भारत की शीर्ष एवं अंतरिम अदालत उच्चतम न्यायालय नें पिछले दिनों में महत्त्वपूर्ण व ऐतिहासिक फैसले सुनाए हैं।
जिसमे अयोध्या विवाद फैसला सबसे चर्चित एवं ऐतिहासिक था। एक और फैसला 28 सितंबर 2018 को केरल के सबरीमाला विवाद को लेकर सुनाया था। जो विरोध के बाद पुनर्विचार के लिए फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। हम इन दोनों विवादों के माध्यम से जानने की कोशिश करेंगे कि उच्चतम न्यायालय या अन्य न्यायालय के फैसलों का विरोध तथा अवमानना करके विधि सम्मत शासन व्यवस्था को मजबूत करने की बजाय हम कमजोर क्यो कर रहें हैं?
फैजाबाद की जिला अदालत में दायर 1885 में संत रघुबर दास की याचिका से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक करीब 134 साल बाद अयोध्या विवाद का जहरीला अध्याय आखिर 9 नवंबर को समाप्त हो गया। जिसमें अयोध्या भूमि विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट 40 दिनों की लगातार सुनवाई के बाद अपना ऐतिहासिक फैसला सुना दिया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से विवादित जमीन को रामलला विराजमान की बताया। साथ ही मुस्लिम पक्ष को पांच एकड़ वैकल्पिक जमीन देने का आदेश दिया है।
एक ऐसा विवाद जो नहीं होना चाहिए था। दुर्भाग्यवश हुआ लेकिन हमारे माननीय न्यायालय ने इस अप्रत्याशित, जटिल और लम्बे विवाद को बहुत अच्छे न्यायिक तरीके से सुलझाने की कोशिश की। वैसे सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम है और हम सभी को इसका सम्मान करना चाहिए। अलबत्ता,यह जरूर है कि रिव्यू के लिए कोई भी पक्ष अपील कर सकता है तो उसकी सुनवाई का अधिकार केवल उच्चतम न्यायालय को ही है। मुस्लिम पक्ष के वकील जिलानी और औवेसी ने फ़ैसले पर असंतोष जताते हुए तथ्यों के ऊपर आस्था की जीत बताया है, वहीं ज़फ़रयाब जिलानी ने कहा है कि पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे।
गौरतलब है कि यह विवाद सदियों पुराना हैं। तथ्यों की पुष्टि की बात करें तो एक लम्बे कालखण्ड में कई विदेशी शासन व्यवस्थाओं तथा इतिहास के उतार-चढ़ाव से गुजरने के बाद हमारा युवा न्यायालय इतना पीछे नहीं जा सकता था। क्योंकि 1934 में स्थापित भारत की शीर्ष न्यायिक प्राधिकरण संस्थान ने स्वतंत्रता के बाद 28 जनवरी 1950 को वर्तमान स्वरूप प्राप्त किया था। जो कि इस पुराने विवाद के लिहाज से युवा है।
फिर भी तात्कालिन एवं मौजूदा जांच आधारित तथ्यों को मध्यनजर रखते हुए "निष्पक्ष न्याय और अच्छे विवेक" सिद्धांत पर लोकप्रिय फैसले से सदियों से चले आ रहे जहरीले विवाद की जड़ों को काटने की कोशिश की गई। जो कि भारत वर्ष में शान्ति ,सोहार्द और भाईचारे के लिए बहुत उपयोगी है।
हम सभी भारतीयों को राष्ट्र हित के लिए सर्वोच्च अदालत के फैसले को स्वीकारना चाहिए। अगर कोई भूल हुई हो तो समीक्षा और पुनर्विचार हेतु न्यायालय स्वयं अनुमति देता है। लेकिन स्वार्थ की ज़िद से हमें विरोध नहीं करना चाहिए।
अयोध्या विवाद और सबरीमाला मंदिर विवाद फैसले को स्वीकारने में लोगों का दोहरा चरित्र दिखा। जब 28 सितंबर 2018 सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए सभी महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत दी थी। इसके विरोध व्यापक स्तर पर विरोध प्रर्दशन हुए थे, फैसले को लेकर कई जगह हिंसा भड़की थी। अब दायर पुनर्विचार याचिका को पांच जजों की बेंच ने बहुमत से बड़ी बेंच को रेफर कर दिया है। अब 7 जजों की बेंच इस मामले में सुनवाई करेगी। लोगों की मान्यताएं और धार्मिक विचारधाराएं जैसी भी हो, व्यक्तिगत भले ही माने लेकिन आज के लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक युग में संवैधानिक और समानता के अधिकारो की बात सर्वोपरि है। एक तरफ हम लिंग आधारित भेद भाव को दूर करने की बात करते है साथ ही कुछ विषयों पर महिलाओं के प्रति हीनभावना रखेंगे तो लैंगिक समानता की थोथी कल्पना ही होगी।
जहाॅ तक हो आस्था और श्रद्धा के मामले कोर्ट की दहलीज पर नहीं जाने चाहिए लेकिन दुर्भाग्यवश कोर्ट में पहुंचते हैं तो फैसले भी स्वीकारने चाहिए। क्योंकि न्यायालय सदैव वैज्ञानिक, संवैधानिक, तथा महिलाओं और समाज के हर व्यक्ति को बराबर अधिकार की रक्षा को मध्यनजर रखते हुए निष्पक्ष फैसला करते है।
अगर हम आस्था और विश्वास के तथ्यों से न्यायपालिका को उलझन में डालकर अवमानना करेंगे तो विधि के शासन को कमजोर करने के साथ-साथ प्राकृतिक न्याय को भी पंगु बना देंगे। न्यायालय सबरीमाला विवाद फैसले में भी सही था और राममंदिर फैसले पर भी सही हैं। न्यायालय इस तथ्य को कैसे सिद्ध करेगा की भगवान अयप्पा 10 से 50 साल की महिलाओं के प्रवेश से नाराज़ होते है?
इसलिए राष्ट्र में शान्ति, सोहार्द के बहाने कुछ मान्यताओं और परम्पराओं से ऊपर उठकर फैसले स्वीकार कर आत्मसमर्पित किये जाएं ताकि प्राकृतिक न्याय की अवधारणा को जीवंत रखा जा सके।
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