Bhima kore gaon भीमा कोरे गांव
बात उस समय की है जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था। ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के समय भारतीय किसानों और पिछड़े वर्ग की हालत खराब होती जा रही थी। अंग्रेजी सेनाएं हिन्दुस्तान के शासकों से अपने साम्राज्य फैलाने में लड़ रही थी वहीं भारतीय गरीब तबका सामंतवाद तथा स्थानीय शासकों के कर तथा युद्धों के आर्थिक बोझ से निराश थी। उसी समय भीमा कोरे गांव में ऐतिहासिक युद्ध लड़ा जाता है हालांकि इतिहास में युद्ध तो बहुत हुए हैं लेकिन यह युद्ध महार समुदाय के शौर्य और पराक्रम से जुड़ा हुआ है इसलिए इतिहास में यह चर्चित युद्ध रहा है। भीमा-कोरेगांव वो जगह है जहाँ 1 जनवरी 1818 को मराठा और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ था।
इस युद्ध में महार समुदाय ने पेशवाओं के खिलाफ अंग्रेज़ों की ओर से लड़ाई लड़ी थी। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी ने महार रेज़िमेंट की बदौलत ही पेशवा की सेना को हराया था।
म्हारों की इस विजय की याद में ही यहां 'विजय स्तंभ' की स्थापना की गई है, जहां हर साल एक जनवरी को दलित समुदाय के लोग, युद्ध में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने और अपने पूर्वजों के शौर्य को याद करने के लिए जुटते हैं।
यहां जो स्मारक स्तम्भ बना हुआ है उसपर 1818 के युद्ध में शहीद हुए गए महार योद्धाओं के नाम अंकित हैं।
भीमा कोरेगांव युद्ध के कारण और इतिहास
भीमा कोरे गांव युद्ध की नींव तब पड़ चुकी थी जब 11 मार्च सन 1689 को पेशवाओं ने शम्भाजी महाराज को खत्म कर उनके शरीर के टुकड़े कर तुलापुर नदी में फेंक दिया था।
शम्भाजी महाराज की मृत्यु के बाद पेशवाओं ने महार जाति के लोगों पर खूब अत्याचार किए। महार जाति अपने पर हो रहे अत्याचारों से मुक्ति चाहती थी। इसलिए अपने अधिकारों और सम्मान के लिए महार जाति के लोगों ने पेशवाओं को सबक सिखाने की ठान ली। महार जाति के लोगों को सेना में लड़ने पर पेशावाओ ने रोक लगा दी थी।
उसी समय अंग्रेजी सेना पेशवाओं को हराने में सफ़ल नहीं हो रहे थे तभी महार जाति का एक नवयुवक सिद्धनाक पेशवाओं से से समझौता करने और अपने अधिकार लौटाने की बात करता है लेकिन पेशवाओं ने इसे ठुकरा दिया तथा महारो को गांव छोड़ने की धमकी दी। यही से सिद्धनाक और महार जाति के लोगों ने अपने सम्मान बचाने के लिए तथा अत्याचारों से मुक्ति के लिए अंग्रेजों की और से पेशावाओं के खिलाफ युद्ध करने की ठान ली। अंग्रेज़ी सेना की ओर से लडने का ऐलान हो गया अंग्रेज इस बात से राजी हो गए अब यहां से भीमा कोरे गांव का ऐतिहासिक युद्ध शुरू होता है। यही महार जाति के 500 योद्धा पेशवाओं की शक्तिशाली विशाल सेना से टकरा जाते हैं
01 जनवरी 1818 ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे तले 500 महार सैनिकों ने पेशवा बाजीराव-2 की 25000-28000 सैनिकों की टुकड़ी से लोहा लिया तथा घमासान युद्ध किया। महज 12 घंटे चले युद्ध में पराजित कर दिया था।
सैनिकों की याद में बना है शौर्य स्तंभ
इस ऐतिहासिक युद्ध में अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले योद्धाओं की वीरता को याद करने के लिए यहां
कोरेगांव के मैदान में जिन महार सैनिकों ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की, उनके सम्मान में सन 1822 ई. में भीमा नदी के किनारे काले पत्थरों के रणस्तंभ का निर्माण किया गया, जिन पर उनके नाम खुदे हैं। इस घटना को देश भर के दलित अपने इतिहास का एक वीरतापूर्ण प्रकरण मानते हैं। बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी यहां पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी थी।
1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव में हुआ विवाद भड़की हिंसा
भीमा कोरेगांव में 1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव युद्ध के द्विशताब्दी समारोह के उपलक्ष में यहां उत्सव का आयोजन हो रहा था। इसी बीच यहां कुछ विरोधी संगठनों ने विरोध कर हिंसा फैला दी। इस हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। इस घटना की पुलिस जांच में कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया, जिनके बारे में उन्होंने आरोप लगाया कि उनके "माओवादी लिंक" थे। पुलिस ने आरोप लगाया कि उन्होंने 31 दिसंबर, 2017 को एल्गार परिषद की बैठक को वित्तपोषित किया, जहां पुलिस के अनुसार भड़काऊ भाषण दिए गए, जिसके कारण हिंसा हुई। 28 अगस्त, 2019 को गिरफ्तार किए गए लोगों में लेखक और कवि वरवर राव, वकील और कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज अकादमिक और कार्यकर्ता वर्नोन गोंजाल्विस और मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण फरेरा और गौतम नवलखा शामिल थे।
इसी बीच भीमा-कोरेगांव की बरसी पर भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर वहां रैली करना चाहते थे, लेकिन प्रशासन ने उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी है। चंद्रशेखर को भीमा-कोरेगांव स्मारक स्थल पर पहुंचने से पहले ही रोक ले लिया गया था।
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