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Sunday, March 29, 2020

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत



Samajik adhigam bandura
संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत जीन पियाजे



संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत



स्विस मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे (1896-1960) ने बच्चों में सोच के विकास का विस्तार से अध्ययन किया।
- पियोजे के अनुसार मानव शिशु शुरूआत में सज्ञानी जीव नहीं होते। इसके बजाय अपनी बोधात्मक और गत्यात्मक गतिविधियों के द्वारा मनोवैज्ञानिक ढांचे, अनुभवों से सीखने के संगठित तरीके जिनके द्वारा बच्चे ज्यादा प्रभावशाली ढंग से खुद को अपने पर्यावरण के अनुकूल ढाल पाते हैं,बनाते और निखारते हैं।
इन ढांचों को विकसित करते समय बच्चे बहुत गहन रूप से सक्रिय रहते हैं। वे अनुभवों के मौजूदा ढांचों का उपयोग करते हुए उनका चुनाव करते हैं और अर्थ निकालते हैं तथा वास्तविकता के और बारीक पक्षों को ग्रहण करने के लिए उन ढांचों में बदलाव करते हैं। चूंकि पियाजे का मानना था कि बच्चे उनकी दुनिया के लगभग समस्त ज्ञान को उनकी अपनी गतिविधियों के द्वारा खोजते या निर्मित करते हैं अतः पियाजे के सिद्धान्त को संज्ञानात्मक विकास तक ले जाने वाला रचनात्मक मार्ग कहा जाता है।

संज्ञानात्मक विकास से सम्बन्धित पियाजे के सम्प्रत्य


1.स्कीमा-जैविक परिपक्वता ,भौतिक पर्यावरण के अनुभव, सामाजिक पर्यावरण को समन्वय को स्कीमा कहा जाता है।
2.अनुकूलन-सात्मीकरण , स्मंजन/संधानीकरण 
मानव संज्ञान एवं पियाजे
संज्ञान का तात्पर्य अपनी इन्द्रियों के माध्यम से अपने आस-पास घटित घटनाओं की जानकारी या ज्ञान से है। मानव संज्ञान या संज्ञानात्मक विकास की अवधारण स्वीट्जरलैण्ड के जीन पियाजे द्वारा प्रस्तुत की गई थी, इसलिए इन्हें विकासात्मक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है। जीन पियाजे मूलत: जन्तु विज्ञान से जुड़े है लेकिन इन्होंने जीव विज्ञान और ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में संबंध खोजने का प्रयास किया और इसी कारण य मनोविज्ञान की ओर प्रवृत्त हुए। इन्होंने अपने बच्चों पर प्रयोग करते हुए बताया की मानव के संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया शैशवावस्था से ही प्रारंभ हो जाती है तथा संज्ञानात्मक विकास की निम्न 4 अवस्थाएँ होती हैं

 1.संवेदनात्मक गामक अवस्था (संवेदी प्रेरक अवस्था)


संज्ञानात्मक विकास की यह प्रथम अवस्था है, जो जन्म से 2 वर्ष तक रहती है। इस अवस्था में शिशु बाहरी वातावरण का ज्ञान अपनी संवेदनाओं तथा क्रियाओं की सहायता से अर्जित करता है। इस अवस्था में शिशु देख कर, छू कर, सुन कर, पकड़ कर सीखता है। शिशु प्रारंभ में अनुकरण करने के लिए भाषा का प्रयोग करते हैं लेकिन बाद में अभिव्यक्ति के लिए भाषा का प्रयोग करता है।

2. पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (पूर्व वैचारिक अवस्था):


संज्ञानात्मक विकास की यह अवस्था 2 वर्ष से 7 वर्ष
तक रहती है। इस अवस्था में संकतात्मक कार्यों का प्रादुर्भाव तथा भाषा का प्रयोग प्रारंभ होता है। इस उम्र के बालक खिलौनों को वास्तविक मानते है। अपने आप से बाते करते है। बिना सिर-पैर की बाते बनाते है। पियाजे ने इसे 'कलैक्टिव मोलोलाग' नाम दिया है । इस अवस्था को पुन: दो भागों में बाँटा गया है।
(i) पूर्व-प्रत्यात्मक काल : यह अवस्था 2 वर्ष से 4
वर्ष तक रहती है तथा इसे परिर्वतन काल एवं खोज की अवस्था भी कहते हैं क्योंकि इसमे शिशु जिस वस्तु के सम्पर्क में आता है, उसके बारे में क्यों एवं कैसे के प्रश्न पूछता है। (ii) अंत:प्रज्ञ काल-यह काल 4 से 7 वर्ष तक रहताहै तथा इसमे मस्तिष्क बिना तार्किक चिन्तन किए
किसी बात को स्वीकार कर लेता है।


3. मूर्त-संक्रियात्मक अवस्था (वैचारिक अवस्था/स्थूल संक्रियात्मक अवस्था)


यह संज्ञानात्मक विकास की तीसरी अवस्था है, जो 7 वर्ष से 12 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवस्था में बालक का अतार्किक चिंतन तार्किक चिन्तन में बदल जाता है। लेकिन यह तार्किकता मूर्त या स्थूल परिस्थितियों तक ही सिमित रहती है। इस अवस्था में बालक विभिन्न वस्तुओं में अंतर व समानता बताने की योग्यता प्राप्त कर लेता है।

4.  औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था : 


यह संज्ञानात्मक विकास की अंतिम अवस्था है, जो 12 वर्ष के बाद शुरू होती है। इस अवस्था में बालक अमूर्त चिंतन की ओर अगसर होता है । मूर्त वस्तुओं तथा सामग्री के स्थान पर शाब्दिक तथा सांकेतिक अभिव्यक्ति का प्रयोग तार्किक चिन्तन में किया जाता है। बालक निष्कर्ष निकालने लगता है, व्याख्या करने लगता है तथा परिकल्पनायें बनाने लगता है औपचारिक संक्रियात्मक विचार बालकों को वास्तविकता से बाहर जाने तथा संभावनाओं पर विचार करने योग्य बनाते हैं।

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