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Thursday, April 14, 2022

Dr. BR Ambedkar Jayanti: समान लक्ष्यों के बावजूद डॉ अंबेडकर और गांधी के बीच क्यों थे वैचारिक मतभेद

Dr Babasaheb Ambedkar vs Gandhi
भीम राव अंबेडकर बनाम महात्मा गांधी के विचार एवं मतभेद

भीमराव अम्बेडकर बनाम महात्मा गांधी dr. Ambedkar vs Gandhi ideological differences


14 अप्रैल 2022 को पूरे भारतवर्ष में डाक्टर बाबासाहेब बीआर अंबडेकर की 131 वीं जयंती हर्षोल्लास और धूमधाम से मनाई गई। इस मौके पर संसद भवन परिसर में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत लोकसभा अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्रियों ने संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को श्रद्धांजलि अर्पित की। बाबा साहेब का भारतीय संविधान का शिल्पी कहा जाता है। उनको दलितों वो महिलाओं का उद्धारक तथा सिंम्बल आफ नाॅलेज कहा जाता है। अम्बेडकर भारत के सबसे विद्वान महापुरुष थे। उन्होंने संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति का नेतृत्व किया और स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में कार्य किया। बाबासाहेब की 131 वीं जयंती पर पीएम मोदी ने पुष्प अर्पित करके बाबा साहेब को श्रद्धांजलि दी। देश भर में अंबेडकर जयंती के मौके पर जगह-जगह अनेक कार्यक्रमों व रैलियों का आयोजन किया गया । हर गली गली में जय भीम और नीले झंडों के साथ बाबासाहेब को याद किया गया। बाबा साहेब आंबेडकर की 131 वीं जयंती पर आइए जानते हैं बाबा साहेब व महात्मा गांधी के मतभेद व वैचारिक लक्ष्यों के बारे में खास बातें।


डाक्टर भीम अम्बेडकर और महात्मा गांधी के विचार मतभेद, लक्ष्य ,चिंतन एवं कार्य


गांधी और अम्बेडकर के बीच कैसा व्यवहार और वैचारिक संबंध थे यह महत्वपूर्ण प्रश्न है हर कोई जानता चाहता है कि गांधी और अम्बेडकर के बीच मतभेद क्यों थे? क्या गांधी और अम्बेडकर की सोच दलितों और भारतीय सामाजिक व्यवस्था के समक्ष समान थी? क्या गांधी और अम्बेडकर भारतीय धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ एकमत थे? आइए जानते हैं इन सभी सवालों के जवाब ।

महात्मा गांधी तथा बाबासाहेब अम्बेडकर दोनों दलित जातियों के उत्थान के लिए समर्पित थे। दोनों मानवीय गरिमा तथा समानता पर आधारित समाज की स्थापना करना चाहते थे। जन्म पर आधारित अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने के लिए दौनों कृत संकल्प थे। दोनों के सामाजिक उद्देश्य एक होते हुए भी ऐसा क्या था कि भारत की ये दो महान् विभूतियां साथ नहीं चल सकी। हालांकि व्यवहार में गांधी तथा अम्बेडकर के बीच विद्यमान दूरियां कई बार कटुता की स्थिति तक पहुंच जाती थीं। अम्बेडकर का मत था कि भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की तुलना मे सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना अधिक महत्वपूर्ण है। उनका गांधी तथा कांग्रेस के प्रति यह आक्षेप था कि उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के प्रयासों को अपेक्षित प्राथमिकता नहीं दी। गाँधी तथा अम्बेडकर के बीच कई मसलों पर दृष्टिकोण सम्बन्धी भिन्नता भी विद्यमान थी, जिसके चलते दोनों के मध्य दूरियां बनी रहीं।

गांधी वर्ण व्यवस्था को सामाजिक संगठन का स्वाभाविक नियम मानते थे, तथा इसमें विद्यमान ऊँच-नीच की भावना को कालान्तर में आयी एक विकृति मानते थे। वे अस्पृश्यता के पाप तथा जाति व्यवस्था की उपयोगिता के बीच कोई विरोध नहीं देखते थे। जबकि अम्बेडकर का मानना था कि जाति को नष्ट किये बिना अस्पृश्यता को नष्ट नहीं किया जा सकता है, चर्तुवर्ण सिद्वान्त के उन्मूलन के बिना मानव समानता स्थापित नहीं हो सकती। उनका यह मत था कि जाति प्रथा ही अस्पृश्यों की दुर्दशा तथा शोषण के लिए जिम्मेदार है, अतः अस्पृश्यों का उत्थान जाति उन्मूलन के साथ जुड़ा हुआ है।

गांधी वंशानुगत व्यवसायों के भी समर्थक थे। उनके अनुसार, वर्ण व्यवस्था हमें सिखाती है कि हम सब अपने बाप दादा के पेशों को अपनाते हुये आजीविका का निर्वहन करें। यह हमारे अधिकारों का नहीं, कर्तव्यों का निर्धारण करती है। सभी व्यवसाय विधि सम्मत तथा समान हैं। ब्राह्मण तथा हरिजन का व्यवसाय एक समान है। लेकिन अम्बेडकर ने इसे अस्वीकार करते हुये गांधी की कथनी व करनी का भेद बताया। उन्होंने गांधी से सवाल किया कि क्या स्वयं उन्होंने बाप दादों के पेशे को अपनाया है ? वे स्वयं बनिया होने के कारण व्यापार उनका पेशा होना चाहिए लेकिन उन्होंने वकालत का पेशा अपनाया। इसी प्रकार गांधी ने अन्तरजातीय विवाह तथा सहभोज पर प्रतिबन्ध को उचित बताया जबकि अम्बेडकर इससे सहमत नहीं थे। वे जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए अन्तरजातीय विवाह को आवश्यक मानते थे।

गांधी तथा अम्बेडकर दोनों ही अस्पृश्यता को अनैतिक तथा अमानवीय प्रथा मानते थे तथा दोनों ही इस प्रथा को समूल नष्ट करना चाहते थे लेकिन अस्पृश्यता के कारण तथा निदान के सम्बन्ध में दोनों के दृष्टिकोण भिन्न थे। गांधी अछूतों को हिन्दू समाज का अभिन्न अंग मानते थे। उनका कहना था कि अछूतों की समस्या, हिन्दू समाज की समस्या है तथा यदि हिन्दू समाज को जीवित रहना है तो उसे अछूतों की समस्या का निराकरण करना होगा । अम्बेडकर की मान्यता इसके विपरीत थी। उनका कहना था कि यदि दलित हिन्दू होते तो हिन्दू उनके साथ नहीं करते। उन्होंने तीसरे दशक तक दलित समस्या का निदान हिन्दू समाज के दायरे में किये जाने के प्रयास किये और अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सुधारात्मक प्रयासों से, इस समस्या को जड़ से मिटाना सम्भव नहीं है। अम्बेडकर का कहना था कि हिन्दू जाति और धर्म एक दूसरे के पर्याय हैं। जाति की जड़ें धर्म में होने के कारण जाति का उन्मूलन संभव नहीं है इसलिए अम्बेडकर ने अपने साथ अन्ततः बौद्ध धर्म ग्रहण करने का निर्णय लिया। 

साथियों गांधी अस्पृश्यता निवारण एवं व्यवस्था परिवर्तन हेतु सवर्णों तथा परिवर्तन करना आवश्यक मानते थे। वे सौहार्द, सामंजस्य तथा शान्तिपूर्ण अहिंसात्मक तरीकों से समाज में बदलाव लाना चाहते थे, लेकिन अम्बेडकर इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि व्यवस्था में बदलाव तथा छुआछूत की समाप्ति के लिए संघर्ष जरूरी है। इसीलिए उन्होंने दलितों तथा शोषितों को संघर्ष के लिए एकजुट होने का आह्वान किया। वे कानून द्वारा समस्या के समाधान को महत्वपूर्ण मानते थे। इसी आधार पर उन्होंने संवैधानिक दायरे में दलितों को राजनीतिक शक्ति प्रदान के लिए सरकारी सेवाओं तथा विधायिकाओं में पृथक प्रतिनिधित्व दिलाने की कोशिश की।

अम्बेडकर की पहल पर ही ब्रिटिश सरकार ने दलितों को सन् 1932 में साम्प्रदायिक के तहत पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया जिसके विरोध में गांधी ने आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। गांधी की चिन्ताजनक स्थिति को देखते हुए अम्बेडकर स्वयं गांधी तथा कांग्रेस के प्रतिनिधियों से मिले जिसके परिणामस्वरूप दौनों पक्षों के बीच पूना पैक्ट हुआ। इस समझौते के अनुसार अम्बेडकर ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग छोड़ दी और गांधी ने दलितों के लिए आरक्षण का प्रावधान स्वीकार कर लिया।


इस प्रकार गांधी एवं अम्बेडकर दोनों समानता तथा न्याय पर आधारित समाज की स्थापना के पक्षधर थे, लेकिन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाये गये साधनों में भिन्नता थी। अम्बेडकर तथा गांधी भारतीय समाज की दो भिन्न भिन्न पृष्ठभूमि से आये थे, दौनों के दृष्टिकोण में भिन्नता का एक प्रमुख आधार यह पृष्ठभूमि भी थी। हिन्दू समाज के पदसोपानीय विभाजन की पीड़ा को गांधी ने भोगा नहीं, मात्र देखा था अतः अस्पृश्यता जैसी कुरीति के प्रति एक दृष्टा के भाव से उसे उन्होंने समझने व मिटाने की कोशिश की। अम्बेडकर का संदर्भ बिल्कुल अलग था। उन्होंने जाति व्यवस्था में विद्यमान भेदभाव तथा अस्पृश्यता के दंश को स्वयं झेला था, अतः भुक्त भोगी होने की पीड़ा तथा इस व्यवस्था के प्रति आक्रोश उनके दृष्टिकोण तथा विचार अभिव्यक्ति में स्पष्ट दिखाई देता है। उन्होंने नैतिकता, सदाचार, व्यवसाय सभी का आधार धर्म शास्त्रों द्वारा स्वीकृति और जन्माधारित जाति व्यवस्था को माना। यही कारण है कि वे जाति आधारित किसी भी प्रकार की व्यवस्था तथा व्यवहार के विरोधी थे और इसीलिए वे वर्ण एवं जाति व्यवस्था को नष्ट करने के बाद ही समता पर आधारित समाज की स्थापना को सम्भव मानते थे।

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