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Thursday, July 16, 2020

डॉ. कफील खान का सफर चिकित्सा सेवा, सलाखें एवं,एनएसए मामले से न्यायालय की तारीख तक

Dr kafile khan
डाॅ कफील खान


डाॅ. कफील की रिहाई की बात करना खतरे से खाली नहीं है। देशद्रोही की मोहरें लिए कुछ लोग हरदम तैयार है। न जाने कब लगा दें। खैर रिहाई की मांग की बात भी साफ सूथरी तर्क के साथ करनी चाहिए । ऐसा नहीं कि आप धर्म का चश्मा पहन कर बिना सोचे समझे डॉ काफिल की रिहाई के लिए बोलने लग जाओ। डॉ कफील की रिहाई की मांग क्यो हो रही है ?और क्यो होनी चाहिए? इसके लिए तथ्य समझने जरूरी है।
15 जुलाई की सुनवाई में अगली तारीख मिल गई है।
लेकिन हमें विस्तार से समझना है। 
23 सितंबर, 1980 को इंदिरा गांधी की सरकार के कार्यकाल में अस्‍तित्‍व में आए रासूका के तहत उन्हें हिंसा भड़काने के आरोप में नजरबंद किया जाता है। कोई भी आन्दोलन हो उसमें यह बात आम है । माना हिंसक भाषण का आरोप एक कानून की बात है हमें सम्मान करना चाहिए। लेकिन क्या कुछ लोगों के हिंसक भाषण आए दिन हम मंचों से सुनते हैं उनसे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष हिंसा भी होती है। क्या उन सभी की गिरफ्तारी होती है या उस समय हुईं जब हिंसा चरम पर थी। हालांकि कफील पर कुछ बच्चों की जान बचाने की वाह वाही का पुरस्कार भी है। 

देश में किसी कानून के विरोध में या अपने अधिकारों के लिए कभी भी किसी को भी आन्दोलन करना पड़ सकता है। आन्दोलन होते भी है। जब आंदोलनकारियों की सूध नहीं ली जाती है तब आन्दोलनकारी हिंसात्मक रुख अपनाते हैं जो की गलत है लेकिन नई बात नहीं है।
गुर्जर आरक्षण आंदोलन, ओबीसी आरक्षण आन्दोलन, बाबरी विध्वंस, एससी-एसटी एक्ट आन्दोलन आदि आदि कई आन्दोलन हिंसात्मक रहे हैं। 
 वे आन्दोलन में जो कि अधिकारों को बचाने के लिए होते उन पर रासूका से गिरफ्तार कर लेना फिर लम्बे समय तक जेल में रखना उचित होगा। जबाब यह ही होगा कि देश में शान्ति के लिए जरूरी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या उस हर व्यक्ति की रासूका से गिरफ्तारी हुई है जिसके भड़काऊ भाषण आज भी रिकॉर्ड है?
क्या भविष्य में आप अधिकारों के ऊपर लड़ने वाले हर संगठन और लीडर्स की इस तरह निष्पक्ष गिरफ्तारी कर पाएंगे। समस्या तब होती है जब भेदभाव पूर्ण किसी  विचारधारा के पूर्वाग्रह से इस कानून का पक्षपाती उपयोग किया जाता है।
इसलिए डॉ काफिल के साथ जो इतना सख्ती के साथ हो रहा है वैसा भविष्य में किसी प्रदर्शनकारियो पर संभव नहीं है क्योंकि लोकतंत्र में आन्दोलन की जरूरत धर्म और जाति विशेष को ही नहीं आप और हम या किसान मजदूर , कर्मचारियों को भी पड़ सकती है। यह सामयिक घटनाक्रम है। वो आडवाणी का भाषण भी कुछ ऐसा ही था जिसमें कार सेवकों में जोश भर दिया था।
विषयात्मक आन्दोलन और राष्ट्र विरोधी हिंसात्मक  भाषण इन दोनों में काफी अन्तर है सरकार की दमनकारी या निरंकुशत नीति के विरुद्ध किये प्रदर्शनों को  देश की अखंडता के खतरे से नहीं जोड़ सकते।
लेकिन कानून के अपने दायरे है जो है। उसके अधीन वह काम करेगा। लेकिन जब यही कानून किसी पर लागू करने के पीछे अगर भेदभाव हो असमान वितरण हो , किसी  संगठन, पंथ अथवा सरकार के राजनैतिक हित के लिए विषम रूप में हो तो सवाल खड़े होते हैं । बाकि ऐसा मूर्ख कौन जो अपराधियों का पक्ष लेगा। इसलिए सहानुभूति गुहार लगाई जाती है। इसी कड़ी में हम डां कफील का जिक्र करते हैं कि वह कोई खूंखार अपराधी नहीं है वह एक आन्दोलनकारी था। बैशक उसने दल विशेष के नेताओं के खिलाफ नारेबाजी की है।
मर्डर और बड़े बड़े संगीन आरोप वाले अपराधियों को रिहा कर दिया जाता है जो कि असल में अपराध के दायरे में आते हैं। और बाहर आकर उसी अपराधिक गतिविधियों का संचालन करते हैं। लेकिन रासुका कानून की समय सीमा के अनुसार डॉ काफिल को रिहा कर देना चाहिए।  

क्या है वर्तमान में आरोप

नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में 12 दिसंबर को एएमयू में आयोजित सभा में डॉ. कफील ने भड़काऊ भाषण दिया था। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ टिप्पणी की थी। 13 दिसंबर को सिविल लाइंस थाने में मुकदमा दर्ज हुआ। 29 जनवरी को यूपी एसटीएफ ने डॉ. कफील को मुंबई से गिरफ्तार किया और एक फरवरी को अलीगढ़ लाया गया। यहां से तत्काल ही मथुरा जेल भेज दिया गया। 10 फरवरी को सीजेएम कोर्ट से कफील को जमानत मिल गई, लेकिन तीन दिन तक रिहा नहीं किया गया, बल्कि प्रशासन ने कफील पर रासुका के तहत कार्रवाई कर दी। 


पहले भी हो चुकी है जेल

 साल 2017 अगस्त में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में कथित तौर पर ऑक्सीजन की कमी के कारण कई बच्चों की मौत हुई थी। इस मामले में अस्पताल के नवजात शिशु विभाग के वार्ड सुपरिटेंडेंट रहे डॉक्टर कफील खान को गिरफ्तार किया गया था। उन्हें लखनऊ में इस मामले की जांच के लिए बनाए गए स्पेशल टास्क फोर्स ने दो सितंबर को गिरफ्तार किया। बीते बुधवार को उन्हें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जमानत दे दी है। डॉक्टर कफील खान को पिछले साल दो सितंबर को लापरवाही बरतने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उन पर ये भी आरोप था कि वो अपनी पत्नी के क्लीनिक में प्राइवेट प्रेक्टिस करते हैं।
इस पूरे मामले में 9 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया था। जिसमें से ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी के मालिक को भी जमानत मिल चुकी है। जमानत पाने के लिए कफील के परिवार ने आठ महीनों में छह बार याचिकाएं दाखिल की थीं जो निचली अदालत से नामंजूर होती रहीं। इसके बाद उनके परिवार ने हाईकोर्ट में अपील की। जेल से जमानत पर बाहर आए डॉक्टर कफील से बीबीसी संवाददाता आदर्श राठौर ने बात की।
तकरीबन आठ महीने तक जेल में रहने वाले डॉक्टर कफील कहते हैं कि यह काफी बुरा अनुभव था, जेल में स्थितियां काफी अमानवीय हैं, एक सेल में 150 से अधिक लोग रहते हैं जो कि बहुत डरावना है और जब जेल से निकलकर आया तो मानसिक रूप से काफी थका हुआ था। वह कहते हैं, "जब कोई गुनाह किया हो तो लगता है कि चलो गुनाह किया है लेकिन मेरा दिल बार-बार पूछता था कि मैंने क्या गुनाह किया है कि जो मैं यहां हूं। बच्चों की जान बचाने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर लाना क्या गुनाह था? मेरा दिल कहता था कि तुमने कोई गलती नहीं की है। शायद अल्लाह परीक्षा ले रहा है।"
हालांकि 6 महीने बाद डॉ. कफील को रिपोर्ट मिली, जिसमें उनके काम और बच्चों की ज़िन्दगी को बचाने के लिए उनकी तरफ से की गई कोशिशों के लिए उनकी प्रशंसा की गई थी। यानी डॉ. कफील अगस्त 2017 से अक्टूबर 2019 तक हुकूमत के ज़ुल्म को सहते रहे।
फिर एक बार और डॉ. कफील चर्चा मे आए जब बिहार में बाढ़ आई और लाखों लोगों की ज़िंदगी को बर्बाद कर गई। बिहार में उन्होंने फिर एक बार अपना मसीहा होने का रूप दिखाया और मेडिकल कैम्प के माध्यम से बिहार की जनता की सेवा करते रहे।
हालांकि काफील के परिवार के जिसमे उसके भाई के साथ भी दुर्व्यवहार हुआं।
इस पूरे मामले को समझें मानवीय दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करें तो सियासत का षड्यंत्र नजर आता है। संदेश और भी गहरा जाता है कि वह एक मुस्लिम है। तो क्या किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र में धर्म विशेष को लेकर एक चिकित्सक के साथ ऐसा व्यवहार होना अच्छी बात नहीं हो सकती है। हर व्यक्ति का अपना स्वाभिमान होता है। सत्य सामने लाने का अधिकार होता है। डॉ काफिल ही नहीं लोकतंत्र में उस हर अकेले व्यक्ति के साथ खड़ा होना चाहिए जो किसी भी पंथ का हो । जिस पर गलती थोंपने की कोशिश की गई हो। 

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