डरावने सपने के बाद।
क्या हो जब वह सपना,
सपना न हो कर हकीकत हों।
मुस्करा लिया करते हैं तनिक
गम की करवट के बाद।
क्या हो जब इसी हंसी से,
अरमानों की फजीहत हों।
हर क्षण आता है लौटकर ,
ओझल होते मंजर के बाद।
क्या हो जब उसी नजारे में
उम्मीदों की गनीमत हों।
छलक जाते हैं खुशियों के आंसू ,
अक्सर लुभावनी बातों के बाद।
क्या हो जब उस आंसू की आखिरी बूंद में
कुछ सीमाओं की नसीहत हों।
यूं तो जरूर आता है समय अच्छा,
बुरा दौर गुजरने के बाद।
क्या हो जब यह वक्त ,
किसी इंसा की यादों में अमानत हों।
गुजरती ज़रूर है यह ज़िन्दगी,
हंसी ख्वाब के लुट जाने के बाद।
क्या हो जब संजोए सपने भी
विरानियों की बनावट हों।
भरी महफ़िल में बजानी पड़ती है ताली
शेर की आखिरी नज्म के बाद।
क्या हो जब यह रौनक ए महफ़िल,
किसी तलबगार से खोई वसियत हो।
माना जिन्दगी में आते जाते हैं दुःख
सुखी पलों के गुज़र जाने के बाद।
क्या हो जब कुछ गमों में
दिखती बेरंग सी सजावट हों
भरती है सदा रंग ये जिंदगी ,
एक रंग उतर जाने के बाद।
क्या हो जब मुकन्दर में
स्याह सी लिखावट हों।
टूट भी जाते हैं अक्सर झुनझुने
बच्चों की जिद के बाद ।
क्या हो जब टूट जाएं वो खिलौने
जो जीवन जीने की असलियत हों।
©आशुर्चित:- रमेश कुमार जोगचन्द
©आशुर्चित:- रमेश कुमार जोगचन्द
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