Justice Bhushan Ramakrishna Gawai न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई पर वकील राकेश किशोर द्वारा जूता फेंकने की निन्दनीय करतूत Jagriti PathJagriti Path

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Wednesday, October 8, 2025

Justice Bhushan Ramakrishna Gawai न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई पर वकील राकेश किशोर द्वारा जूता फेंकने की निन्दनीय करतूत

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CJI 


न्यायमूर्ति  गवई पर जूता फेंकने की घटना लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कलंक 


नीचे मैं “न्यायमूर्ति (मुख्य न्यायाधीश) भूषण रामकृष्ण गवई पर जूता फेंकने की घटना” — जिसके बारे में अब तक सार्वजनिक रुप से प्रकाशित समाचार, प्रतिक्रियाएँ, तथ्यों एवं विश्लेषण इस लेख में उपलब्ध हैं ।
न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्ण गवई पर जूता फेंकने की कोशिश — या प्रयास — की यह घटना केवल एक विवादस्त समाचार नहीं है, बल्कि यह हमारे संवैधानिक लोकतंत्र, न्यायपालिका की गरिमा, वकील-न्यायाधीश संबंध, और सामाजिक-धार्मिक संवेदनशीलता के बीच तनाव को उजागर करती है।

न्यायालय उच्चतम न्यायपालिका का प्रतीक है। सुप्रीम कोर्ट, विशेषकर मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India, CJI) का स्थान संविधान की गरिमा, न्याय के मंदिर की प्रतिष्ठा और न्यायपालिका की अक्षुण्णता के समकक्ष माना जाता है। उस पवित्र स्थान पर यदि किसी व्यक्ति द्वारा सीधा हमला या अपमान की कोशिश होती है, तो वह केवल एक शारीरिक घटना नहीं होती — बल्कि वह न्याय व्यवस्था, लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों पर हमला मानी जाती है। ऐसी ही एक घटना 6 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में सामने आई है, जब वकील राकेश किशोर ने सीजेआई भूषण रामकृष्ण गवई की बेंच की ओर जूता फेंकने की — या फेंकने का प्रयास करने की करतूत निन्दनीय है। लेकिन इस मामले में कट्टर हिन्दू इस वकील के पक्ष की बात सोशल मीडिया पर करते हैं क्योंकि वकील एक मन्दिर और मूर्ति की बात करता है।

इस घटना ने न केवल मीडिया में हलचल मचाई है, बल्कि न्यायपालिका, वकील समुदाय, राजनीतिक दलों और आम जनता के बीच बहस और प्रतिक्रियाओं की बाढ़ ला दी है। यह किस प्रकार संभव हुआ, इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं, इसकी तत्काल और दीर्घकालीन निहितार्थ क्या हैं — ये सभी विषय इस लेख में देखने का प्रयत्न किया जाएगा।

भारतीय न्यायपालिका के चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति गवई एक दलित होने के नाते सोशल मीडिया पर उनके बारे में हल्की बातें बताई गई। हालांकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है ऐसे में एक धर्म के विशेष प्रोटेक्शन और झुकाव पर हर कोई निष्पक्ष न्यायाधीश ऐसे मामलों को महत्व नहीं देता जो धार्मिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हों। यह मामला भी एक मन्दिर की मूर्ति की मरम्मत से जुड़ा है ऐसे में न्यायमूर्ति गवई द्वारा समर्थन नहीं करने पर वकील भड़क कर ऐसी हरकत की। 
सबसे बडा सवाल यह है की मुख्य न्यायाधीश के सामने ऐसी हरकत करने की हिम्मत आना किसी धार्मिक मानसिकता और भावात्मक समर्थन का विषय होता है। हालांकि न्यायमूर्ति गवई ने वकील को क्षमा भी कर दिया। लेकिन एक दलित पृष्ठभूमि के जज से ऐसा बर्ताव बयान करता है कि जब देश में सरकार और बड़े दबाव समुह धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा दे तो उनसे जुड़े लोग सुरक्षा तथा न्याय संस्थाओं से भयहीन हो जाते हैं। इसलिए ऐसे कृत्यों की सभी लोगों को निन्दा करनी चाहिए। नही तो आने वाले समय में लोग लोकतांत्रिक संस्थाओं के दायरों और सीमाओं को लांघकर प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा बन जायेंगे।


Suprime Court CJI घटना का समय और स्थान


यह घटना 6 अक्टूबर 2025 (सोमवार) को सुप्रीम कोर्ट की बेंच में सुनवाई के दौरान हुई। 

घटना स्थल सुप्रीम कोर्ट का कोर्टरूम था, जहाँ न्यायाधीश और वकील मौजूद थे। 

उस समय न्यायाधीशों द्वारा एक सुनवाई हो रही थी, और वकील राकेश किशोर बेंच के करीब आ गए। 

उन्होंने अपना जूता (या जूता निकालने की कोशिश) बेंच की ओर फेंकने का प्रयास किया। 

सुरक्षा कर्मियों ने तत्काल हस्तक्षेप किया और वकील को नियंत्रण में लिया। 

बाहरी जाते वक्त वकील ने नारेबाजी की, जैसे “सनातन धर्म का अपमान सहन नहीं होगा, हिंदुस्तान।” 

जूता सीजेआई तक नहीं पहुँचा, लेकिन पूरा विवाद और उसका साया मीडिया व चर्चाओं में फैल गया। 


इस प्रकार, मामला “पूर्ण फेंक” तो नहीं हुआ, परंतु “फेंकने की कोशिश” का प्रयास किया गया — और वह न्यायालय की गरिमा को झकझोर देने वाला था।

CJI पर जूता फेंकने की घटना के पीछे कथित कारण और पृष्ठभूमि


जब ऐसी घटना होती है, तो इसे सहज ही “एक पागलपन का प्रकरण” कह देना आसान है। परंतु इसके पीछे दबी भावनाएँ, नाराजगियाँ, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिक्रियाएँ और राजनीतिक विमर्श भी हो सकते हैं। निम्नलिखित कुछ मुख्य पहलू हैं जो इस घटना के पीछे मानी जा रही हैं:

धार्मिक-संवेदनशील पृष्ठभूमि


मीडिया रिपोर्टों में यह उल्लेख है कि राकेश किशोर ने इस कार्रवाई की वजह यह बताई कि सीजेआई गवई ने पहले एक खजुराहो मामले में टिप्पणी दी थी, जिसमें भगवान विष्णु की मूर्ति की बात आई थी। 

कथित रूप से सीजेआई ने याचिकाकर्ता से कहा था कि “आप कहते हैं कि आप भगवान विष्णु के बड़े भक्त हैं, आप उन्हीं से प्रार्थना कीजिए कि वह कुछ करें।” इस तरह की टिप्पणी को वकील ने धार्मिक भावनाओं के अपमान के रूप में लिया। 

वकील ने दावा किया कि वह खजुराहो की मूर्ति के टूटे हिस्से (सिर धड़ से अलग) के विषय से दुखी था और उसे न्यायालय में वह सवाल उठाना था। 

इस दृष्टिकोण से, यह घटना धार्मिक भावनाओं और न्यायमूर्ति की टिप्पणी के बीच टकराव की परिणति हो सकती है।


भारतीय न्यायपालिका और संवेदनशीलता


मुख्य न्यायाधीश जैसे व्यक्ति पर यह अपेक्षा होती है कि वे टिप्पणी करते समय संवेदनशील रहें, विशेषकर जब धार्मिक विषय हों। पर इस घटना ने यह सवाल उठाया कि न्यायाधीशों को कितनी स्वतन्त्रता हो, और वह अपनी टिप्पणियाँ कितना सावधानीपूर्वक दें।

सीजेआई गवई ने कहा है कि “इसी तरह की चीजों का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।” 

अदालत के अंदर वकिलों और न्यायाधीशों के बीच संवाद-संयम पर विशेष जोर रहता है। इस घटना ने न्यायालयीन भाषा, सम्मान और व्यावहारिक मर्यादा पर प्रश्न खड़े किए हैं।


जूता फेंकने वाले वकील की मानसिक स्थिति, व्यक्तिगत असंतोष


राकेश किशोर की उम्र 71 वर्ष है। 
उन्होंने कहा कि यह उनकी व्यक्तिगत नहीं, बल्कि “ईश्वरीय कार्य” था, और “परमात्मा ने मुझसे कराया।” 
इस बयानी से पता चलता है कि संभव है कि उनका मानसिक तनाव, आक्रोश या अत्यधिक भावनात्मक प्रतिक्रिया इस घटना में भूमिका निभाई हो।

यह भी हो सकता है कि उनकी नाराजगी किसी न्याय निर्णय, पूर्व टिप्पणी या सामाजिक-धार्मिक विवाद से जुड़ी हो, जिसने उन्हें तीव्र प्रतिक्रिया दिलाई हो।


सार्वजनिक और राजनीतिक दबाव


सोशल मीडिया और मीडिया कवरेज बहुत तेज और व्यापक था। वीडियो क्लिप और खबरें फैल गईं।

राजनीतिक दलों और सार्वजनिक व्यक्तियों ने इस घटना पर प्रतिक्रिया दी। उदाहरण के लिए, आम आदमी पार्टी ने वकील के घर के बाहर प्रदर्शन किया। 

बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने तत्काल कार्रवाई करते हुए राकेश किशोर की वकील लाइसेंस निलंबित कर दी। 

यह घटना धार्मिक और राजनीतिक विमर्श से जुड़ी मामलों में न्यायपालिका को घेरने की कोशिश हो सकती है।

सीजेआई पर जूता फेंकने की घटना पर मीडिया और प्रतिक्रियाएँ

यह घटना मीडिया में व्यापक रूप से कवर की गई और उसके बाद प्रतिक्रियाएँ भी तीव्र रहीं। यहाँ कुछ प्रमुख प्रतिक्रियाएँ:

न्यायमूर्ति गवई, उनके परिवार व न्यायपालिका की प्रतिक्रिया


गवई की मां, कमलताई गवई, ने कह दिया कि कानून हाथ में लेकर अराजकता फैलाने का कोई अधिकार नहीं है, और लोगों को मुद्दों को संवैधानिक और शांतिपूर्ण मार्ग से हल करना चाहिए। 

उनकी बहन, कीर्ति गवई, ने कहा कि यह घटना देश पर कलंक है, यह केवल व्यक्तिगत हमला नहीं, बल्कि एक जहरीली विचारधारा का प्रतीक है। 

सीजेआई गवई ने स्वयं न्यूनतम प्रतिक्रिया दी, यह कह कर कि उन्हें ऐसी चीजों से फर्क नहीं पड़ता और वकीलों से कहा कि वो अपनी दलीलें रखें। 

न्यायपालिका और वकील समुदाय ने इस घटना की निंदा की। कई कानून विशेषज्ञों ने कहा कि यह न्यायालय की गरिमा पर हमला है।


एक्शन बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI)


तुरंत ही, बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने राकेश किशोर की वकील लाइसेंस निलंबित कर दी। 
इस कार्रवाई को एक सख्त संकेत माना गया कि न्यायपालिका और वकील समुदाय असभ्य व्यवहार को स्वीकार नहीं करेंगे।


राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया


आम आदमी पार्टी (AAP) ने घटना के विरोध में वकील के घर के बाहर प्रदर्शन किया और इसे लोकतंत्र व संविधान के खिलाफ कार्य बताया। 

अन्य सामाजिक एवं दलित-समाजगत संगठन भी इस घटना की निंदा कर रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि ऐसे कृत्यों की कठोर दंडात्मक कार्रवाई हो। 

मीडिया और सार्वजनिक विमर्श में, इसे “न्यायमूर्ति पर हमला” और “न्यायपालिका की गरिमा पर हमला” के रूप में देखा गया। 

कुछ ने यह भी कहा कि यह घटना न्याययंत्रणा — और विशेष रूप से न्यायाधीशों की आज़ादी — को निशाना बनाने की कोशिश हो सकती है।

संवैधानिक, कानूनी और नैतिक सवाल


इस घटना ने अनेक संवैधानिक, कानूनी और नैतिक सवाल उठाए हैं। यहाँ उनके प्रमुख पहलू:

न्यायालय की गरिमा और अवमानना


किसी न्यायालय, विशेष रूप से उच्चतम न्यायालय, को उसकी गरिमा बनाए रखनी होती है। यदि वकील या अन्य किसी व्यक्ति द्वारा न्यायाधीश के प्रति हिंसात्मक आचरण किया जाए, तो यह “अदालत की अवमानना” (contempt of court) के दायरे में आ सकता है।

कानूनन, यदि यह साबित हो जाए कि वकील ने जानबूझ कर और अपमानित करने के उद्देश्य से ये कृत्य किया, तो उस पर अवमानना की कार्रवाई संभव है।

इस घटना में जूता सीजेआई तक नहीं पहुँचा, लेकिन प्रयास ही अप्रिय था। ऐसे मामलों में यह देखा जाता है कि कानून और अनुशासन की सीमा क्या होनी चाहिए।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता vs अनुशासन


भारत के संविधान की धारा 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है, लेकिन यह अनियंत्रित नहीं है। इस अधिकार की सीमा नियतृ (reasonable restrictions) है — जैसे सार्वजनिक व्यवस्था, मानहानि, अवमानना आदि।
वकील और नागरिकों को अपनी आलोचना और विरोध करने का अधिकार है, पर अदालत में हिंसात्मक या अपमानजनक कृत्य संवैधानिक सीमा उल्लंघन हो सकती है।
इस घटना ने यह प्रश्न खड़ा किया कि वकील किस हद तक कोर्ट में अपनी नाराज़गी व्यक्त कर सकते हैं, और कब वह व्यवहार अनुशासनात्मक दायरे में आ जाएगा।


न्यायाधीश की टिप्पणी और संवेदनशीलता


न्यायाधीशों को यह ध्यान रखना होता है कि उनकी कहानियाँ, टिप्पणियाँ संवेदनशील विषयों — जैसे धर्म — से जुड़े मामलों में अनावश्यक विवाद न उत्पन्न करें।
पर न्यायाधीश भी नागरिक हैं और उन्हें प्रश्न पूछने एवं दृष्टिकोण व्यक्त करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। मुख्य प्रश्न यह है कि यह स्वतंत्रता कितनी हो - और तर्क-संतुलन कहां हो।
यदि टिप्पणी विषय-वस्तु पर न्यायालयीन दृष्टिकोण के संदर्भ में हो और व्यक्तिगत अपमान का आशय न हो, तो इसे सामान्य न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा माना जाना चाहिए।

सुरक्षा और न्यायालय व्यवस्था


इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट सहित उच्च न्यायालयों में सुरक्षा व्यवस्था कितनी मजबूत होनी चाहिए।
यदि किसी वकील ने बेंच की ओर आने तथा हिंसात्मक कदम उठाने की योजना बना ली हो, तो सुरक्षा प्रोटोकॉल की समीक्षा आवश्यक है।
हालांकि, सुरक्षा को बढ़ाना महत्वपूर्ण है, पर न्यायालय को “कोर्ट-फोर्ट्रेस” जैसा माहौल भी न बन जाना चाहिए कि वह जनता से कट जाए।

इस घटना की संभावित दूरगामी प्रभाव और सबक


गुज़रते समय इस घटना के दूरगामी प्रभाव और उससे मिलने वाले सबक अधिक महत्वपूर्ण होंगे। नीचे मैं कुछ संभावित प्रभाव और सबक सूचीबद्ध कर रहा हूँ:

मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने घटना का प्रभाव


1. न्यायालयीन प्रक्रिया पर पारदर्शिता और जवाबदेही
— यह घटना न्यायपालिका को और अधिक पारदर्शी और संवेदनशील बनाती है। न्यायाधीशों की टिप्पणियाँ और उनकी पद्धति जनता की निगरानी में आएंगी।
— वकील समुदाय की जवाबदेही बढ़ेगी, और अनुशासनात्मक मानक सख्त होंगे।


2. वकील-न्यायाधीश संबंधों में तनाव

— इस घटना के बाद, वकील और न्यायाधीशों के बीच विश्वास और समन्वय प्रभावित हो सकते हैं। वकील अधिक सतर्क होंगे कि वे न्यायाधीशों के प्रति सम्मान बरतें।
— न्यायालयों में प्रकिया धीमी हो सकती है, यदि सुरक्षा या अनुशासन संबंधी बाधाएँ बढ़ती हैं।


3. न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सुरक्षा

— यदि नियम-कानून दोषपूर्ण प्रतिक्रिया दें या न्यायाधीशों की सुरक्षा कमजोर दिखे, तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रश्न खड़ा कर सकता है।
— न्यायालयों को और अधिक सुरक्षा, पिछली घटनाओं का अध्ययन और संभावित खतरों का सामना करने की रणनीति बनानी होगी।


4. धार्मिक विवाद व संवेदनशीलता

— इस घटना ने यह दिखाया कि धार्मिक भावनाएँ न्यायिक मामलों में तेज़ी से भड़क सकती हैं।
— ऐसे मामलों में न्यायालयों को टिप्पणी करते समय अत्यंत सावधानी बरतनी होगी।


5. सार्वजनिक विश्वास

— यदि न्यायपालिका इस घटना को गंभीरता से न ले और वह उचित कार्रवाई न करे, तो जनता का न्याय व्यवस्था में विश्वास डगमगा सकता है।
— यदि कार्रवाई ठोस हो और संवाद-संयम का माहौल बने, तो यह न्यायपालिका की मर्यादा को पुनरुज्जीवित कर सकता है।



1. न्यायाधीशों को टिप्पणी में संयम अपनाना चाहिए
— विशेषकर धार्मिक-संवेदनशील मामलों में, न्यायाधीशों को स्पष्टता, संयम और दृष्टिकोण निरपेक्षता बनाए रखनी होगी।
— अनावश्यक भावनात्मक भाषा से बचना चाहिए।


2. वकीलों को मर्यादा और सुसंस्कार अपनाना चाहिए
— वकील का कर्तव्य है कि वे अदालत में सुशोभित एवं सम्मानजनक व्यवहार करें।
— यदि असहमति हो, तो अपने तर्क और विधिक व्यवस्था के भीतर ही संघर्ष करना चाहिए, न कि हिंसा या अपमान से।


3. न्यायालयों को सुरक्षा और प्रोटोकॉल सुदृढ़ करना चाहिए
— सुरक्षा कर्मियों, वेजिंग इंट्री प्वाइंट, वकील बेंच के निकट असामान्य गतिविधि न हो, और अलर्ट सिस्टम होना चाहिए।
— संभावित तनावपूर्ण मामलों के लिए पूर्व चेतावनी प्रणाली विकसित हो सकती है।


4. सामाजिक-धार्मिक विवाद को संवेदनशील रूप से संभालना चाहिए
— न्यायालयों में धार्मिक मामलों की सुनवाई करते समय विस्तृत अध्ययन और संतुलित दृष्टिकोण बनाए रखना चाहिए।
— मीडिया, सामाजिक संगठन और पक्षकारों को संवेदनशील पोस्टिंग और भाषा के प्रयोग में सतर्कता बरतनी चाहिए।


5. स्वतंत्रता, सुरक्षा और अनुशासन में संतुलन
— न्यायाधीशों, वकीलों और न्यायालय व्यवस्था को यह समझना चाहिए कि आजाद अभिव्यक्ति और सुरक्षा-नियंत्रण के बीच संतुलन जरूरी है।
— व्यवहारिक दिशा-निर्देश (guidelines) तैयार किए जाएँ जिससे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सके।


संभावित आलोचनाएँ और सावधानियाँ


जब हम इस घटना का वर्णन करते हैं और विश्लेषण करते हैं, तो कुछ सावधानियाँ और आलोचनाएँ ध्यान में रखनी चाहिए:
मीडिया रिपोर्टों में तफ्सीलों और तटस्थता का स्तर भिन्न हो सकता है। किसी रिपोर्ट में आधारहीन दावे या अतिशयोक्ति हो सकती है।

घटना के बाद उपलब्ध बयानों (वकील का बयान, न्यायाधीश का बयान, सुरक्षा कर्मियों की जानकारी) में विरोधाभास हो सकते हैं।

न्यायालयीन प्रक्रिया अभी (जब यह लेख लिख रहा हूँ) पूरी नहीं हुई है — कोई अंतिम निर्णय नहीं आया हो।

मानवीय दृष्टिकोण से, किसी व्यक्ति की मानसिक स्थिति, आक्रोश या उत्तेजना को देखते हुए उसके पीछे सामाजिक-राजनीतिक दबाव हो सकते हैं, जिन्हें बाहर से पूरी तरह समझना मुश्किल है।

इस घटना को धार्मिक प्रतिरोध या कट्टरवाद से जोड़ना आसान है, पर असली कारण वैधानिक और न्यायिक सवाल हो सकते हैं, जिन्हें विवेचना के बाद ही स्पष्ट किया जाना चाहिए।

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