![]() |
रोहिणी आचार्य का पिता को जीवनदायनी तोहफा फोटो आभार सोशल मीडिया |
रोहिणी आचार्य : पिता को समर्पित मेरे लिए एक मांस का टुकड़ा
kidney transplant: रोहिणी आचार्य (Rohini Acharya) अपने पिता लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) को किडनी दान करने के बाद सुर्खियों में है। लालू प्रसाद यादव की दूसरी सबसे बड़ी बेटी रोहिणी आचार्य अपने परिवार के साथ सिंगापुर में रहती हैं। रोहिणी आचार्य ने पिता लालू को अपनी एक किडनी देकर उन्हें जीवन दान दिया है। एक रिपोर्ट के अनुसार, सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में किडनी प्रत्यारोपण का ऑपरेशन सफलतापूर्वक पूरा हुआ। पिता और पुत्री दोनों स्वस्थ बताए जा रहे हैं। यहां बात किडनी दान करने की प्रक्रिया और बिमारी एवं किडनी विफलता के कारणों की नहीं करते हैं। हालांकि गुर्दा या शरीर के किसी अंग के ट्रांसप्लांट या प्रत्यारोपण की बातें हर दिन सुनते हैं यह एक चिकित्सा उन्नत तकनीकी के बदौलत दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
बात करते हैं एक बेटी के महत्व की जो पुरातन काल से चली आ रही पुरूष प्रधान समाज और उसकी गहरी सोच की , जहां बेटियों को वो स्थान आज भी नहीं मिला जो बेटों को मिला हुआ है।
एक बेटी का हौसला देखिए जो अपने पिता के लिए अपना एक गुर्दा समर्पित कर देती है। आज आधुनिक युग में भी बेटियों को बोझ पराये घर का धन समझकर उनको हय दृष्टि से देखा जाता है। पिता लालू प्रसाद यादव को अपना एक महत्वपूर्ण अंग दान करके बेटी रोहिणी ने वो करके दिखा दिया कि जब मुश्किल समय में बेटी जितना त्याग कर सकती हैं उतना कभी बेटों से संभव नहीं होता है। हालांकि भारत में किडनी डोनेट करने में अनेक भ्रान्तियां भी है तो कुछ कानुनी पेश। एक बेटी ने जब पिता को नई जिंदगी देने के लिए किडनी दान करने का फैसला किया तब यह क्षण एक पिता और पुत्री के रिश्ते को बहुत गहराई से महसूस करने का और बेटी के महत्व को समझने वाला क्षण रहा होगा। भारतीय समाज में बेटियों को कमजोर तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था के नजरिए से कहीं न कहीं बेटे से कम आंका जाता है। इस सोच की जड़ें इतनी गहरी है कि कोई पिता न चाहते हुए भी आखिर बेटे के बिना बेटी के होते हुए भी एक खालीपन महसूस करता है जबकि यह सिर्फ सोच का परिणाम है। जिस तरह रोहिणी ने पिता के लिए जो किया वो बेटी के कद को महान बनाता है और सार्थक करता है कि सामाजिक सोच ग़लत है बेटी वाकई अपने आप में एक पिता की ताक़त सौभाग्य और सहारा है जिसकी बराबरी कुछ मामलों में बेटों से संभव नहीं है।
जो बेटी माता-पिता के लिए त्याग कर सकती है, वह कोई नहीं कर सकता। मां-बाप के प्रति जो एक संतान का कर्तव्य होता है, उस कर्तव्य को रोहिणी ने निभाया है। गौरतलब है कि भारत और विश्व में अंग-दान में महिलाएं आगे है वो भी पुरूषों को अंग दान किए हैं जब पुरूषों को महिलाओं को अंगदान की बात आती है तो यहां आंकड़े फिसड्डी साबित होते हैं इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुरुष प्रधान समाज में बेटियों को स्वाभाविक तौर पर फर्क किया जाता है। आज रोहिणी से हजारों लाखों बेटियों को प्रेरणा मिली है लेकिन समाज में एक संवेदना जागृत भी हुई है कि वाकई बेटियां माता पिता और परिवार के लिए वो सबकुछ है । लोगों में अनेक पूर्वाग्रह और भ्रान्तियां फैली है कि बेटी से बेटा अधिक साथ देगा तथा बुढ़ापे में वह सहारा बनेगा तथा बेटी को तो दूसरे घर में जाना है इस तरह की तमाम बातों से बेटियों के प्रति जो सोच विकसित हुई है वह केवल एक सोच ही बनी हुई है लेकिन बेटियों के जो अपना फर्ज अदा किया है वह बेजोड़ और अनूठा है।
यही सोच ना जाने कितने भ्रूण हत्याओं का कारण बनी किस तरहां से बेटियों के प्रति व्यवहार किया गया बड़े शर्म की बात तो यह है कि बेटियों को बचाने के लिए कानून बनाने पड़े। क्या हम दुनिया के सबसे खूबसूरत और अनमोल तोहफे को गले लगाने के लिए स्वप्रेरणा से आगे नहीं बढ़ सके आज भी जिस तरह बेटियों के प्रति हमारी जो सोच कायम है वह अपने आप में शर्मिन्दा हैं क्योंकि आज भी बेटियों को नालियों में फेंकने और भ्रुण हत्या के मामले आये दिन सामने आते हैं। हालांकि रोहिणी से पहले भी अंग दान हुए हैं और आगे भी होंगे लेकिन मशाल जो हमें सोचने को मजबूर करती है कि वास्तव में एक बेटी एक पिता और परिवार के लिए वरदान होती है फिर भी हम इसे स्वीकारने में झिझक क्यों रखते हैं। क्या कारण है कि बेटियों के महत्व को हम खुले दिल से स्वीकार नहीं करते? वे कोनसी बाधाएं हैं जिससे हम बेटियों को वो हक नहीं देते जो जिनकी वे हकदार हैं। बेटियां वास्तव में जैविक और सामाजिक रूप से बेटों के बराबर है उनका त्याग और समर्पण उन्हें लक्ष्मी का रूप प्रदान करता है फिर भी उनके होने के मधुर अहसास को हम बोझिल समझते हैं हालांकि यह समस्या केवल बेटियों की नहीं है यह समस्या उन पिताओं के लिए भी है जो बेटे की कमी में बेटियों को गले लगाते हुए बेटे की चाह में मायूस हो जाता है। एक पिता को बेटी के प्रति नकारात्मक सोच विकसित करवाने का काम कोई कमी और दुविधा नहीं बल्कि सामाजिक मापदंड और पूर्वाग्रह है जो उसे बेटी की उपस्थिति में भी बेटे की लालचा और उम्मीदें सताने लगती है। समाज और पितृसत्तात्मक सोच ही उस पिता के लिए समस्या बनती है जो उसे जीवन की सुरक्षा एक बेटे के पक्ष में दिखाती है लेकिन असल में एक बेटी पिता के लिए जीवन का सबसे बड़ा वरदान है। हमें एक विशेष सोच को खत्म करने की जरूरत है हमें बेटियों की क्षमताओं और उसके महत्व को स्वीकार करने के साथ-साथ उस भय और चिंता को खुशी से दूर करने की जरूरत है कि बेटी है तो क्या बेटे से कम है। हालांकि सामाजिक जीवन में बेटों से जो अपेक्षाएं और उम्मीदें मापदंड के रूप में स्थापित की गई है उन सभी मिथ्या और भ्रम को दूर करना बहुत मुश्किल काम है लेकिन रोहिणी जैसी बेटियों और उनके रिश्तों के लिए किए गए कार्यों को सराहने के साथ साथ हमें महसूस करने की जरूरत है तथा बेधड़क और बिना झिझक यह स्वीकार करने की हिम्मत करनी होगी कि बेटियां हमारे जीवन की अमूल्य रत्न और सौभाग्य है जो हमें दुनिया के सबसे खूबसूरत उपहार के रूप में प्राप्त होती है। उनका होना एक पिता और उनके परिवार की सबसे बड़ी पूंजी होती है।
बेटी हो तो ऐसी
ReplyDelete