिए किया है। यदि स्वतंत्रता का अर्थ किसी एक व्यक्ति पर किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार को समाप्त करना है तो यह नहीं कहा जा सकता कि केवल आर्थिक सुधार ही लाये जाने चाहिये। यदि किसी समय में या समाज में शक्ति और अधिकार के स्त्रोत सामाजिक या धार्मिक हों तो सामाजिक तथा धार्मिक सुधारों की अनिवार्यता स्वीकार की जानी चाहिये। भारत का इतिहास दिखाता है कि धर्म भी सत्ता का स्त्रोत है इसीलिये करोड़पति व्यक्ति निर्धन साधुओं तथा फकीरों की आज्ञा का पालन करते हैं और करोड़ों निर्धन अपने छोटे मोटे गहने बेच कर बनारस और मक्का जाते हैं।
इसी संदर्भ में अम्बेडकर ने जाति की सत्ता को देखा और समझा था। जाति व्यवस्था द्वारा निर्धारित नैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक संहिता का विरोध करने पर सम्बन्धित जाति को ऐसे व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत करने का एकाधिकार होता है। जाति से बहिष्कृत का अर्थ है उसे समाज के किसी भी काम में भाग न लेने देना। अम्बेडकर ने इस पर कटाक्ष करते हुये कहा था कि यह तय करना कठिन है कि जाति बहिष्कार कठोरदण्ड है या मृत्यु अम्बेडकर ने अपने गहन अध्ययन, अवलोकन और अहसास के बाद पाया कि भारतीय समाज को यदि समानता, न्याय तथा लोकतंत्र पर आधारित समाज के रूप में पुनर्गठित करना है तो जाति व्यवस्था को समूल रूप से नष्ट करना होगा। उन्होंने जाति व्यवस्था में विद्यमान कमजोरियों एवं उसके दुष्प्रभावों की तार्किक, स्पष्ट एवं विवके सम्मत व्याख्या की। उनका मानना था कि जन्म जो कि संयोग है, पर आधारित होने के कारण जाति व्यवस्था, न्याय एवं समानता के प्राकृतिक एवं प्रजातांत्रिक अधिकारों के विरूद्ध है। जाति प्रथा के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना असंभव है। हिन्दुओं के लिए उनकी जाति ही जनता है तथा उनकी निष्ठा व दायित्व अपनी जाति तक ही सीमित है। इसी आधार पर अम्बेडकर का मानना था कि जातिगत आधार पर गठित हिन्दू समाज एकता तथा संगठन के स्थान पर अलगाव को प्रोत्साहन देता है । अम्बेडकर ने स्पष्ट किया कि हिन्दू धर्म प्रचारक धर्म नहीं हो सकता है क्योंकि जातिगत स्वायत्ता के कारण ऐसे व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं जो धर्म बदल कर हिन्दूमत में आया हो । हिन्दू समाज की जीवन शक्ति पर गर्व करने वालों से भी अम्बेडकर सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि जीवित रहने से ज्यादा महत्वपूर्ण है जिन्दा रहने का ढंग । अम्बेडकर का विचार था कि हिन्दुओं के अस्तित्व की कहानी लगातार पराजय की कहानी है। कारण यह था कि हमारा सारा देश हमले के खिलाफ खड़ा न हो सका, जाति व्यवस्था में बंटे समाज के एक छोटे से वर्ग ने उनका मुकाबला किया और हमारा देश हार गया। हमारे यहां लड़ने का जिम्मा केवल क्षत्रियों को सौंपा गया था, लेकिन जिसके दुष्परिणाम हमें भोगने पड़े। जब तक जाति प्रथा रहेगी समाज इसी तरह बँटा रहेगा।
अम्बेडकर तत्कालीन कुछ समाज सुधारकों के इस मत से भी सहमत नहीं थे कि जाति के स्थान पर वर्ण व्यवस्था को अपना लिया जाय तो सभी सामाजिक बीमारियों का इलाज हो जायेगा क्योंकि उनके अनुसार वर्ण व्यवस्था में जाति के रूप में विकृत होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। वे यह भी जानते थे कि जाति सत्ता के शिखर पर बैठा ब्राह्मण वर्ग अपने निहित स्वार्थों के कारण जाति उन्मूलन आंदोलन का समर्थक नहीं हो सकता। ब्राह्मण ही हिन्दू सामाजिक संरचना में बौद्धिक वर्ग का प्रतिनिधि है अतः अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए पुरोहितशाही पर राज्य द्वारा कानूनी नियंत्रण और नियमन का विचार रखा जिसकी विस्तृत चर्चा हम डॉ० अम्बेडकर के धार्मिक विचारों के अन्तर्गत करेंगें। अम्बेडकर हिन्दू समाज की समस्त बुराईयों की जड़ जाति व्यवस्था को मानते थे और इसीलिए इसको समूल रूप से नष्ट करना ही उनकी दृष्टि में उन्नति का एकमात्र विकल्प था। लेकिन वे यह भी जानते थे कि इस हजारों साल पुरानी व्यवस्था को समाप्त करना असंभव नही तो कठिन अवश्य है क्योंकि स्वायत्तशासी होने के कारण जाति व्यवस्था के कट्टर पंथियों के हाथ में समाज सुधारकों को दण्डित करने के लिये जाति कानून का सशक्त हथियार है।वे समानता, स्वंत्रता तथा परस्पर भाईचारे पर आधारित समाज का पुनर्गठन करना चाहते थे, और इसके लिये वर्ण एवं जाति के पीछे विद्यमान धार्मिक पवित्रता की भावना को नष्ट करना आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि जाति तथा वर्ण को धर्मशास्त्रों की दिव्यसत्ता से अलग कर दिया जाना चाहिये।
अम्बेडकर कोरे सिद्धान्तवादी नहीं अपितु जमीन से जुड़े विचारक थे। वे जानते थे कि हजारों सालों से पोषित जाति व्यवस्था को रातों रात समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए हिन्दुओं के मौलिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना आवश्यक था। उनका विचार था कि जाति प्रथा से लड़ने के लिए चारों तरफ से प्रहार करना होगा। जाति ईंट की दीवार जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है जिसे गिरा दिया जाए। अपितु यह एक विचार और मनः स्थिति है। अम्बेडकर, जाति भेद मिटाने के लिए अन्तरजातीय सहभोज के उपाय को सतही और अपर्याप्त मानते थे इसका वास्तविक उपाय अंतरजातीय विवाह को मानते थे। उनके अनुसार, जब जाति का धार्मिक आधार समाप्त हो जाएगा तो इसके लिए रास्ता खुल जायेगा। केवल रक्त का मिश्रण ही अपनेपन की भावना पैदा कर सकता है और जब तक यह अपनेपन और बन्धुता का भाव प्रधान नहीं होता, जाति आधारित भेदभाव दूर नहीं किये जा सकते।
असमानता तथा जन्माधारित भारतीय जाति व्यवस्था की चरम स्थिति का स्वरूप अस्पृश्यता । इसके अन्तर्गत हिन्दू समाज के अन्तर्गत बहत बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जो अन्त्यज, अवर्ण अथवा पंचम के रूप में जाने जाते थे तथा जिन्हें छने भर से सवर्ण हिन्दुओं का धम भ्रष्ट हा जाता था। यह हिन्दू धर्म की एक ऐसी अनोखी प्रथा है जिसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नही मिलता। सदियों से प्रचलित इस प्रथा के कारण हिन्दू समाज के एक बहुत बड़े हिस्से का समस्त प्रकार की योग्यताओं, अवसरों तथा अधिकारों से वंचित कर दिया गया। इत्तेफाक से अम्बेडकर का जन्म भी महाराष्ट्र की अस्पश्य जाति महार में हुआ था। अछूत के रूप में रोंगटे खड़े कर देने वाले अपमान के दौर से गुजरे अम्बेडकर के मन में अन्याय का प्रतिकार करने तथा जन्म, वर्ण तथा जाती की मान्यताओं को ध्वस्त करने का दृढ़ संकल्प एवं संघर्षशीलता थी। यही कारण है कि अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के उद्गम, स्वरूप, शोषण तथा उसके उन्मुलन का वैचारिक आधार प्रस्तुत किया तथा छुआछूत की समाप्ति एवं जाति व्यवस्था के उन्मुलन के लक्ष्य के प्रति अपना समग्र जीवन समाप्त कर दिया। छुआछूत के उपरोक्त आयामों के सम्बन्ध में अम्बेडकर जी का एक दृष्टिकोण है
भारतीय इतिहास के गहन अध्ययन के बाद अम्बेडकर ने "व्हू वर द शूद्राज' नामक ग्रन्थ में शूद्रों तथा छुआछूत की उत्पत्ति तथा विकास को प्रतिपादित करने का प्रयास किया। उनके अनुसार शूद्र न केवल आर्य थे अपितु क्षत्रिय वर्ग से सम्बन्धित थे। चतुर्वर्ण का प्रतिपादन करने वाले ऋग्वेद के पुरूष सूक्त को बाद में जोड़ा गया बताकर अम्बेडकर ने अस्वीकार कर दिया। अम्बेडकर ने शूद्र राजा सुदास तथा ब्राह्मण ऋषि वशिष्ठ के बीच हुये झगड़े का उदाहरण देते हुये कहा कि शूद्रों तथा ब्राह्मणों के बीच हुये हिंसक संघर्ष के परिणामस्वरूप ही शूद्रों का पतन हुआ और वे वर्ण क्रम में चौथे स्थान पर चले गये। अम्बेडकर का मानना था कि ब्राह्मणों ने शूद्रों को उपनयन के अधिकार से वंचित कर दिया जिसने उनके लिए दासता का मार्ग प्रशस्त किया। शूद्रों के पतन के लिए अम्बेडकर ने उपनयन की अस्वीकृति के प्रभाव को ‘परमाणु बम' के समान माना है।
अस्पृश्यता के अर्थ को परिभाषित करते हुये अम्बेडकर ने लिखा है कि अछतों के छने पर सवर्ण अपवित्र हो जाते हैं और फिर पवित्र करने वाली किसी रस्म द्वारा ही वे पवित्र होते हैं लेकिन अछूतों के लिए ऐसी कोई रस्म नहीं है जिसके सम्पादन द्वारा अछूत पवित्र हो जाय। छुआछूत की इस प्रथा में, अछूत अपवित्र ही जन्म लेते हैं, आजीवन अपवित्र रहते हैं, अपवित्र ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। यही नहीं, वे ऐसे बच्चों को जन्म देते हैं जिनके साथ अस्पृश्यता का कलंक जुड़ा होता है। यह स्थायी तथा वंशानुगत कलंक का मुद्दा है। जिसे मिटाया नहीं जा सकता।
अछूतों की इस अमानवीय, शोचनीय तथा दासता से भी बदतर स्थिति के लिए अम्बेडकर दो तत्वों को प्रमुख रूप से जिम्मेदार मानते थे ,एक हिन्दू धर्म तथा दूसरा ब्राह्मणवाद ।
अम्बेडकर ने स्पष्ट किया कि जाति-पाँति का भेद तथा छुआछूत को हिन्दू इसलिए नहीं मानते कि उनका व्यवहार अमानुषिक तथा अन्यायपूर्ण है बल्कि वे अत्यधिक धार्मिक होने के कारण ऐसा मानते हैं। अतः जात-पाँत की शिक्षा देने वाले धर्मशास्त्र दोषी हैं। अम्बेडकर का दृढ़ मत था कि मनुस्मृति ने छुआछूत का संहिताकरण तथा वैधानीकरण करने में निर्णायक भूमिका अदा की है।
स्त्रियों और शिक्षा के प्रति भीमराव अम्बेडकर के विचार
दलितों के समान ही भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति भी दासों जैसी थी। उनका कहना था कि स्त्रियों के पतन के लिए सतीप्रथा, बाल विवाह,कन्या वध, विधवा विवाह, निषेध जैसी कुप्रथाओं को जिम्मेदार मानना समस्या को सतही तौर पर देखना है। वे इन सारी समस्याओं की जड़ जाति प्रथा एवं ब्राह्मणवाद को मानते थे। उनका मत था कि जिस जाति में बाल विवाह, कठोर वैधव्य और सती प्रथा का जितना अधिक प्रचलन होगा, उसका स्तर उतना ही ऊँचा माना जायेगा। इसी दृष्टि से पेशवा के शासन काल में प्रभु समुदाय ने विधवा विवाह पर पाबन्दी लगाकर अपनी जाति का स्तर ऊँचा उठाने का प्रयास किया तो पेशवाओं ने ऐसा न करने देने के लिए हस्तक्षेप किया था। वे स्त्री तथा दलित दोनों को ब्राह्मणवादी दमन चक्र का शिकार मानते थे जिसे आगे चलकर मनु ने राज्य के कानून के रूप में बदल दिया। जो लोग चातुर्वण्य के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करना चाहते थे उनसे अम्बेडकर का यही सवाल था कि क्या वर्ण विभाजन स्त्रियों पर भी लागू होगा? वे ऐसे प्रजातांत्रिक समाज की स्थापना चाहते थे जिसमें मानव मात्र को गरिमा, सम्मान और समानता के आधार पर जीवन यापन का हक हो। यही कारण है कि उन्होंने दमित मानवता के उत्थान का बीड़ा उठाया, फिर वह अछुत हो या स्त्री। वे दलित महिला की इस पीड़ा के मर्म को भी समझते थे कि वह दोहरे शोषण का शिकार है - एक स्त्री होने के कारण और दूसरा-दलित होने के कारण।
अम्बेडकर जानते थे कि पुरातनपंथी समाज स्वेच्छा से स्त्रियों को समानता का दर्जा नहीं देगा अतः दलितों के समान ही वे कानून द्वारा स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा करना चाहते थे। आजाद भारत में इसी उद्देश्य से उन्होंने कानून मंत्री की हैसियत से "हिन्दू कोड बिल' प्रस्तुत किया। इस विधेयक में विवाह की आयु सीमा बढ़ाने, स्त्रियों को तलाक का अधिकार देने, मुआवजा तथा विरासत के अधिकार के साथ-साथ दहेज को स्त्रीधन मानने के सुझाव दिये गये थे किन्तु राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में कट्टरवादियों के विरोध के कारण यह विधेयक पारित नहीं हो सका और अम्बेडकर ने विधि मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया।
स्त्रियों की स्थिति में सुधार के लिए मनुवादी व्यवस्था में बदलाव न कर पाने के बावजूद न्याय पर आधारित समाज की रचना के लिए अम्बेडकर का नारा था – एकता, शिक्षा और आन्दोलन । साथ ही उनकी मान्यता थी कि स्त्रियों के सहयोग के बिना एकता अर्थहीन है, स्त्रियों की शिक्षा के बिना शिक्षा फलहीन है और स्त्रियों की शक्ति के बिना आन्दोलन अधूरा है।
अम्बेडकर इस बात को जानते थे कि राज्य द्वारा समानता का अधिकार प्रदान कर देने के बावजूद यदि दलित वर्ग अपने अधिकारों के प्रति उदासीन बना रहा तो सामाजिक न्याय का सपना कागजी तथा कानूनों में ही बना रहेगा, यथार्थ नहीं बन पायेगा। वे औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा द्वारा दलित वर्ग में जागृति तथा आत्मबल पैदा करना चाहते थे, ताकि दलित वर्ग अपने अधिकारों के प्रति व्यग्र हो उठे। उनके लिए शिक्षा केवल साक्षरता का नाम नहीं अपितु सामाजिक परिवर्तन का हथियार थी। वे जन्माधारित वर्ण-जाति, सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक अंधविश्वासों, गरीबी की भाग्यवादी अवधारणा आदि को समाप्त करने के लिए ऐसे व्यक्तियों के समाज का पुनर्निर्माण करना चाहते थे जो प्राचीन परम्पराओं का अनुसरण तो करे लेकिन तर्क की कसौटी पर कसने के बाद।
उनका मत था कि अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा प्रदान करना राज्य का दायित्व है। अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होने पर ही साधन-सुविधा तथा सम्पत्तिहीन दलित को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है। वे शिक्षा को ऐसा औजार मानते थे जिसकी मदद से दासता की जड़ों को काटकर सामाजिक समानता, आर्थिक उन्नति एवं राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की जा सकती है। दलितों को शिक्षा प्रदान करने के लिए उन्होंने 'पिपुल्स एजुकेशन सोसायटी' नामक संस्था की स्थापना की थी। उनका कहना था कि शिक्षा ही अछूतों में सवर्णों के समकक्ष खड़ा होने का साहस पैदा कर सकती है।
अम्बेडकर मानव जीवन में धर्म तथा नैतिकता के महत्व को स्वीकार करते थे। लेकिन भारतीय सामाजिक संरचना जिसे धर्मशास्त्रों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी थी उस भारतीय समाज में धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त असमानता, अत्याचार, छुआछूत तथा पाखण्डों के वे विरोधी थे। इसी संदर्भ में उन्होनें एक सामाजिक क्रान्तिकारी के रूप में, प्रजातान्त्रिक समाज की स्थापना के लिए हिन्दू धर्म को समता, स्वतंत्रता तथा बन्धुता के अनुरूप बदलने की अपील की।
लोकतंत्र और डाॅ. भीमराव अम्बेडकर
बाबा साहेब प्रजातंत्र के प्रबल समर्थक थे लेकिन पश्चिमी विद्वानों के समान वे इसे शासन की केवल एक पद्धति मात्र नहीं मानते थे अपितु वे इसे एक जीवन पद्धति के रूप में देखते थे। उनके मालानिक शासन प्रणाली ही ऐसी प्रणाली है जिसमें समाज की आर्थिक-सामाजिक संरचना में जाति, रंग, लिंग, सम्पत्ति तथा धर्म के भेदभाव के बिना शान्तिपूर्ण ढंग से क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जा सकते हैं। लोकतांत्रिक पद्धति में वे दो तथ्यों का समावेश आवश्यक मानते थे-पहला विधि का शासन तथा दूसरा-सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन द्वारा न्यायपूर्ण समाज की स्थापना। हालांकि संसदीय प्रजातंत्र के प्रबल समर्थक थे किन्तु उसके निर्णयों में होने वाली देरी के प्रति सचेत थे।
भारत में संसदीय प्रजातंत्र को लागू करने से पहले वे संवैधानिक प्रावधानों द्वारा शासन को सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के प्रति वचनबद्ध बनाना चाहते थे ताकि सामाजिक न्याय की स्थापना कार्यपालिका की स्वेच्छा पर निर्भर न होकर उसका दायित्व बन जाय। संविधान की प्रस्तावना तथा नीति निर्देशक तत्वों में अम्बेडकर के उपरोक्त आग्रह साकार हुये हैं। भारत के लिए लोकतांत्रिक पद्धति को श्रेष्ठ मानते हुए भी वे जानते थे कि यहां की सामाजिक संरचना लोकतंत्र के अनुकूल नहीं है अतः उन्होंने लोकतंत्र की सफलता के लिए कुछ पूर्व शर्तो को आवश्यक बताया।
राजनैतिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए सामाजिक धरातल पर समानता अर्थात् सामाजिक लोकतंत्र होना आवश्यक है। जिस समाज के एक वर्ग के हाथों में केवल विशेषाधिकार हों और उसका दूसरा वर्ग प्रतिबन्धों के बोझ से दबा पड़ा हो वहां लोकतंत्र नहीं पनप सकता। इसलिए वे दलित वर्ग को कानूनी संरक्षण द्वारा सामाजिक समानता का दर्जा प्रदान करना चाहते थे। लोकतंत्र के लिए वे बहुदलीय शासन प्रणाली तथा सशक्त विपक्ष को भी आवश्यक मानते थे। उनका मानना था कि जब तक जनता के सामने एक दल को हटाकर दूसरे दल को सत्ता सौंपने का विकल्प नहीं होगा, लोकतांत्रिक शासन सार्थक नहीं हो सकता। इसी प्रकार लोकतंत्र की सफलता में सक्षम विपक्ष का होना भी आवश्यक है जो कि शासन की कमजोरियों को उजागर कर जनहितों का प्रहरी बन जाता है। लोकतंत्र की सफलता के लिए वे तटस्थ तथा कुशल नौकरशाही का होना भी जरूरी मानते थे। उनका मत था कि सरकार के बदलाव के साथ प्रशासन में बदलाव स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है, अतः सिविल सेवा को सरकार की स्थायी प्रशासनिक शाखा बनाया जाये तथा यह सुनिश्चित किया जाए कि उसके सदस्य सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के प्रति निष्ठा रखने के बजाय विधि के प्रावधानों के प्रति निष्ठावान रहें। अम्बेडकर के अनुसार संविधान में की गई घोषणाओं मात्र से किसी देश का शासन आदर्श स्वरूप प्राप्त नहीं कर लेता अपितु इसके लिए राजनैतिक क्रिया कलापों और शासन में भाग लेने वाले लोगों में संवैधानिक मूल्यों व नैतिकता के प्रति निष्ठा की भावना होना आवश्यक है।
वे जागरूक जनता को भी लोकतंत्र की आवश्यक शर्त मानते थे, क्योंकि जागरूक जनत ही लोकतंत्र की रक्षक भी होती है। अम्बेडकर दलित तथा शोषित वर्गों के लिए संवैधानिक तथा कानूनी संरक्षणों को सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक मानते थे। उनका मानना था कि इन संरक्षणों के आधार पर ही दलित संविधान द्वारा दिये जाने वाले मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने में सक्षम होंगे। इसी आधार पर वे 1935 के अधिनियम में दलितों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व का प्रावधान कराने में सफल रहे। 1932 में साम्प्रदायिक पंचाट में दलित वर्ग को हिन्दू समुदाय से पृथक समुदाय के रूप में मान्यता दी गयी थी, जिसे बाद में गांधी के साथ समझौते के बाद पूना पैक्ट में संशोधित किया गया और जिसके अनुसार हिन्दू समुदाय के ही एक अंग के रूप में दलितों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया, तथा स्वतंत्र भारत के संविधान में भी दलित वर्ग के आरक्षण की व्यवस्था की गई।
डाॅ. बाबा साहेब आंबेडकर के विचार और कार्य एक नजर में
भारत में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा सभी जातियों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोल दिए जाने एवं शूद्र समझे जाने वाले वर्ण की जातियों के नौजवानों को भी फ़ौज में भर्ती करने के कारण ही भीमराव को पढ़ने का मौका मिला। चूंकि भीमराव के कबीरपंथी पिता रामजी आंबेडकर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में नौकरी करते थे, इसलिए शिक्षा के महत्व को समझते हुए उन्होंने अपने होनहार पुत्र की शिक्षा का प्रबंध किया। छुआछूत के कारण बाल्यकाल से ही भीमराव को अपमान और उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, जिसका प्रभाव बाद में उनके विचारों पर पड़ना स्वाभाविक था। जाति के कारण उन्हें संस्कृत पढ़ने से वंचित किया गया तो मजबूरन उन्हें फ़ारसी का चयन करना पड़ा। जीवन में तरह-तरह के अपमान, उपेक्षा और उलाहने सहते हुए वे सधे कदमों से आगे बढ़ते चले।
सन 1912 में उन्होंने बॉम्बे यूनिवर्सिटी से सम्बद्ध एलिफिंस्टोन कॉलेज से अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में बी. ए. की डिग्री हासिल की। तत्समय अछूत माने जाने वाले समुदाय के वे उस इलाके के पहले युवक थे जिसे मैट्रिकुलेशन के बाद हाई स्कूल व कॉलेज की पढ़ाई करने का अवसर सुलभ हुआ।
मानवतावादी बङौदा के महाराज सयाजी गायकवाङ़ ने भीमराव को उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति प्रदान की। शर्त थी की अमेरिका से वापस आने पर दस वर्ष तक बङौदा राज्य की सेवा करनी होगी। भीमराव आंबेडकर ने अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से सन 1915 में एम. ए. की डिग्री और फिर वहीं से अर्थशास्त्र में पीएच.डी की डिग्री अर्जित की। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अध्ययन के दौरान उन्होंने समानता के व्यवहार का अनुभव किया, जो उन्हें भारत में नहीं मिला था। वहाँ उन पर अब्राहम लिंकन व जॉर्ज वाशिंगटन के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा।
अमेरिका से भारत वापस आने पर आम्बेडकर को बङौदा में नौकरी दी गई किन्तु कुछ सामाजिक विडंबना की वजह से एवं आवासीय समस्या के कारण उन्हें नौकरी छोङक़र बम्बई जाना पङ़ा।
बाबा साहेब का संघर्षशील जीवन:-
डॉ आम्बेडकर एक प्रखर राजनेता, उत्कृष्ट विधि विशेषज्ञ, प्रचुर लेखक, विचारक और कुशल संगठक थे। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित सामाजिक असमानताओं के खिलाफ शोषित वर्ग को संगठित कर उनके अधिकारों के लिए आंदोलन की अगुवाई की। महात्मा फुले की तरह डॉ आम्बेडकर भी मानते थे कि ब्रिटिश राज धार्मिक और सामाजिक रूप से तटस्थ है। इसलिए वे देश में राजनीतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक स्वतंत्रता एवं सामाजिक क्रांति लाना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि देश के शासन की बागडोर एक अधिनायक एवं शोषक वर्ग ( अंग्रेजों ) से हस्तांतरित होकर दूसरे शोषक वर्ग ( सवर्ण / श्रेष्ठी वर्ग ) के हाथों में आ जाए।
डॉ आंबेडकर ने छुआछूत जैसी घिनौनी निकृष्टतम सामाजिक व्यवस्था को पशुता की संज्ञा देते हुए भारतीय समाज में जाति और लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव की नग्न सच्चाई को बेबाकी और साहस के साथ उजागर किया, और उससे मुक्ति की राह भी दिखाई। उन्होंने भारतीय समाज को समानता, सद्भाव, न्याय एवं बंधुता के रास्ते पर लाने के लिए सतत संघर्ष किया। सामाजिक उत्पीड़न और वंचना के शिकार लोगों की आवाज़ बनकर वे सही मायने में 'मूकनायक' ( Leader of the silent/ Voice of the Voiceless ) बने। उन्होंने उन लोगों को आवाज दी जिन्हें दमन सहते-सहते चुप्पी साधने की आदत पड़ चुकी थी।
डॉ आंबेडकर ने अछूत समझे जाने वाले समुदाय की राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना शुरू किया। इस सिलसिले में उन्होंने द्वितीय अंग्रेज-मराठा लड़ाई में जनवरी 1818 को हुई कोरेगाँव की लड़ाई के दौरान मारे गये महार सैनिकों के सम्मान में 1 जनवरी 1927 को कोरेगाँव विजय स्मारक (जयस्तंभ) में एक समारोह आयोजित कर सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये तथा कोरेगांव को दलित स्वाभिमान का प्रतीक बनाया।
महाड़ का सत्याग्रह जिसे चवदार तालाब सत्याग्रह या महाड का मुक्तिसंग्राम के नाम से भी जाना जाता है, वह डॉ आंबेडकर की अगुवाई में 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र के महाड स्थित सार्वजनिक चवदार तालाब से दलितों को पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के लिए किया गया एक प्रभावी सत्याग्रह था। इस दिन को भारत में सामाजिक सशक्तिकरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस सत्याग्रह में हजारों की संख्या में दलित महाड के चवदार तालाब पहुँचे और वहाँ सबसे पहले आंबेडकर ने अपने दोनों हाथों से उस तालाब का पानी पिया। फिर हजारों सत्याग्रहियों ने उनका अनुकरण किया। यह आंबेडकर का पहला सत्याग्रह था। पेयजल के सार्वजनिक स्रोत समाज के सभी वर्गों के लिये खुलवाने के अलावा उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया।
अछूतों को विभिन्न अधिकार दिलाने के संघर्ष का सिलसिला लंबा चला। मुंबई प्रेसिडेंसी में उस समय एक कानून था कि अगर कोई सफाईकर्मी एक दिन भी मैला साफ नहीं करता तो उसे जुर्माना देना पड़ता था। इस अन्यायपूर्ण कानून का सर्वप्रथम विरोध करने का साहस डॉ आंबेडकर ने दिखाया। उन्होंने प्राइवेट बिल के जरिए यह कानून निरस्त करवाया। उनकी बढ़ती लोकप्रियता का नतीज़ा यह निकला कि सन 1932 में लंदन में आयोजित दूसरे गोलमेज कांफ्रेंस में उन्हें डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। पृथक मतदाता मंडलों के प्रश्न पर उनका गांधी जी से विवाद इस कॉन्फ्रेंस में हुआ।
महात्मा गांधी और डॉ आंबेडकर के विचारों में सैद्धांतिक मतभेद थे। गांधी जी ने दलितों को हिंदू समाज का एक अभिन्न अंग मानते हुए उनके लिए पृथक राजनीतिक अस्तित्व का विरोध किया, जबकि आंबेडकर शुरू से ही हिंदू धर्म में छुआछूत और दलितों के शोषण का विरोध कर दलितों के विकास के लिए पृथक राजनीतिक अस्तित्व के सहारे उनका सशक्तिकरण चाहते थे। छुआछूत के विरोध में गांधी जी का अभियान डॉ आंबेडकर के साथ हुए पूना पैक्ट के बाद ही शुरू हुआ था।
सन 1935 में डॉ आंबेडकर को गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, मुंबई का प्राचार्य नियुक्त किया गया। इस पद पर उन्होंने दो वर्ष कार्य किया। पुस्तक- प्रेमी और पढ़ाकू प्रवृत्ति के होने के कारण उनके व्यक्तिगत पुस्तकालय में पचास हजार पुस्तकें थीं। ये पुस्तकें उन्होंने बाद में कॉलेज को भेंट कर दी।
डॉ आंबेडकर ने सन 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना किसानों, मजदूरों औऱ अछूतों के व्यापक मोर्चे के रूप की। परन्तु इस अभियान में अपेक्षित सफलता हासिल नहीं होने के कारण सन 1942 में उन्होंने इस पार्टी को भंग करके ऑल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन का गठन किया जिसके घोषणापत्र में तीन बातें स्पष्ट रूप से उभरीं:-
बाबा साहेब का लोकतंत्र के प्रति लगाव;
दूसरा, दलीय शासन प्रणाली की वकालत;
तीसरा, दलितों को हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी ताकतों से दूर रहने की सलाह।
डॉ आंबेडकर आजीवन जाति के ध्वंस, मनुस्मृति के दहन और तमाम तरह की गैर- बराबरी के खात्मे के लिए संघर्षरत रहे। उनकी सत्यनिष्ठा एवं दृढ़ता ने उनको असाधारण बना दिया।
श्रेष्ठ समाज-शोधक:-
डॉ आम्बेडकर ने भारतीय समाज में चतुर्वर्ण -व्यवस्था , जाति-प्रथा तथा अस्पृश्यता को अवैज्ञानिक, अमानवीय, अन्यायपूर्ण, अत्याचारपूर्ण, शोषणकारी सामाजिक षडयंत्र करार देते हुए इनकी कटु आलोचना की। यह व्यवस्था श्रम के विभाजन पर आधारित न होकर श्रमिकों के विभाजन पर अवलंबित थी। जातीय आधार पर व्यक्तियों के कार्यों का जन्म से ही निर्धारण हो जाता है। इसमें व्यक्ति की खुद की काबिलियत औऱ उसका प्रशिक्षण महत्वहीन हो जाता है। इस व्यवस्था से सामाजिक जड़ता ( social stability ) पुख़्ता होती है, क्योंकि कोई व्यक्ति अपनी जाति का स्वेच्छा से परिवर्तन नहीं कर सकता। फलत: यह व्यवस्था संकीर्ण प्रवृत्तियों को जन्म देती है, क्योंकि हर व्यक्ति अपनी जाति के अस्तित्व के लिए अधिक जागरूक होता है। इसका नतीजा यह निकलता है कि विभिन्न जातियों के लोगों में राष्ट्रीयता का संचार नहीं हो पाता। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए हमारे संविधान की प्रस्तावना 'हम भारत के लोग' शब्दों से की गई है। इसकी व्याख्या करते हुए डॉ आंबेडकर ने अपने भाषण में कहा था:
"मेरा विचार है कि 'हम एक राष्ट्र हैं', ऐसा मानकर हम एक बड़े भ्रम को बढ़ावा दे रहे हैं। हजारों जातियों में बंटे लोग भला एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही हमारे लिए बेहतर होगा। तभी हम राष्ट्र बनने की जरूरत को बेहतर समझ पाएंगे। ( जाति प्रथा के रहते ) इस उद्देश्य की प्राप्ति कठिन है... जातियां राष्ट्र- विरोधी हैं। पहला कारण तो यह कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव को बढ़ावा देती हैं। दूसरे, वे एक जाति और दूसरी जाति के बीच ईर्ष्या और असहिष्णुता को ले आती हैं। अगर हम सच में राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सब मुश्किलों से मुक्ति पानी होगी। असली भाईचारा तभी कायम हो सकता है जब राष्ट्र मौजूद हो, लेकिन बगैर बंधुत्व के समानता, स्वाधीनता और राष्ट्रीयता महज दिखावा ही होंगी।"
सामाजिक न्याय के प्रहरी थे अम्बेडकर
डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'शूद्र कौन थे?( Who were Shudras? ) में चौथे वर्ण की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला तथा The Untouchables: A Thesis on the Origins of Untouchability शीषर्क से लिखी पुस्तक में छुआछूत के उद्गम को रेखाँकित किया।
डॉ आंबेडकर के समाज दर्शन के अनुसार छुआछूत की जड़ वर्ण-व्यवस्था है, जो कि कालांतर में जाति- व्यवस्था में परिवर्तित होकर अपरिवर्तनीय हो गई। भारत में जातीय श्रेष्ठता का आधार जन्म है न कि कर्म ( मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक क्रमांक 129 ) डॉ आंबेडकर का मानना था कि जाति ईंट की दीवार जैसे कोई भौतिक वस्तु नहीं है। यह एक विचार है ,एक मनःस्थिति है, जिसकी नींव धर्म-शास्त्रों की पवित्रता को स्वीकार करने में निहित है।
डॉ आंबेडकर ने अपनी विचारोत्तेजक कृति Annhilation of Caste ( जातिप्रथा - उन्मूलन ) के ज़रिए जाति-प्रथा की खामियों को उज़ागर करते हुए इसके ख़िलाफ़ देश में वैचारिक माहौल बनाने में योगदान दिया। उनका सुझाव था कि अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देकर और अछूतों को पुरोहित बनाकर हिंदू धर्म को उसकी बुराइयों से मुक्त किया जा सकता है।
डॉ आंबेडकर ऐसे प्रथम भारतीय चिंतक एवं समाज-सुधारक थे, जिन्होंने समतावादी सामाजिक व्यवस्था अर्थात स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के आदर्शों पर आधारित समाज व देश की कल्पना की तथा ऐसी व्यवस्था की स्थापना के लिए जीवन भर संघर्ष भी किया। उनके अनुसार सामाजिक न्याय का आधार सभी मनुष्यों के बीच समानता, उदारता तथा भाईचारे की भावना है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य जाति, रंग, लिंग, शक्ति, स्थिति तथा धन- दौलत आदि पर आधारित सभी असमानताओं को दूर करना है। संविधान की प्रस्तावना में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता जैसे शब्दों का प्रयोग सामाजिक न्याय के बारे में डॉ आंबेडकर की धारणाओं के अनुरूप हैं।
उन्होंने ही भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण व जाति के आधार पर छुआछूत, समानता एवं शोषण की स्थिति के खिलाफ सामाजिक न्याय की अवधारणा को संविधान की मूल पृष्ठभूमि में स्थान दिलाया। सामाजिक न्याय की अवधारणा का मूल अभिप्राय यह है कि नागरिक व नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति में कोई भेदभाव न हो। उन्होंने दलित समुदाय को तिरस्कार तथा अधीनता के उस दलदल से उबारा, जिसमें उसे एक सामाजिक षड्यंत्र के तहत सदियों से धकेल रखा था।
डॉ आंबेडकर मानते थे कि प्रत्येक दलित-शोषित को पूर्व स्थापित सामाजिक संरचना, रीति-रिवाजों, विश्वासों और व्यवहार के विरुद्ध लड़ना होगा। अधिकार कभी भी दान में हासिल नहीं हो सकते। उनका विश्वास था कि उच्च वर्गों की सहानुभूति मात्र से दलितों-शोषितों का उत्थान नहीं हो सकता। दलितों का वास्तविक उत्थान तब होगा जब वे स्वयं जागृत होकर लड़ना सीखेंगे। उनका संदेश था: 'शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।' संगठित रहने और न्याय के लिए संघर्ष करने के लिए शिक्षित होना जरूरी है। प्रगति का रास्ता केवल शिक्षा से होकर गुजरता है। डॉ आंबेडकर के अनुसार मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य बुद्धि का विकास है। वे शिक्षा और शील ( आचरण/ चरित्र ) को एक दूसरे का पूरक मानते थे। " शिक्षा के साथ ही मनुष्य का शील सुधारना चाहिए। शील के बिना शिक्षा का मूल्य शून्य है। ज्ञान तलवार की धार जैसा है। तलवार का सदुपयोग और दुरुपयोग उसको पकड़ने वाले पर निर्भर करता है। यदि पढ़ा-लिखा व्यक्ति शीलवान होगा तो वह अपने ज्ञान का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए करेगा।"
स्त्री- मुक्ति के सूत्रधार :-
कामगारों के सभी तबकों की सामाजिक मुक्ति की डॉ आंबेडकर की चिंता स्त्री समुदाय की मुक्ति तक जाती है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं के प्रति होने वाले लैंगिक भेदभाव (जेंडर डिस्क्रिमिनेशन) को खत्म करने हेतु सार्थक कदम उठाने का श्रेय भी डॉ आंबेडकर को जाता है। उन्होंने महिलाओं को अधिकार देने तथा उन्हें सशक्त बनाने के लिए सन 1951 में हिंदू कोड बिल संसद में पेश किया, जिसके तहत महिलाओं को विवाह विच्छेद ( तलाक ) का अधिकार, हिंदू कानून के अनुसार विवाहित व्यक्ति के लिए एकाधिक पत्नी रखने पर प्रतिबंध तथा विधवाओं व अविवाहित कन्याओं को बिना शर्त पिता या पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनने का हक और विशेष विवाह के अधिकार के प्रावधान किए गए।
हिंदू कोड बिल में एकल विवाह प्रथा और तलाक के मामले में महिलाओं के पक्ष में क्रन्तिकारी प्रावधान किए गए। यह बिल हमारे पुरूष प्रधान समाज से ऐसी तमाम कुरीतियों को दूर करने के लिए था, जिन्हें हिन्दू धर्म की परम्परा के नाम पर कट्टरपंथी जिंदा रखना चाहते थे। इस बिल के प्रावधानों को प्रधानमंत्री नेहरू व उनकी कैबिनेट तथा प्रगतिशील सोच के कांग्रेसी सांसदों का पुरजोर समर्थन प्राप्त था, परन्तु कांग्रेस का हिंदूवादी धड़ा, जनसंघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा व रामराज्य परिषद की स्थापना करने वाले करपात्री महाराज आदि ने इस बिल को हिन्दू धर्म में हस्तक्षेप मानते हुए इसकी पुरजोर विरोध किया। संसद के अंदर और बाहर विद्रोह मच गया। महिला सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक कदम साबित होने वाला यह विधेयक पारित नहीं होने पर डॉ आंबेडकर ने व्यथित होकर 27 सितम्बर 1951 को कानून मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया। उनका मानना था कि महिलाओं की उन्नति तभी संभव होगी जब उन्हें घर-परिवार और समाज में सामाजिक बराबरी का दर्जा मिलेगा। डाॅ आंबेडकर ने महिला सशक्तिकरण के सम्बंध में कहा था, ‘मैं किसी समुदाय की प्रगति को, महिलाओं ने जो प्रगति हासिल की है, उससे मापता हूँ।’ उनके इस कथन में महात्मा फुले विचारों की छाप मिलती है। सन 1951में संसद में प्रस्तुत इस हिन्दू कोड बिल को बाद में नेहरू जी ने हिंदू विवाह एक्ट, हिंदू उत्तराधिकार एक्ट, हिंदू स्पेशल मैरिज एक्ट आदि कई हिस्सों में विभक्त कर सन 1956 में पास करवाया ।
उल्लेखनीय है कि सन 1952 में डॉ आंबेडकर ने प्रथम आम चुनाव में भाग लेकर उत्तरी मुम्बई सीट से लोकसभा का चुनाव एक निर्दलीय सदस्य के रूप में लड़ा था पर वे हार गए। मार्च 1952 में उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानी राज्यसभा का सदस्य बनाया गया और वे अपनी मृत्यु तक इस सदन के सदस्य रहे।
बाबा साहेब द्वारा धर्मान्तरण करने का कारण-
संसद में सन 1951 में पेश हिंदू कोड बिल के सवाल पर हिन्दू पुरातनपंथी तत्वों के प्रतिरोध से डॉ आंबेडकर बेहद विचलित हो गए थे। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हिंदू धर्म में समानता संभव नहीं है। इसलिए अंततः उन्होंने हिंदू धर्म का परित्याग कर 15 अक्टूबर 1956 को भारी संख्या में अपने समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
डॉ.आंबेडकर ने अपनी रचनाओं में बार-बार हिंदू धर्म को मनुष्य विरोधी और शूद्रों का दुश्मन क़रार दिया है। वे कहते हैं, "हिन्दू धर्म में विवेक, कारण और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए।" हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म स्वीकार करते समय उन्होंने अनुयायियों को 22 प्रतिज्ञाएँ दिलवाई थीं जिनमें दूसरी प्रतिज्ञा है –' मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा!'
डॉ आंबेडकर के लिए महात्मा बुद्ध इसलिए महत्वपूर्ण थे कि उन्होंने जाति पर सवालिया निशान लगाते हुए समानता आधारित समाज का सपना देखा था। बौद्ध धर्म में मानव एवं मानव के मध्य समानता के साथ-साथ स्त्री एवं पुरुष की भी समानता का समर्थन किया गया है। उन्होंने धर्मांतरण किया परंतु वे भारतीयता से कभी विमुख नहीं हुए। भारतीयता एक ऐसी मानसिक स्थिति है जो धर्म से ऊपर है। नेहरू जी के शब्दों में , 'डॉ आम्बेडकर , हिंदू समाज की दमनकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध किए गए विद्रोह का प्रतीक थे।'
हिन्दू धर्म और डॉ आंबेडकर
हिंदुत्ववादी शक्तियाँ अपने पोलिटिकल प्रोजेक्ट के हिसाब से डॉ अंबेेडकर को ’हिन्दू आइकॉन’ के रूप में पेश करने का प्रयास कर रही हैं। यह एक किस्म का वैचारिक दुस्साहस ही कहा जाएगा कि अंबेेडकर जैसे हिंदुत्व विरोधी और प्रगतिशील-लोकतांत्रिक विचारक नेता को हिंदुत्व के खांचे में समाहित करने की कोशिश की जा रही है। युवा चिंतक डॉ रामायन राम अपने सारगर्भित लेख 'हिंदुत्व, हिन्दू राष्ट्र और डॉ आंबेडकर' में स्पष्ट करते हैं कि डॉ. अंबेेडकर हिन्दू धर्म, हिंदुत्व की राजनीति और हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के प्रबल विरोधी थे। वे हिन्दू धर्म को ’धर्म’ मानने के लिए ही तैयार नहीं थे। उनके अनुसार हिन्दू धर्म वर्ण व्यवस्था से अलग कुछ भी नहीं है। इसका एकमात्र आधार जाति व्यवस्था है और जाति के समाप्त होते ही हिन्दू धर्म का कोई अस्तित्व नहीं रह जायेगा।
डॉ आंबेडकर का स्पष्ट मत था कि नियमबद्ध धर्म के स्थान पर ‘सिद्धान्तों’ का धर्म होना चाहिए। धर्म बौद्धिकता पर टिका होना चाहिए, जिसे दूसरे शब्दों में विज्ञान कहा जा सकता है।’ इसके नैतिक नियमों में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व भाव का समावेश हो, जब तक सामाजिक स्तर पर धर्म में ये तीन गुण विद्यमान नहीं होगें, धर्म का विनाश हो जाएगा।
डॉ अंबेडकर का मानना था कि हिंदुओं ने अपनी जाति के हित-स्वार्थों की रक्षा करने में अपने देश के प्रति विश्वासघात किया है। अपने तर्कों के जरिये उन्होंने हिंदू राष्ट्र की संभावना को ही खारिज किया है। हिंदुत्व में राजनैतिक संदर्भ से ही नहीं बल्कि हिंदू धर्म की आंतरिक संरचना और उसका स्वरूप विभाजनकारी है जिसमें लोकतांत्रिक सारतत्व का अभाव है।
डाॅ अंबेडकर ने सनातन हिंदू धर्म के सभी आधारों को अस्वीकार करने के लिए ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने वेदों के अपौरूषेय होने, हिंदू धर्म की सनातनता, वर्णाश्रम तथा ब्रह्म की अवधारणा की एक-एक कर धज्जियां उड़ाई हैं। हिंदू धर्म के विमर्शकार डाॅ अंबेडकर के तर्कों से भले ही सहमत न हों या फिर अंबेडकर के इन विचारों के स्रोत पर प्रश्न चिह्न खड़ा करें, लेकिन जिस तार्किक और वैज्ञानिक शैली में उन्होंने अपना पक्ष को रखा है, वह बेजोड़ है।
जनतंत्र व समाज पर डॉ आंबेडकर के विचार :-
‘वायस ऑफ अमेरिका’ रेडियो पर दिए गए अपने विचोरोत्तजक व्याख्यान (20 मई 1956) में डॉ आंबेडकर जनतंत्र की अवधारणा पर रोशनी डालते हुए कहते हैं कि जनतंत्र को शासन के एक रूप तक सीमित करना ठीक नहीं। जनतंत्र मुख्यतः मिलजुल कर रहने की एक प्रणाली होती है तथा इसकी जड़ों को सामाजिक संबंधों में, लोगों के बीच मिलेजुले जीवन के संदर्भ में, जिससे समाज निर्मित होता है, तलाशा जाना चाहिए।
‘समाज’ शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए डॉ आंबेडकर कहते हैं कि समाज के स्वरूप में एकता के साथ जो गुण नत्थी होते हैं उसमें एक साझे उद्देश्य का समुदाय और सबके कल्याण की आकांक्षा, सार्वजनिक हितों की प्रति प्रतिबद्धता और सहानुभूति और सहयोग की पारस्पारिकता शामिल होते हैं। भारतीय समाज की पड़ताल करते हुए वे प्रश्न उठाते हैं कि क्या ‘ऐसे आदर्श भारतीय समाज में मिलते हैं?’ डॉ आंबेडकर के अनुसार भारतीय समाज और कुछ नहीं बल्कि ‘अनंत जातियों का समूह है जो अपने अस्तित्व में असमावेशी है
बाबासाहेब आंबेडकर की पुस्तकें एवं पत्रिकाएं
भारत का राष्ट्रीय अंश
भारत में जातियां और उनका मशीनीकरण
भारत में लघु कृषि और उनके उपचार
मूक नायक (साप्ताहिक)
ब्रिटिश भारत में साम्राज्यवादी वित्त का विकेंद्रीकरण
रुपये की समस्या: उद्भव और समाधान
ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का अभ्युदय
बहिष्कृत भारत (साप्ताहिक)
जनता (साप्ताहिक)
जाति का निषेध
संघ बनाम स्वतंत्रता
पाकिस्तान पर विचार
श्री गाँधी एवं अछूतों की विमुक्ति
रानाडे, गाँधी और जिन्ना
कांग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया
शूद्र कौन और कैसे
महाराष्ट्र भाषाई प्रान्त
भगवान बुद्ध और उनका धर्म
वेटिंग फॉर वीजा (आत्मकथा)
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