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Saturday, May 28, 2022

वैश्वीकरण के दौर में साम्प्रदायिक उन्माद तथा युवापीढ़ी का भविष्य

religious violence
धार्मिक हिंसा राष्ट्र प्रगति में बाधक प्रतिकात्मक फोटो



देश में साम्प्रदायिक हिंसा और धार्मिक आक्रोश की घटनाएं बढ़ती जा रही है। आए दिन साम्प्रदायिक घटनाएं चिंता का विषय है। धर्म से जुड़े किसी मुद्दे पर हिंसा तथा युवावर्ग में धर्म को लेकर बनी उन्मादी मानसिकता देश तथा देश की प्रगति के लिए बाधक है, साथ ही में इस जहरीली सोच में लिप्त युवा पीढ़ी का भविष्य बर्बादी की ओर जा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप युवा अकर्मण्य, असामाजिक तथा हिंसात्मक होकर अपनी युवावस्था के जोश को रैलियों तथा नारेबाजी में बर्बाद कर रहा है। सांप्रदायिकता एक संकीर्ण मनोवृत्ति है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर संपूर्ण समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के खिलाफ व्यक्ति को केवल स्व धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है। हालांकि भारत जैसे सांस्कृतिक विविधता वाले देश में साम्प्रदायिकता की भावना को पूर्णतः समाप्त करना मुश्किल काम है  क्योंकि भारत में इसकी जड़ें प्राचीन संस्कृति और विविधता से जुड़ी हुई है। लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में भी साम्प्रदायिक उन्माद मूर्खता का परिचय है। दूसरी तरफ एंग्लो अमेरिका तथा यूरोपीय देशों से सीखने की आवश्यकता है। आज आधी दुनिया धर्म सम्प्रदाय तथा जातिवाद के संकीर्ण मुद्दों से ऊपर उठकर बहुत आगे निकल गई है। किसी राष्ट्र की प्रगति वहां के युवाओं की शिक्षा, कार्य क्षमता तथा आधुनिक तकनीकी की निपुणता में देखी जाती है अगर देश का युवा धर्म तथा सम्प्रदाय के लिए निरर्थक एवं लक्ष्य विहिन लड़ाईयों में लग जाएगा तो देश में क्या होगा? 
हमारे देश में धार्मिक एवं साम्प्रदायिक मुद्दों को केवल राजनैतिक एवं सियासी स्वार्थों को पूरा करने के लिए किया जाता है। राजनैतिक दल इसे समाप्त करने की बजाए पोषित करते है। हर बार इस पोषण की आहुति में युवा पीढ़ी को जलाया जाता है। 
वैश्वीकरण के दौर में जहां धर्म और सम्प्रदाय के मुद्दे गौण हो रहे हैं दुनिया के विकसित देश विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं तो दुसरी तरफ कुछ देशों में वोटों की राजनीति के लिए धर्म और सम्प्रदाय की कट्टरता से आस्था को भड़काकर हिंसात्मक गतिविधियों को विभिन्न माध्यमों से हवा दी जाती है जिसका अनुमान हिंसा में शामिल लोगों को भी नहीं होता है।
स्वीडन और नार्वे जैसे देश जिन्होंने बहुत पहले ही धर्मनिरपेक्षता को अपना लिया है इस प्रकार के राष्ट्र आज मानव विकास सूचकांक में ऊपरी पायदान पर हैं तथा विकास की गति भी हासिल कर रहे हैं। कहा जाता है कि धर्म व्यक्ति की तार्किकता को सीमित करता है। हालांकि धर्म और आस्था का होना बुरी बात नहीं है लेकिन जब इस धर्म और आस्था का उपयोग सियासत और साम्प्रदायिक प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के लिए करवाया जाता है तब यह कई मायनों में हानिकारक साबित होता है। हालांकि पूंजीवाद तथा भौतिकतावादी युग ने व्यक्ति को धर्म और साम्प्रदायिकता की सोच से जरूर ऊपर उठाया है लेकिन दुर्भाग्यवश धार्मिक आधारशिला पर बने राजनैतिक दल, कट्टर धार्मिक संगठनों के नेता तथा राजनैतिक दलों के आईटी सेल कार्यकर्ता आदि ऐसे साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले तत्वों को तूल देते हैं। सियासी भाषणों एवं वोटबैंक की राजनीति में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष  धार्मिक मुद्दों की चिंगारी फैलाई जाती है जिसकी आग में देश का युवा शिकार होता है। देश की युवा पीढ़ी जिसके कंधों पर व्यक्तिगत, सामाजिक तथा आर्थिक उन्नति की जिम्मेदारी होती है वहीं युवा अपना अमूल्य समय साम्प्रदायिक संरक्षण की प्रतिद्वंदी गतिविधियों में लगाता है।  बहकी हुई युवा पीढ़ी भविष्य में ना तो व्यक्तिगत विकास की राह पकड़ सकती है  ना ही राष्ट्र निर्माण  में योगदान दे सकती है। इसलिेए वर्तमान में देश की युवा पीढ़ी को साम्प्रदायिकता की आग से महफूज रखना एक बड़ी चुनौती है। देश में साम्प्रदायिक एवं धार्मिक सौहार्द को बढ़ावा देना न्यायपालिका और सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए। दूसरी तरफ युवाओं को साम्प्रदायिक हिंसात्मक सोच के चंगुल से बचाने के लिए शिक्षा और रोजगार के रास्तों की मोड़ना ज़रुरी हैं नहीं तो कट्टरता और सियासत के चंद स्वार्थों  हेतु कुछ समय के लिए उपयोग की गई युवा पीढ़ी एक दिन  बेगारी की भीड़ बनकर देश की अवनति का कारण बनेगी।

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