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Maharana pratap |
महाराणा प्रताप श्रेष्ठ योद्धा और सच्चे जननायक थे। सभी धर्मों के लोग इस स्वाधीनता संघर्ष में प्रताप के साथ थे। प्रताप ने अपने व्यक्तित्व से मेवाड़ के प्रत्येक व्यक्ति को मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सब कुछ न्योछावर कर देने वाला योद्धा बना दिया। प्रताप के काल में निर्माण कार्य भी हुए। प्रताप के काल में विशिष्ट चावण्ड चित्रकला शैली का विकास हुआ व विश्ववल्लभ जैसे कई संस्कृत ग्रंथ भी लिखे गए। प्रताप ने सर्वस्व त्याग कर अन्तिम समय तक मातृभूमि के लिये मर-मिटने का जो आदर्श प्रस्तुत किया, उसने इतिहास में महाराणा प्रताप को अमर बना दिया। जिस प्रकार से उन्होंने कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की यह उन्हें स्वतंत्रता का श्रेष्ठ प्रेमी बनाता है।
प्रताप का जीवन परिचय
हालांकि महाराणा प्रताप के जन्म दिवस को लेकर सभी इतिहासकार एक मत नहीं है प्रताप का जन्म वीर विनोद के अनुसार 15 मई 1539 ई., नैनसी के अनुसार 4 मई 1540 ई., कर्नल टॉड के अनुसार 9 मई 1549 ई. को कुंभलगढ़ में हुआ। पिता का नाम उदयसिंह व माता का नाम जयन्ता बाई था। प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। प्रताप का बचपन का जीवन कुंभलगढ़ में ही व्यतीत हुआ। राणा उदयसिंह अपनी रानी भटयाणी के प्रभाव में आकर प्रताप की जगह जगमाल को उत्तराधिकारी बना गया। सोनगरा अखैराज ने जगमाल को गद्दी से हटाकर प्रताप को गद्दी पर बैठाया, कृष्णदास ने प्रताप की कमर में राजकीय तलवार बांधी। इस प्रकार महाराणा प्रताप का 28 फरवरी, 1572 ई. में गोगुन्दा में राज्याभिषेक हुआ तथा वे मेवाड़ के शासक बने। इससे जगमाल नाराज होकर अकबर की शरण में चला गया, वह आजीवन मेवाड़ का शत्रु बना रहा। 1583 ई. में दत्ताणी के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। 1572 ई. तक सभी राजपूतों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अकबर ने महाराणा प्रताप के संबंध में 1572 ई. से 1576 ई. के बीच चार शिष्टमण्डल भेजे। लेकिन वे प्रताप को अधीन लाने में असफल रहे। 1572 ई. में दरबारी जलाल खां को भेजा जो महाराणा प्रताप को आत्मरामर्पण करवाने में असफल रहा। 1573 ई. में आमेर के राजकुमार मानसिंह को भेजा इनकी मुलाकात उदयसागर झील के पास हुई फिर क्रमश सित्मबर 1573, दिसम्बर 1573, भगवन्तदास, टोडरमल को भेजा लेकिन उनको भी सफलता नहीं मिली।
आखिर हल्दीघाटी का यद्ध 18 जून 1576 ई. के युद्ध में (कुछ विद्वान इस युद्ध की दिनांक 21 जून मानते हैं) मानसिंह और प्रताप की सैनाओं का आमना सामना हुआ। कर्नल टॉड ने इसे थार्मोपल्ली का युद्ध कहा है। इस युद्ध को कुछ इतिहासकार खमनौर व गोगुन्दा का युद्ध भी कहते हैं । इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एक मात्र मुस्लिम सरदार हकीम खाँ सूरी थे। कर्नल जेम्स टॉड ने थर्मोपल्ली कहा, आबूलफजल हल्दीघाटी के युद्ध को खमनौर का युद्ध कहता है तथा बदायूँनी इसे गोगुन्दा का युद्ध कहता है एवं डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव इसे 'बादशाहबाग' नाम देते हैं। 18 जून, 1576 ई. में मेवाड़ व मुगल सेना में घमासान युद्ध हुआ, पहले मुगल सेना हार रही थी लेकिन मुगल सेना के नेता मिहत्तर खां ने अकबर की आने की झूठी अफवाह फैला दी जिससे मुगलों के सैनिकों में जोश आ गया। राणा प्रताप का घोड़ा चेतक घायल हो गया, राणा प्रताप को युद्ध से दूर भेजा गया। राव बीदा झाला ने राज चिह्न को धारण कर अंतिम दम तक मुगलों से लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हो गए। अमरकाव्य वंशावली तथा राज-प्रशस्ति के अनुसार महाराणा प्रताप के युद्ध से बच निकलने के बाद उनके भाई से मुलाकात हुई थी। उनका बहादुर घोड़ा चेतक और उनका हाथी रामप्रसाद को हमेशा याद रखा जाएगा तथा इतिहास में इन स्वामीभक्तो का नाम हमेशा गर्व से लिया जाएगा।
हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ के शूर वीरों का आक्रमण
हल्दीघाटी युद्ध में मेवाड़ के शूर वीरों का आक्रमण का वेग इतना तीव्र था कि मुगल सैनिकों ने बनास के दूसरे किनारे से पाच-छह कोस तक भागकर अपनी जान बचाई। अब प्रताप ने अपने चेतक घोडे को छलाँग लगवाकर हाथी पर सवार मानसिंह पर अपने भाले से वार किया किया मानासिंह बच गया। उसका हाथी मान सिंह को लेकर भाग गया। इस घटना में चेतक हाथी की सूंड़ में लगी तलवार से जख्मी हो गया। प्रताप को शत्रु सेना ने घेर लिया। लेकिन प्रताप ने संतुलन बनाए रखा तथा अपनी शक्ति का अभूतपूर्व प्रदर्शन करते हुए मुगल सेना में उपस्थित बलिष्ठ पठान बहलोल खाँ के वार का ऐसा प्रतिकार किया कि खान के जिरह बख्तर सहित उसके के भी दो टूकडे हो गए। इस दृश्य को देखकर मुगल सेना में हडकम्प मच गया। अब प्रताप ने युद्ध का मैदान के बजाय पहाड़ों में मोड़ने का प्रयास किया। उनकी सेना के दोनों भाग एकत्र होकर पहाड़ी का ओर मुड़े और अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचे । तब तक मुगल सेना को रोके रखने का उत्तरदायित्व झाला मान को सौंपा । झाला ने अपना जीवन उत्सर्ग करके भी अपने कर्तव्य का पालन किया। इस युद्ध में मुगल सैनिकों का मनोबल इतना टूट चुका था कि उसमें प्रताप की सेना का पीछा करने का साहस नहीं रहा।
युद्ध का परिणाम इतिहास के झरोखे से
मुग़ल इतिहासकारों ने इस युद्ध में अकबर को विजयी बताया, किन्तु मेवाड़ के अभिलेखों (इतिहास, शिलालेख, प्रशस्तियों) में प्रताप की विजय होना लिखा है। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि अकबर अपने एक भी उद्देश्य में सफल नहीं रहा। इस युद्ध में प्रताप का पलड़ा निःसन्देह भारी रहा वैसे कि प्रताप और अकबर का संघर्ष धार्मिक युद्ध नहीं था। यह सदा राजनीतिक शक्तियों के मध्य वर्चस्व का संघर्ष था। प्रताप का सेनापति हाकिम खान सूरी था जबकि मुगल सेना का नेतृत्व राजा मानसिंह ने किया।
हल्दीघाटी के युद्ध के बाद अगले पाँच वर्ष तक प्रताप छापामार युद्ध प्रणाली से मुगलों को छकाते रहे। अकबर ने तीन बार शाहबाज खाँ को प्रताप के विरूद्ध भेजा, किन्तु उसे असफल होकर लौटना पड़ा। मुगलों को असहाय अवस्था में पाकर प्रताप ने प्रतिरक्षात्मक की अपेक्षा आक्रामक नीति अपनाई।
प्रताप की शूर वीरता साहस और मातृभूमि की रक्षा के लिए उनकी महिमा राजस्थान के लोकनाट्य, लोक गीतों और भजनों में सूनने और देखने को मिलती है जिससे हर किसी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। एक राजस्थानी भजन की लाइनें जिसमें उनकी वीरता की एक झलक मिलती है।
मैं बाचों है इतिहासां में,
मायड़ थे एड़ा पुत जण्या,
अन-बान लजायो नी थारो,
रणधीरा वी सरदार बण्या,
बेरीया रा वरसु बादिळा,
सारा पड ग्या ऊण रे आगे,
वो झुक्यो नही नर नाहरियो,
हिन्दवा सुरज मेवाड़ रतन
वो महाराणा प्रताप कठे?
मायड़ थारो वो पुत कठे?
वो एकलिंग दीवान कठे?
वो मेवाड़ी सिरमौर कठे?
वो महाराणा प्रताप कठे?
ऐसे कई भजन और वीर कथाएं प्रचलित हैं जिसमें महाराणा प्रताप के जीवन और उनके उच्च कोटि के व्यक्तित्व का बखान किया गया है। प्रताप राजस्थान और मेवाड़ की आन बान और शान है। जिनकी देश भक्ति हमारे लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत रहेगी।
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