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Friday, February 21, 2020

अमेरिका और खाड़ी देशों के बीच तनावपूर्ण स्थिति पर एक नजर

अमेरिका और खाड़ी देशों के बीच तनावपूर्ण  स्थिति पर एक नजर



America vs khadi country
America vs khadi country


सोवियत संघ के विघटन के बाद एक धुव्रीय विश्व व्यवस्था में अमेरिका हमेशा विश्व शांति के पक्ष में बात करता रहा। अमेरिका लम्बे समय तक मुनरो सिध्दांत पर चल कर विश्व के अन्य देशों के प्रति उदासीन रहा। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने मुनरो नीति का परित्याग कर दिया और डाॅलर डिप्लोमेसी की नीति अपनाते हुए आज वह सम्पुर्ण विश्व में अपनी पहचान और दबदबा बनाने में कामयाब हो गया। आज सम्पूर्ण विश्व जानता है कि कोई महाशक्ति है तो वह संयुक्त राज्य अमेरिका है। 
इस मुकाम तक पहुंचाने में अमेरिका के विभिन्न भूतपूर्व शासनकर्ताओं का बड़ा योगदान है हालांकि उनकी विदेशी नीति  भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से संबंधित रही हो लेकिन उनकी महत्त्वकांक्षी विचारधाराओं के परिणामस्वरूप आज विश्व पटल पर अमेरिका महानतम शक्ति के रूप में उभर कर सामने आया है।
अमेरिका का कूटनीतिक रवैया अधिकांश देशों को अपने अधिनस्थ बनाने में रहा है तथा हमेशा उसने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास किया है। संसार के अनेक देशों में अमरीका ने अपने सैनिक अड्डे स्थापित किए । अनेक देशों के साथ उसने असमान व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किए जिससे उसे उनकी आर्थिक व्यवस्था को अपने नियन्त्रण में रखने का अधिकार प्राप्त हो गया । पश्चिमी एशिया के तेल को अपने अधिकार में लेने के लिए उसने वहां की राजनीति में हस्तक्षेप किया । साम्यवाद को रोकने के नाम पर उसने वियतनाम पर अत्याचार किए । अमेरिका की विदेश नीति हमेशा बदलते मौसम की तरह रही है। जब सद्दाम हुसैन ने 1980 में ईरान पर हमला किया था। ईरान और इराक के बीच आठ साल चले इस युद्ध में अमेरिका सद्दाम हुसैन के साथ था। अपने हितों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका योजना बद्ध तरीके से चाल चलता रहा।
अमेरिकी चालबाजी का दूसरा अहम पहलू यह है कि वह दक्षिण एशिया में आणविक हथियारों के माहौल को जल्द अपने नियन्त्रण में कर लेना चाहता है। हथियार और तेल व्यापार अधिपत्य के लालच से खाड़ी देशों में शान्ति की मध्यस्थता के बहाने यहां के शक्तिशाली देशों को कमजोर करना चाहता है। इसी सिलसिले में अमेरिका पिछले कई सालों से खाड़ी देशों में उलझा हुआ है । खाड़ी युद्ध, कुवैत मामला तथा  इराक को जमीनी लड़ाई में परास्त करना आदि मामलों में अमेरिका ने अपनी सेनाओं को हमेशा वहां तैनात रखा है। सद्दाम हुसैन पर रासायनिक हथियारों के आरोप लगाकर इराक को तबाह करना तथा सद्दाम को कानूनी रास्ते से मौत के घाट उतारने में भी अमेरिका अछूता नहीं है। अमेरिका की दखलंदाजी आज भी जारी है,जिसके परिणामस्वरूप आज भी पश्चिम एशिया में युद्ध की लपटें रह रहकर उठती रही है। पहले जार्ज बुश ने खाड़ी युद्धों से जो शुरूआत की थी उसी सिलसिले को ट्रम्प भी जारी रखना चाहते हैं। वर्तमान सरकार की सख्त कार्रवाई और ईरान से तनाव की स्थिति  उन्हें चुनावी मैदान में फायदा पहुंचाएगी या नहीं या यह सब दुरगामी हित साधने के प्रयास है। जो भी हो पश्चिम एशियाई देशों में जो अब संकट गहराया है, यह भविष्य में अमेरिका और खाड़ी देशों के लिए आर्थिक हालात और शान्ति व्यवस्था के लिए बुरा संदेश है। हाल ही में ईरान के सबसे शक्तिशाली सैन्य कमांडर और खुफिया प्रमुख मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की इराक में बगदाद हवाई अड्डे पर अमेरिकी हवाई हमले में हत्या कई सवाल खड़े करती है। हालांकि इस हत्या के बाद अमेरिका ने अपने इस फैसले को सही बताते हुए कहा कि, 'वह अमेरिकी प्रतिष्ठानों और राजनयिकों पर हमला करने की साजिश रच रहा था। लेकिन इन सब बातों से लग रहा है कि कभी विश्व में शांति की जिम्मेदारी लेने वाला अमेरिका अपनी उसी परम्परा को जारी रखना चाहता है जिसमें उनके सामने चुनौती देने वाली सभी ताकतों को दबोच लेना है। एशिया में आर्थिक विकास तेजी से बढ़ रहा है उससे अमरीका को चिन्ता है कि 21वीं सदी में विश्व पर एशिया के दो शक्तिशाली देश जापान और चीन अपना-अपना प्रभाव विस्तार कर सकते हैं इसी के चलते अमेरिका की दिलचस्पी तेजी के साथ पश्चिम एशिया,मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में बढ़ रही है। इसीलिए खाड़ी देशों में अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण स्थति तनावपूर्ण बनी हुई है। हमें इस संघर्ष को तृतीय विश्व युद्ध की आहट कहने की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए क्योंकि दुनिया के अनेक देश अपनी विकासशील धुन में उदासीन है। हालांकि भारत जेसै शान्तिप्रिय देशों पर अमेरिका-ईरान तनाव से व्यापारिक असर पड़ सकता है।



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