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Sarnchnatmk adhigam संरचनात्मक अधिगम ब्रुनर |
संरचनात्मक अधिगम
संरचनात्मक अधिगम सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरीकी मनोवैज्ञानिक जैरोम ब्रूनर द्वारा दिया गया है।
(1) सक्रियता विधि
-इस विधि में शिशु अपनी अनुभूतियों को शब्दहीन क्रियाओं के द्वारा व्यक्त करता है। जैसे -भूख लगने पर रोना, हाथ-पैर हिलाना आदि इन क्रियाओं द्वारा बालक वाह्य वातावरण से सम्बन्ध स्थापित करता है।
(2) दृश्य प्रतिमा विधि
इस विधि में बालक अपनी अनुभूति को अपने मन में कुछ दृश्य प्रतिमांए ;टपेनंस पउंहमेद्ध-बनाकर प्रकट करता है। इस अवस्था में बच्चा प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से सीखता है।
(3) सांकेतिक विधि
इस विधि में बालक अपनी अनुभूतियों को ध्वन्यात्मक संकेतो (भाषा) के माध्यम से व्यक्त करता है। इस अवस्था में बालक अपने अनुभवों को शब्दों में व्यक्त करता। इस प्रकार बालक प्रतीकों (Symbols) का उनके मूल विचारों से सम्बन्धित करने की योग्यता का विकास करता है।
व्यक्ति कैसे सीखते है व ज्ञान की प्रकृति क्या है? आदि प्रश्नों के उत्तर में संरचनात्मकता का प्रयोग किया जा रहा है। संरचनात्मकता शब्द से अभिप्राय अधिगमकर्ता के द्वारा स्वयं के लिए ज्ञान की संरचना से है। प्रत्येक अधिगमकर्ता अधिगम से वैयक्तिक एवं सामाजिक अर्थ की संरचना करता है। इस प्रकार अधिगम अर्थ संरचित करने की प्रक्रिया है। 1 संरचनाओं के अध्ययन की अचेतन प्रकृति का संभवतया उत्तम उदाहरण मातृभाषा अध्ययन में देखा जा सकता है। किसी वाक्य की मुख्य संरचना पकड़ में आते ही बालक तीव्र गति से कई वाक्यों की रचना करना सीख जाता है जो उसी नमूने पर बने होते है। यही संरचनात्मक अधिगम है।
संरचना का महत्व:किसी भी सीखने की क्रिया का पहला उद्देश्य उससे प्राप्त होने वाले आनंद के अलावा वह भविष्य में किसी कार्य में सहायक होता है। शिक्षा भविष्य में दो प्रकार से काम आती है।
(i) विद्यालयी शिक्षा से ऐसी कुशलताएँ प्राप्त होती हैं जो कालान्तरण में विद्यालय में या बाहर प्रस्तुत होने वाली मुख्य क्रियाओं में स्थानान्तरित होती हैं इसे अधिगम का विशिष्ट अन्तरण कहते हैं।
(ii) पहले से प्राप्त ज्ञान के द्वारा आगे का कार्य अधिक
कुशलतापूर्वक किया जा सके। इसे अधिगम का अविशिष्ट अन्तरण कहते हैं।
अर्थात् पहले आधारभूत ज्ञान या विचार सीखा जाता है, कौशल बाद में आता है। जिसका बाद में आने वाली समस्याओं के अर्जित आधारभूत विचार के विशिष्ट उदाहरणों के रूप में उपयोग किया जाता हैं। इस प्रकार का अन्तरण शिक्षण-प्रक्रिया का आधार है जो सामान्य और मूलभूत विचारों के सन्दर्भ में ज्ञान को निरन्तर विस्तृत एवं गहनता प्रदान करता है।
नई परिस्थिति में किसी विचार की उपयोगिता या अनुपयोगिता पहिचान सकने और उसे अपने ज्ञान को विस्तृत कर सकने के लिए व्यक्ति के मस्तिष्क में उसके सामने उपस्थित घटना का स्वरूप होना चाहिए। सीखा गया विचार जितना अधिक बुनियादी होगा, नई समस्याओं पर उसके प्रयोग की परिधि भी उतनी ही अधिक विस्तृत होती जाएगी। विषय की मूल संरचना के अध्यापन के चार बिन्दु महत्वपूर्ण है।
1. आधारभूत सिद्धान्तों के ज्ञान से विषय को समझना सरल हो जाता है।
2. अब तक के अनुसन्धानों से यह निष्कर्ष निकला है कि यदि ज्ञान को एक संरचनात्मक प्रतिमान में न प्रस्तुत किया जाए तो वह शीघ्र ही विस्मृत हो जाता है। मूल व आधारभूत सिद्धान्त स्मृति में अधिक देर तक बने रहते हैं। आवश्यकता पड़ने पर स्मृति के आधार पर विषय की विस्तृत पुर्नरचना की जा सकती है
3. मूल सिद्धान्तों व प्रत्ययों की समझ प्रशिक्षण के अन्तर का मुख्य साधन है। किसी 'सामान्य' विषय के विशेष उदाहरण को समझने के लिए मूल सिद्धान्त को समझना पड़ता है। इसके भविष्य में उसके समानधर्मा व अन्य
बातों को समझने में सहायता मिलती है।
4. संरचना और सिद्धांतों के शिक्षण पर बल देने के लिए प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली सामग्री पर निरंतर पुनर्विचार किया जाए ताकि वहां उच्च
और प्राथमिक ज्ञान के अंतर को कम किया जा सके। इस प्रकार संरचनात्मक तरीके से अधिगम करवा कर अधिगम को अपेक्षाकृत ज्यादा स्थायी और प्रभावी बनाया जा सकता है।
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