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Sunday, March 29, 2020

अधिगम के सिद्धांत- थार्नडाईक का संबंधवाद उद्दीपन-अनुक्रिया सिद्धांत S-R Theory


Uddhipak anukriya siddhant tharndice
थार्नडाइक का संबधवाद



थार्नडाईक का संबंधवाद : 



 इस अधिगम सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरीकी मनोवैज्ञानिक एड्वर्ड.एल.थार्नडाईक द्वारा 1913 में अपनी प्रकाशित पुस्तक Educational Psychology में किया गया था। यह सिद्धान्त कई अन्य उपनामों से जाना जाता है जो निम्न प्रकार से है।
1. उद्दीपन-अनुक्रिया सिद्धांत (S-R theory)
2.सीखने का संबंध सिद्धांत 
3 प्रयास एवं त्रुटि या प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत 
4.संयोजनवाद ।

 इस प्रकार एक विशेष उद्दीपक का एक विशेष अनुक्रिया के साथ संबंध स्थापित हो जाता है यही संबंधवाद है।
थार्नडाईक ने अपना प्रयोग एक भूखी बिल्ली पर किया। भूखी बिल्ली को एक विशेष बॉक्स पजल बॉक्स (Puzzle Box) मे बंद कर दिया तथा बॉक्स के बाहर भोजन रख दिया गया। बॉक्स से बाहर आने के लिए बॉक्स मे एक लिवर लगा था जिसे दबाने पर बॉक्स का दरवाजा खुल सकता था। भूख होने के कारण बिल्ली ने बॉक्स में उछल-कूद मचाई इसी उछल-कूद मे लीवर दब गया और बिल्ली ने बाहर आकर भोजन प्राप्त कर लिया। थार्नडाईक ने इस प्रयोग को बार-बार दोहराया तथा देखा कि प्रत्येक बार बिल्ली को बाहर आने में पिछले बार से कम समय लगा और कुछ समय बाद बिल्ली एक ही प्रयास में बॉक्स का दरवाजा खोलना सीख गई । अर्थात् उद्दीपक और अनुक्रिया मे स्थाई बंधन बन गया। 
थार्नडाईक के नियम : अपने प्रयोग के आधार पर थार्नडाईक ने विभिन्न नियम प्रतिपादित किए जिन्हें मुख्य नियम एवं गौंण नियम कहा जाता है।

 मुख्य नियम


1. तत्परता का नियम : इस नियम के अनुसार जब प्राणी किसी कार्य को करने के लिए तत्पर हो और यदि वह कार्य को करता है तो आनंद या संतोष की प्राप्ति होती है लेकिन कार्य नही करने पर या बलपूर्वक कार्य करने पर असंतोष या दुःख की प्राप्ति होती है।
2. अभ्यास का नियम : इस नियम के अनुसार अभ्यास
करने से पूर्णता आती है। यह नियम सीखी गई विषय वस्तु के बार-बार अभ्यास करने पर बल देता है।
3. प्रभाव का नियम : इस नियम को संतोष तथा असंतोष का नियम भी कहा जाता है। यह नियम बताता है कि
जिस कार्य को करने से प्राणी को सुख एवं संतोष मिलता है वह इस कार्य को बार-बार करना चाहता है, इसके विपरीत जिस कार्य से दु:ख या अंसतोष मिलता है, उसे प्राणी दोबारा नही करना चाहता है।

 गौंण नियम: 

1. बहुअनुक्रिया का नियम : इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति के सामने कोई परिस्थिति या समस्या उपस्थित होती है तो उसका समाधान करने के लिये वह अनेक प्रकार की अनुक्रियाए करता है, और इन अनुक्रियाओं को करने का क्रम तब तक जारी रहता है, जब तक कि सही अनुक्रिया द्वारा समस्या का हल प्राप्त नही हो जाता है।

2. मानसिक स्थिति या मानसिक विन्यास का नियम :
सीखने की गति एवं सीमा प्राणी की मनोवृत्ति पर निर्भर करती है। यदि प्राणी सीखने के लिए मानसिक रूप से
तैयार होता है तो वह शीघ्र सीख जाता है, अन्यथा नहीं। 
3. आंशिक क्रिया का नियम : इस नियम के अनुसार
कोई एक प्रतिक्रिया सम्पूर्ण स्थिति के प्रति न होकर स्थिति के कुछ पक्षों अथवा अंशों के प्रति ही होती है। इसलिए यह नियम किसी कार्य को अंशो में विभाजित करके करने पर बल देता है।
4. सादृश्य अनुक्रिया का नियम: यह नियम पूर्व अनुभव
पर आधारित है। जब प्राणी के सामने कोई नवीन परिस्थिति या समस्या उपस्थित होती है तो वह उससे मिलती-जुलती परिस्थिति या समस्या का स्मरण करता है जिसका वह पूर्व में अनुभव कर चुका है। वह उसके प्रति वैसी ही प्रतिक्रिया करता है जैसी पहली वाली स्थिति में की थी। 
5. साहचर्यात्मक स्थानांतरण का नियम : इस नियम के अनुसार एक उद्दीपक के प्रति होने वाली अनुक्रिया बाद में किसी दूसरे उद्दीपक से भी होने लगती है। थार्नडाईक ने पावलव के शास्त्रीय अनुबंधन को ही साहचर्य परिर्वतन के नियम के रूप में व्यक्त किया।

शिक्षक के लिए महत्त्व :


मंद बुद्धि बालकों को पढ़ाने में इस सिद्धांत का उपयोग
किया जा सकता है।
 यह सिद्धांत बालकों में जागरूकता, धैर्य, सक्रियता तथा
सतत् परिश्रम जैसे गुणों का विकास करने में सहायक है
 यह सिद्धांत गलती से प्राप्त तरह-तरह के अनुभवों का
अन्य परिस्थितियों में लाभ उठाने का प्रशिक्षण देता है।
यह सिद्धांत सीखने-सिखाने से पहले सीखने वाले प्राणी ।
को मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार करने की
आवश्यकता पर बल देता है। यह सिद्धांत सीखे गए ज्ञान तथा कौशलों का बार-बार अभ्यास करने की आवश्यकता पर बल देता है। यह सिद्धांत गहन चिन्तन वाले विषयों जैसे गणित,विज्ञान, दर्शन, समस्या समाधान आदि के अध्ययन में विशेष सहयोगी है। यह सिद्धांत अधिगम प्रक्रिया में प्रोत्साहन व प्रेरणा के प्रभाव को स्पष्ट करके सीखने में पुरस्कार के महत्व को प्रतिपादित करता है। यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि सीखना प्रत्यक्ष व गत्यात्मक प्रकृति का तथा ज्ञानात्मक, भावात्मक व क्रियात्मक तीनों पक्षों का एकीकृत रूप है। बालकों समस्याओं का समाधान सुगमतापूर्वक करने का प्रशिक्षण प्रदान करता है। समस्या समाधान में बालक प्रयत्न व भूल विधि को अपनाते हैं। समस्या समाधान में बालक सफल प्रयत्नों को दोहराता है तथा असफल प्रयत्नों को या तो छोड़ देता है अथवा उनमें सुधार कर लेता है।  थार्नडाइक के सिद्धांत से स्पष्ट होता है कि उन्होंने सीखनेके लिए पुनर्बलन  को आवश्यक माना है।

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